लातूर में पानी लेकर पहुंची ट्रेन की तस्वीरें सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुईं। दरअसल इन तस्वीरों से करीबन आप ये तो समझ ही गए होंगे कि पानी की समस्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। ''जल ही जीवन है'' सरीखे तमाम पंक्तियों को पढ़कर भी लोग संभलने का नाम नहीं ले रहे। महज मजाक के इतर शायद ही कुछ और रह गई हैं ये पंक्तियां। आज भी चोरी छिपे पेड़ों का काटा जा रहा है। लेकिन वृक्षों के लिए भी उपदेशों की कमी नहीं। आप भी अक्सर रास्तों पर चलते हुए पढ़ते होंगे कि वृक्ष धरा का भूषण हैं। है न। पर हकीकत डराने वाली है। बिना पानी, बिना पेड़ पौधे आखिर कैसा होगा जीवन।
पानी का संकट महज लातूर का ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, गुजरात, ओड़ीशा, झारखंड, बिहार, हरियाणा और छत्तीसगढ़ समेत एक दर्जन से अधिक राज्यों के लिए है। बहरहाल इस समस्या का व्यापक तौर पर अंदाजा लगाने के लिए आप भारत सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश की गई रिपोर्ट पर भी गौर कर सकते हैं। इस समय भारत में 33 करोड़ लोग सूखे की समस्या का सामना कर रहे हैं यानी देश की कुल आबादी का एक-तिहाई हिस्सा सूखे का संकट झेल रहा है। लेकिन इस समस्या से निबटने के लिए केंद्र हो या फिर राज्य की सरकारों द्वारा विशेष प्रयास नहीं किए गए। हां वादे जरूर है। लैपटॉप के, स्कूटी के, टीवी के, अच्छे दिनों के। पर, पानी की विकराल समस्या के आगे ये तमाम लुभावनी बातें बेहद बौनी नजर आती हैं। आखिर अस्तित्व ही नहीं होगा तो इन चीजों का हम क्या करेंगे। निश्चित तौर पर ये सवाल आपके भी जेहन में आया होगा।
केंद्र में मौजूद एनडीए सरकार ने किसानों की खातिर हिमायत बरतते हुए कई योजनाओं का शुभारंभ किया। स्वायल हेल्थ हो या फिर जन धन, फसल बीमा हो या जीवन ज्योति। पर इन सारी योजनाओं पर सवाल मुंह बाए खड़े हैं। सवाल ये कि फसल बीमा योजना आखिर कब तक देते रहेंगे, जब पानी ही न रहा तो। कुलमिलाकर आधारभूत बातों का ख्याल रखने की बजाए काफी ऊंची किस्म की बातों पर विचार विमर्श किया जा रहा है। जबकि जरूरत है कि पहले जल संचयन तरीकों को बढ़ाने हेतु उपाय सुझाए जाए। जिससे कि भविष्य सुरक्षित हो। साथ ही खेती किसानी के अवसरों में भी इजाफा हो। अपने पारंपरिक व्यवसाय यानि की खेती को छोड़कर लोग पलायन को मजबूर न हों। कर्ज में डूबकर आत्महत्या न करें। आदि आदि। यदि आंकड़ों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि इक्यानवे जलभंडारों में उनकी कुल क्षमता का केवल 23 प्रतिशत पानी ही जमा है और यह मात्रा भी घटने वाली है क्योंकि अगले माह गर्मी और भी अधिक पड़ेगी। पिछले पंद्रह सालों से यह समस्या लगातार बढ़ती जा रही है लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों ने इससे निपटने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है।
यूपी का बुंदेलखंड हो या फिर महाराष्ट्र का मराठवाड़ा किसानों की आत्महत्याएं अब अखबारों के फ्रंट पेज से उतरकर पीछे के पन्नों में सरकने लगी हैं। दरअसल अब ये रोजमर्रा की बातें हो गई हैं। उदासीन रवैये की वजह से आज इन्हें गंभीरता से लेने की बजाए रानीतिक मुद्दे के तौर पर प्रयोग किया जाता है। देश के आजाद होने के बाद 1951 में प्रति व्यक्ति 5177 घन मीटर पानी उपलब्ध था लेकिन 2011 में यह घटकर 1545 घन मीटर ही रह गया क्योंकि तब से अब तक शहरों और महानगरों का जिस अनियोजित और अव्यवस्थित ढंग से विकास हुआ है उसमें पानी की जरूरत और उसकी उपलब्धता के अनुपात पर ध्यान नहीं दिया गया। पानी की अव्यवस्था का आमतौर पर आंकलन करने की बजाए बोरिंग आदि साधनों को आम मान लिया गया है। जबकि इस बात को नजरंदाज कर दिया जाता है कि पानी कितने फीट गहराई पर मिला।
कल तक गांव में पानी का मुख्य श्रोत माने जाने वाले कुुआं, तालाब, नहर, बावली आदि को जनसंख्यावृद्धि के चलते रिहाईश जमीनों की उपलब्धता न होने के कारण पाट दिया गया है, या कहें खत्म कर दिया गया है। और नए संसाधनों के तौर पर पंपिंग सेट, सरकारी नलों का प्रयोग किया जा रहा है। लेकिन जलस्तर घट जाने की वजह से कई दफे सरकारी नल महज शोपीस बनकर रह जाते हैं। मजबूरन ग्रामीणों को दूर दराज से पानी लाना पड़ता है। इन सबके इतर खेती में आज भी पानी का पारंपरिक ढंग से इस्तेमाल किया जा रहा है और इसमें नई तकनीकी और तौरतरीकों को नहीं अपनाया गया है। नतीजतन बहुत बड़ी मात्रा में पानी बर्बाद होता है।
गौरतलब है कि सरकारों की प्राथमिकता की फेहरिस्त में हमेशा उद्योग रहते हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि जहां जनता को पीने का पानी नहीं मिल रहा वहीं बियर, सॉफ्टड्रिंक बनाने वाले कारखानों को पानी सस्ते और रियायती दामों पर दिया जा रहा है। बोतलबंद पेयजल का कारोबार भी बहुत फैल चुका है और अरबों-खरबों के इस कारोबार की भी फिक्र सरकारों को विशेष तौर पर है। इसी तरह से यदि पानी का दोहन किया जाता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब न इस धरा पर जल होगा न इंसान का अस्तित्व होगा। साथ ही जो अभी तमाम हवाले दिये जाते हैं कि फलां फलां महीने खत्म हो जाएगी दुनिया। उस वक्त को लोग अपने जी रहे होंगे। सृष्टि के साथ खुद के खत्म होने की गवाही भी न दे पाएंगे।
आने वाले वक्त की ओर यदि निगहबानी की जाए तो यह संकट खत्म होने के स्थान पर और भयावह रूप लेता हुआ दिखाई देता है। इस भयावहता से जूझता दिखता है इंसान...जरूरत है कि आने वाले बुरे वक्त की तमाम संभावनाओं को देखकर हम संभल जाएं। पानी बचाने लगें। ताकि भविष्य सुरक्षित रह सके।
--हिमांशु तिवारी "आत्मीय"--

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