एक टी.वी. चेनल पर दिनांक 30 सितम्बर को समाचार दिखाया गया कि कानपुर मे एक युवक ने स्वयं को पाकिस्तानी आंतकवादी घोषित किया था। इसकी प्रतिक्रिया मे आम-जनता ने उसे पीट-पीट कर मार डाला और गंगा मे फेक दिया। यद्यापि देश के किसी भी नागरिक को कानून को स्वयं हाथ मे लेने का अधिकार नही है और आम-जनता को भी यह अधिकार नही है कि वह किसी व्यक्ति के दण्डात्मक कृत्य पर सामूहिक रूप से स्वयं ही दण्ड दे दें। लेकिन इस समाचार से देश के समक्ष दो प्रश्न उत्पन्न होते हैं। एक तो यह कि देश की आम-जनता अब यह वर्दाश्त करने वाली नही है कि कोई भी व्यक्ति स्वयं को आंतकवादी कह कर भय का वातावरण निर्मित करे और पाकिस्तान के नाम पर अपना वर्चास्व स्थापित करे। जनता यह भी समझती है कि इस मृतक युवक के द्वारा कथित रूप से पाकिस्तानी आंतकवादी स्वयं को कहने पर पुलिस को यदि खबर भी की जाती तो ज्यादा से ज्यादा पुलिस उससे पूंछतांछ करती और फिर हंसी-मंजाक मे कही गई बात मान ली जाती, जांच उपरान्त उसे छोड़ दिया जाता। यदि वह सच मे ही पाकिस्तानी समर्थक आतंकवादी होता हुआ पाया जाता तो, पुलिस पूंछतांछ मे काफी समय जाया करती और फिर कई वर्षोंं तक न्यायालय मे मुकदमे की ट्रायल चलती रहती, वह भी वी.आई.पी. की तरह बड़े राॅब से जैल मे रह कर मेहमानदारी करता रहता, तब कहीं जा कर मुकदमे का फैसला होता। उदाहरणतः हम कश्मीर मे देखते रहते हैं कि कुछ युवक भीड़ के स्वरूप मे एक ओर पकिस्तानी अथवा आई.एस.आई.एस. के झण्डे खुले आम लहराते रहते हैं, पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाते हैं और हिन्दुस्तान को मुर्दाबाद कहते हैं तथा इनके सामने कश्मीरी पुलिस खड़ी-खड़ी तमाशा देखती रहती है और कवड्डी-कवड्डी की तरह खेल होकर सारा प्रदर्शन हिन्दुस्तान की जमीं़ पर आया-गया हो जाता है। इसी तरह की खबरें आगरा व कानपुर से पूर्व मे सुनने को मिलती रही हंै। चंूकि ऐसा होता रहता है और दूसरे तथा-कथित अन्य लोग भी पाकिस्तान के नाम पर स्वयं को आंतकवादी कहते हुये उस जैसी हरकत करने से बाज नही आते हैं। इस कारण इन खबरों से भारत का मजबूर कानून और निरीह प्रशासानिक व्यवस्था का परिणाम बना कानपुर की आम-जनता का यह आक्रोश भरा क्रोध, जिसने यह निर्णय लिया कि जो भी स्वयं को पाकिस्तानी आंतकवादी कहेगा, उसका यही हश्र होगा।
कानपुर की उक्त घटना से दूसरा सन्देश यह मिलता है कि आम-जनता की आस्था, बर्तमान न्यायालयीन व्यवस्था के प्रति क्षींण हो रही है। मुम्बई का आंतकी हमला मे अजमल कसाव का प्रकरण कई वर्षोंं तक अदालत की देहरी से बाहर ही नही निकला और वह जैल मे बिरयानी खाता रहा, लोकसभा पर हमला करने वाला अफजल गुरू का मुकदमा, मुम्बई बम ब्लास्ट का मामला और ऐसे ही अनेकों आंतकवादियांे के मुकदमे न्यायालयों मे कई-कई वर्षों से लम्बित बने रहै और आंतकवादी आरोपी जेल मे ठाठ से मेहमानदारी करते रहै हैं। प्रश्न यह है कि देश के बिरूद्ध युद्ध छेड़ने वाले इन आंतकवादियों के मुकदमे अदालतों मे वर्षों लम्बित बने रहने के कारण क्या इस देश को न्याय दे पाये ? देर से न्याय मिलना
, न्याय नही मिलने के समान है और न्याय जगत के लोग नारा लगाते हैं, ‘‘जस्टिस डिलेड जस्टिस डिनाईड।’’
अदालतों मे मुकदमों की संख्या बढ़तीं ही जा रहीं हैं, फैसला होते होते युग बीत जाते हैं। न्याय मिलने की संवेदनशीलता कमजोर होती जा रही है। दीवानी मुकदमों का तो न्यायालय मे दायर होना अब बहुत ही कम होता जा रहा है, क्यों कि एक पीढ़ी दायर करती है और दूसरी पीढ़ी फैसला सुनती है। न्यायालयों मे अवकाश सर्वाधिक होते हैं, गर्मियों की छुटिट्यां, सर्दियों की छुटिट्यां, दिवाली छुटिट्यां, शनिवार की छुटिट्यां, आखिर क्यों ? क्यों नही प्रत्येक शनिवार न्यायालय अपना काम करतीं है ? म.प्र. मे ‘‘नाॅन-वर्किंग सटर्डे’’ की औचित्यता क्या है ? न्यायाधीशों को अपार सुविधायें, आकर्षक वेतन के बाद भी मुकदमों के निपटारे मे बिलम्ब क्यों ? प्रत्येक शनिवार अपर जुडीसियरी व लाॅवर जुडीसियरी मे मुकदमों की सुनवाई क्यों नही होती है ? क्यों नही आतंकवादियों के मुकदमे एक वर्ष मे और अपील छः माह के अन्दर निपटाने का कानून बनाया जाता है ? डर है कि सस्ता एवं सुलभ न्याय की जगह दूरस्थ एवं दुर्लभ न्याय न हो जाये।
लेखक- राजेन्द्र तिवारी, अभिभाषक, छोटा बाजार दतिया
फोन- 07522-238333, 9425116738
इ मेल : rajendra.rt.tiwari@gmail.com
नोट:- लेखक एक वरिष्ठ शासकीय अभिभाषक एवं राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक विषयों के समालोचक हैं।

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