‘कथा कहैं अरु अर्थ विचारैं,
आप तरैं औरन को तारैं‘
14वीं सदी के दौरान को हिन्दी साहित्यिक जगत में इस समय को मध्यकाल कहा जाता है। मध्यकाल को भक्तिकाल कहा गया। भक्तिकाल में साधु-सन्तों, ऋषि-मुनियों, योगियों-महर्षियों और महामानवों ने जन्म लिया है। समाज में फैली कुरीतियों एवं बुराइयों के खिलाफ न केवल बिगुल बजाया, बल्कि समाज को टूटने से भी बचाया। लेकिन संत शिरोमणि रविदास जी ने जो किया वह अद्भूत, अकल्पनीय व बेमिसाल रही। वे अपने अलौकिक ज्ञान से समाज को अज्ञान, अधर्म एवं अंधविश्वास के अनंत अंधकार से निकालकर एक नई स्वर्णिम आभा भी प्रदान की। उनका जीवन ऐसे अद्भुत एवं अविस्मरणीय प्रेरक प्रसंगों से भरा हुआ है, जो मनुष्यों को सच्चा जीवन-मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं
‘ऐसा चाहू राज मैं, जहां मिलई सबन के अन्न। छोट-बड़ेन सब सम बसे, रविदास रहे प्रसंन‘।। जी हां संत शिरोमणि रविदास जी की यह सोच थी। इस सोच को आत्मसात करने-कराने के लिए लाखों-करोड़ों उनके अनुयायी प्रयासरत है। उनकी जयंती समेत प्रमुख पर्वो पर बड़े पैमाने पर लंगर का आयोजन करने के साथ ही आस्थावानों को संदेश दिया जाता है। जहां तक उनके जन्मस्थली का सवाल है, वह धर्म एवं आस्था की नगरी काशी के सीर गोवर्धन में एक गरीब परिवार में हुआ। जब तक वह बड़े होकर शिक्षा-दिक्षा अर्जित करते, समाज में व्याप्त कुरीतियां, जाति-पाति, धर्म, वर्ण, छूत-अछूत, पाखण्ड, अंधविश्वास का साम्राज्य उनके समक्ष बाधा बनकर खड़ा हो गया। लेकिन इन कुरीतियों से विचलित हुए बिना उन्होंने इसके समूल नाश का संकल्प लिया। अनेक मधुर व भक्तिमयी रसीली कालजयी रचनाओं का निर्माण किया और समाज के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया। सन्त रविदास ने अपनी वाणी एवं सदुपदेशों के जरिए समाज में एक नई चेतना का संचार किया। उन्होंने लोगों को पाखण्ड एवं अंधविश्वास छोड़कर सच्चाई के पथ पर आगे बढने के लिए प्रेरित किया।
देखा जाय तो रविदास जी के भक्ति गीतों एवं दोहों ने भारतीय समाज में समरसता एवं प्रेम भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया है। हिन्दू और मुसलिम में सौहार्द एवं सहिष्णुता उत्पन्न करने हेतु उन्होंने अथक प्रयास किया। इस तथ्य का प्रमाण उनके गीतों में देखा जा सकता है। वह कहते हैं- तीर्थ यात्राएं न भी करो तो भी ईश्वर को अपने हृदय में वह पा सकते हो। ‘का मथुरा, का द्वारिका, का काशी-हरिद्वार। रैदास खोजा दिल आपना, तह मिलिया दिलदार‘।। उनके जीवन की घटनाओं से उनके गुणों का ज्ञान होता है। एक घटना अनुसार गंगा-स्नान के लिए रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, मैं आपके साथ गंगा-स्नान के लिए जरूर चलता लेकिन आज शाम तक किसी को जूते बनाकर देने का वचन दिया है। अगर मैं तुम्हारे साथ गंगा-स्नान के लिए चलूंगा तो मेरा वचन झूठा होगा ही, साथ ही मेरा मन जूते बनाकर देने वाले वचन में लगा रहेगा। जब मेरा मन ही वहां नहीं होगा तो गंगा-स्नान करने का क्या मतलब। इसके बाद सन्त रविदास ने कहा कि यदि हमारा मन सच्चा है तो इस कठौती में भी गंगा होगी अर्थात् ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। कहते हैं शिष्य ने जब इस बात का मजाक उड़ाया तो सन्त रविदास ने अपने प्रभु का स्मरण किया। चमड़ा भिगोने वाले पानी के बर्तन को छुकर शिष्यों को उसमें झांकने को कहा। जब शिष्य ने उस कठौती में झांका तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं, क्योंकि उसे कठौती में साक्षात् गंगा प्रवाहित होती दिखाई दे रही थी। धीरे-धीरे सन्त रविदास की भक्ति की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई और उनके भक्ति के भजन व ज्ञान की महिमा सुनने लोग जुटने लगे। उन्हें अपना आदर्श एवं गुरु मानने लगे। इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि- ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’
रविदास राम और कृष्ण भक्त परम्परा के कवि और संत माने जाते हैं। उनके प्रसिद्ध दोहे आज भी समाज में प्रचलित हैं जिन पर कई भजन बने हैं। उनके पदों में प्रभु भक्ति भावना, ध्यान साधना तथा आत्म निवेदन की भावना प्रमुख रूप में देखी जा सकती है। रैदास जी ने भक्ति के मार्ग को अपनाया था। सत्संग द्वारा उन्होने अपने विचारों को जनता के मध्य पहुंचाया। अपने ज्ञान तथा उच्च विचारों से समाज को लाभान्वित किया। प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग अंग वास समानी।। प्रभुजी तुम धनबन हम मोरा। जैसे चितवत चन्द्र चकोरा।। प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती।। प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहि मिलत सुहागा।। प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा।। जैसे पद में रविदास जी ने अपनी कल्पनाशीलता, आध्यात्मिक शक्ति तथा अपने चिन्तन को सहज एवं सरल भाषा में व्यक्त किया। ‘आज दिवस लेऊं बलिहारा, मेरे घर आया प्रभु का प्यारा। आंगन बंगला भवन भयो पावन, प्रभुजन बैठे हरिजस गावन। करूं दंडवत चरण पखारूं, तन मन धन उन परि बारूं। कथा कहैं अरु अर्थ विचारैं, आप तरैं औरन को तारैं। कहिं रैदास मिलैं निज दास, जनम जनम कै कांटे पांस‘। ऐसे पावन और मानवता के उद्धारक सतगुरु रविदास का संदेश निःसंदेह दुनिया के लिए बहुत कल्याणकारी तथा उपयोगी है। ‘जातपात में पात है, ज्यों केलन के पात, रविदास मनुख न जुट सके, जब लग जात न पात।’ यह जाति व्यवस्था मनुष्य को खा रही है, इसके अन्त से ही मानवता का कल्याण होगा। ‘जात पांत के फेर में, उलझी रहयो सब लोग। मानुषता को खात हुई, रविदास जाति कर लोग।।’
रविदास ने अहम का त्याग किया और सर्वस्व समर्पण कर वश परमात्मा की शरण में अपने आप की समर्पित किया। रविदास ने मानव जीवन को दुर्लभ बताया है, उन्हें कहा, मानव जीवन एख हीरे की तरह है, परन्तु उसकी भौतिक सुख अर्जित करने में यदि किया जाय, तो यह जीवन को नष्ट करना होगा। ‘रैनी गंवाई सोय करि, दिवस गंवायो खाय। हीरा जनम अमोल है, कोड़ी बदले जाये।’ रविदास जी ने बताया कि परमात्मा हम सबके अन्दर है, बाहरी वेश भूषा बनाना व्यर्थ है, और भ्रामक भी, सच्चे भक्त बाह्य क्रियाओं से कोई संबंध नहीं रखते, बल्कि अपने ध्यान को बाहर से समेट कर अन्दर ले जाते हैं। मानव जब पूर्ण रूप से भगवान की शरण में जाता है तो मंदिर मस्जिद और राम रहिम में कोई फर्क नहीं दिखता, जब लोग धर्मवाद की लड़ाई लड़ रहे थे, रविदास ने अपने कविता समस्त मानव को जगाने का काम किया। उन्होंने कहा-‘रविदास न पुजइ देहरा, अरू न मस्जिद जाय, जहे तह ईश का वाश है, तहं तहं शीश नवाय।’ रविदास जी ने कहा कि ईश्वर की आराधना करने के लिए गेरूवा वस्त्र, चन्दन, हवन की जरूरत नहीं है। उनकी पूजा सरल, सर्वसाध्य एवं बेमिसाल थी। उनकी भक्ति ‘प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी’ आज भी बड़े प्रेम से लोग गाते हैं, उन्होंने अभिव्यक्त किया। ‘मन ही पूजा मन नहीं धूप, मन ही सेवो सहज स्वरूप। पूजा अर्चना न जानू तेरी, कह रैदास कवन गति मेरी।। रविदास जी कहते हैं कि हे स्वामी मैं तो अनाड़ी हूं। मेरा मन तो माया के हाथ बिक गया है, कहा जाता है कि तुम जगत के गुरू हो जगत के स्वामी हो, मैं तो कामी हूं। मेरा मन तो इन पांच विकारों ने बिगाड़ रखा है। जहां देखता हूं वहीं दुरूख ही दुःख है, आखिर क्या करूं प्रभु को छोड़कर किसकी शरण में जाऊं।
संत रविदास पूजा, उपासना और धर्म-साधना की दृष्टि में अलग महात्मा है, संत हैं, इसलिए इन्हें संतों में श्रेष्ठ संत शिरोमणि रविदास कहा गया। प्रेम, भक्ति और त्याग को वे एक तन्मय भूमिका में ले जाते थे तथा उनका हर क्षण आध्यात्मिक, पवित्रता में बदलता था। वे अवतार रूपों की पूजा तो नहीं करते थे लेकिन अवतार चरित्रों की सामाजिक चरितार्थ में अवश्य विश्वास करते थे, उनका कहना था-‘बाह्य आडम्बर हौं कबहुं न जान्यौ तुम चरनन चित मोरा, अगुन-सगुन कौ चहूं दिस दरसन तोरा।’ रविदास जी ने उस युग में हो रहे मानव- मानव के प्रति ऊंच-नीच की भावना को समाप्त करना चाहा, धर्म के नाम पर अत्याचार को मिटाना चाहा, तथा ऊंच नीच के भेद को समाप्त कर सबको विवेकपूर्ण समझ देकर मानवता की रक्षा की। यहां तक कि मीराबाई ने रविदास को अपना गुरू माना और उनकी शिष्य बनी। रविदास ने जब उन्हें मंत्र की दीक्ष तो मीरा नाचते कहने लगी-‘पायो रे मैंने राम रतन धन पायो, खोजत फिरत भेद वा घर का। कोई न करत बखानी, रैदास संत मिले मोही सतगुरू।। खास यह है कि संत रविदास जी ने न तो किसी भी विद्यालय में शिक्षा ग्रहण की और न ही किसी गुरु से शिक्षा ली। संत रविदास ने स्वाध्याय और सत्संगति से पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया। उनकी वाणी के द्वारा ज्ञात हुआ कि उनके लिए ईश्वर ही उनका गुरू था। जैसा कि उनकी वाणी में लिखा है ‘माधो सब जग चेला, अब विछरै मिलैइ न दोहला।’ उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि गुरुजी जहां एक उच्च कोटि के भक्त थे। वहीं समय और परिस्थिति के कारण एक समाज सुधारक भी थे। उनका मन चित गंगा की तरह पवित्र तथा शुदू था। मन, वाणी और कर्म से निर्मल इस संत ने जिस जल को छुआ यह यथार्थ में गंगा जल के समान पवित्र हो गया। उनके घर की कटौती एवं सागर में भी गंगा जल हो गया तो उन्हें अपने निर्वाण के लिए गंगा स्नान एवं अन्य तीर्थ स्थानों में जाने की क्या आवश्यकता है?
जिसका मन चित गंगा की तरह पवित्र है और उसके पास संतोष रूपी धन हो तो उसे किसी भी तीर्थ स्थान में जाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि उसके पास अमूल्य आध्यात्मिक दौलत है। ऐसे संत का दीर्घ जीवन मानव की सेवा में रहा। बाद में इनके विचारों को ही दयानन्द सरस्वती, राजा राम मोहन राम, महात्मा गांधी, स्व. भीमराव अम्बेडकर आदि ने ग्रहण कर समाज को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। और जब तक जन्मना-ऊंच-नीच की भावना इस देश में मौजूद रहेगी संत रविदास की वाणी बार-बार गुंजती रहेगी। संत शिरोमणि गुरु रविदास के पद चिन्हों पर चलने से ही रविदास समाज का विकास संभव है। समाज में व्याप्त कुरीतियों अंधविश्वास को दूर करने के लिए हमें आगे आना होगा। उन्होंने कहा है समाज के शिक्षित हुए बिना हक अधिकार नहीं मिल सकता है। सन्त रविदास ने मनुष्य की मूर्खता पर व्यंग्य कसते हुए कहा कि वह नश्वर और तुच्छ हीरे को पाने की आशा करता है लेकिन जो हरि हरि का सच्चा सौदा है, उसे प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करता है। हरि सा हीरा छांड कै, करै आन की आस। ते नर जमपुर जाहिंगे, सत आषै रविदास।। उन्होंने सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय एकता के लिए भी समाज में जागृति पैदा की। उन्होंने कहा, रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं। तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।। हिन्दु तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा। दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।। सन्त रविदास ने इसी सन्दर्भ में ही कहा है- मुसलमान सो दोस्ती हिन्दुअन सो कर प्रीत। रैदास जोति सभी राम की सभी हैं अपने मीत।। रैदास एक बूंद सो सब ही भयो वित्थार। मूरखि है जो करति है, वरन अवरन विचार।।
सन्त रविदास अपने उपदेशों में कहा कि मनुष्य को साधुओं का सम्मान करना चाहिए, उनका कभी भी निन्दा अथवा अपमान नहीं करना चाहिए। वरना उसे नरक भोगना पड़ेगा। वे कहते हैं- साध का निंदकु कैसे तरै। सर पर जानहु नरक ही परै।। सन्त रविदास ने जाति-पाति और वर्ण व्यवस्था को व्यर्थ करार दिया और कहा कि व्यक्ति जन्म के कारण ऊंच या नीच नहीं होता। सन्त ने कहा कि व्यक्ति के कर्म ही उसे ऊंच या नीच होता है। रैदास जन्म के कारणों, होत न कोई नीच। नर को नीच करि डारि है, ओहे कर्म की कीच।। इस प्रकार रविदास ने समाज को हर बुराई, कुरीति, पाखण्ड एवं अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने के लिए ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया और असंख्य मधुर भक्तिमयी कालजयी रचनाएं रचीं। उनकीं भक्ति, तप, साधना व सच्चे ज्ञान ने समाज को एक नई दिशा दी और उनके आदर्शों एवं शिक्षाओं का मानने वालों का बहुत बड़ा वर्ग खड़ा हो गया, जोकि ‘रविदासी’ कहलाते हैं।। सन्त रविदास द्वारा रचित ‘रविदास के पद’, ‘नारद भक्ति सूत्र’, ‘रविदास की बानी’ आदि संग्रह भक्तिकाल की अनमोल कृतियों में गिनी जाती हैं। स्वामी रामानंद के ग्रन्थ के आधार पर संत रविदास का जीवनकाल संवत् 1471 से 1597 है। उन्होंने यह 126 वर्ष का दीर्घकालीन जीवन अपनी अटूट योग और साधना के बल पर जीया।
बता दें, सन्त रविदास का जन्म सन् 1398 में माघ पूर्णिमा के दिन काशी के निकट सीर गोवर्धन में हुआ था। उनके पिता का नाम संतोखदास (रग्घु) और माता का नाम कर्मा (घुरविनिया) था। सन्त कबीर उनके गुरु भाई थे, जिनके गुरु का नाम रामानंद था। सन्त रविदास बचपन से ही दयालु एवं परोपकारी प्रवृति के थे। उनका पैतृक व्यवसाय चमड़े के जूते बनाना था। लेकिन उन्होंने कभी भी अपने पैतृक व्यवसाय अथवा जाति को तुच्छ अथवा दूसरों से छोटा नहीं समझा। सन्त रविदास अपने काम के प्रति हमेशा समर्पित रहते थे। वे बाहरी आडम्बरों में विश्वास नहीं करते थे। उनके अलौकिक ज्ञान ने लोगों को खूब प्रभावित किया, जिससे समाज में एक नई जागृति पैदा होने लगी। सन्त रविदास कहते थे कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सभी नाम परमेश्वर के ही हैं और वेद, कुरान, पुरान आदि सभी एक ही परमेश्वर का गुणगान करते हैं। संत रविदास जी के भारत ही नहीं पूरी दुनिया में करोड़ों-करोड़ अनुयायी है। वह विश्व के उन महान संतों में एक थे, जिन्हें संत शिरोमणि गुरु रविदास से नवाजा गया। संत रविदास की वाणी के अनुवाद संसार की विभिन्न भाषाओं में पाए जाते हैं, जिसका मूल कारण यह है कि संत रविदास उस समाज से सम्बद्ध थे, जो उस समय बौद्धिकता और ज्ञान के नाम से पूर्णतः अछूता था।
समय जहां विविध प्रकार की समस्याओं को लेकर आता है वहीं समाधान भी अपने आगोश में छिपाए रहता है। परंतु महान व्यक्तित्व समय की परिधि को लांघकर अपने बाद के हजारों वर्षों बाद तक प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं। वे ऐसे कार्य की शुरुआत करते हैं जिनका मूल्य समय के क्रूर प्रहारों से कम नहीं हो सकता। ऐसे संत रविदासजी की जयंती, जो पूरे विश्व में मनाई जाती है। इस बार 22 फरवरी उनकी 639वीं जयंती है। भारत की मध्ययुगीन संत परम्परा में संत रविदास का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। 14वीं से 17वीं सदी के भारतीय इतिहास के पन्ने अपने आप में अपूर्व और महान है, इसके पहले किसी ने भी ब्रह्मज्ञान को इतना स्पष्ट रूप से प्रस्तुत नहीं किया, जितना कि इस सदी में अवतरित संतों ने किया। मानव की उपलब्धि उसकी उत्कृष्टता का बीज उसमें संपादित होने वाले कर्मों में छिपा है, उनमें संत कबीर आगे थे। गुरुनानक देव ने परमात्मा का संदेश सुनाया और गुरु रविदास ने उसी परमात्मा की जानकारी समस्त मानव को दी। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को समाप्त करने व जाति, वर्ग एवं धर्म के मध्य की दूरियों को मिटाने का सराहनीय प्रयास किया। इन महान संतों व भक्त व्यक्तियों की श्रेणी में रविदास का प्रमुख स्थान रहा है। उस समय भारत में कट्टर सिकन्दर लोदी का शासन था तथा देश वर्णवाद, धर्मवाद और जातिवाद में त्रस्त था। रविदास ने भारतीय समाज की जाति व्यवस्था पर घोर क्षोभ और दुःख प्रकट किया।
(सुरेश गांधी)


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