प्रद्योत कुमार,बेगूसराय।
सोच रही है जनता प्यारी,
द्रोपदी बनी है देश बेचारी,
लाऊँ कहाँ से कृष्ण मुरारी,
ये उठ रहा सवाल है....?
मैंने बचपन में सुना था कि मंदिरों में पाषाण की मूर्तियों में जान नहीं है,यकीन हुआ था क्योंकि अनुभव की कमी थी जब मुझे अनुभव हुआ तो सच पूछिए मैं चौंक गया ,मेरा अनुभव आस्था में बदल गया अरे इन पाषाण की मूर्तियों में तो जान है ये बोल नहीं सकता सच है,ये देख नहीं सकता सच है,ये हंस नहीं सकता सच है और ये कोई क्रियाएं नहीं कर सकता सच है लेकिन ये हमें आशा,उम्मीद और जीवन में आने वाली कठिनाइयों से लड़ने की शक्ति देती है ये भी उतना ही सच है।इसी आधार पर हम जीवन जीना चाहते हैं लेकिन जिस इंसान में जान है ,भावनाएं हैं,क्रियाएं हैं।उसकी नियत,उसकी चाहत,उसकी इच्छा पत्थर का हो चुकी है,वो इंसान तो है लेकिन वह पाषाण हो चुका है,कर्मों से।उसे आवाज़ दो बहरी है,गूंगी है,भाव शून्य है,वहां विशवास टूटता है,जिज्ञासाएं मरती है,आशा और जीवन जीने की शक्ति ख़त्म हो जाती हैं,इच्छाओं का हनन होता है और आपको हर पल जीते जी मरना पड़ता है।ये है इंसानी फितरत।
मैंने गलत सोचा था,इस इंसान से बेहतर है मंदिरों का बेजान पाषाण।अब ये इंसान मंदिरों के पाषाण को भी राजनीति के दलदल में फंसा कर उस पर गन्दी निगाहें डालते हैं,पाषाण को भी राजनीतिक भगवान बना दिया है,सड़क से लेकर संसद तक उस निर्जीव पाषाण को बदनाम किया,उनका सौदा किया है।राजनीति के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में उनको बेचा है।साहेब आप तो इंसान हैं,क्या उम्मीद करते हैं आपको कहाँ-कहाँ बेचा जाएगा?आपको रोज़ बेचा जाता है,आप चिल्लाते हैं,आपकी चीखें आती हैं,गलियों से,घरों से,अस्पतालों से,दुकानों से,फुटपाथों से,झोपड़ियों से,मुहल्लों से,मंदिरों से,मस्जिदों से,गुरुद्वारों से,गिरजाघरों से,विद्यालयों से,महाविद्यालयों से,दफ्तरों से,होटलों से,कब्रिस्तानों से,बालाओं के बालों से,गोश्त के बाज़ारों से,गाँव के आंगनों से,माँ की आंचल से,माँ की गोद से,बहन की मांगों से और ये चीखें जाती हैं सड़क से संसद तक लेकिन वहां बैठे हैं इंसान में पाषाण।वो भी एक मंदिर है और ये भी के मंदिर है फर्क आपको करना है कौन बेहतर ? पाषाण या इंसान में पाषाण......?यानि कि पाषाण युग की शुरुआत होने की नींव रखी जायेगी क्यूंकि पुरानी व्यवस्था में ही नई व्यवस्था गर्भ धारण करती है।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें