आलेख : भगवान महावीर के युग में गोपालन - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

आलेख : भगवान महावीर के युग में गोपालन

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अहिंसा के अनेक पक्ष और आयाम हैं। अहिंसा का एक लोकप्रिय और लोकोपकारी आयाम है - गोसेवा अथवा गोपालन। भारतीय संस्कृति कृषिप्रधान और ऋषिप्रधान रही है। कृषि (अर्थ) और ऋषि (अध्यात्म), दोनों ही दृष्टियों से गाय (गोवंष) का महŸव सदियों से रहा है। भारत में गाय तथा अन्य मवेषियों का मानव के साथ गहरा सम्बन्ध रहा है। पारस्परिक सम्बन्ध की इस बुनियाद पर प्राचीन भारत में ग्रामीण और नगरीय अर्थव्यवस्था तथा खेती-बाड़ी बहुत फली-फूली। इसीलिए यह कहा जाता है कि कभी यहाँ घी-दूध की नदियाँ बहा करती थीं। घी-दूध की नदियाँ बहने का यही आषय है कि भारत में प्रचुर मात्रा में शुद्ध दूध, देषी घी तथा अन्य पौष्टिक दुग्ध-उत्पाद उपलब्ध थे। यह सब इसलिए था कि यहाँ गोपालन अपनी विकसित और समृद्ध अवस्था में था। आज से लगभग 2600 वर्ष पहले भगवान महावीर के युग की बात करें तो हम पाते हैं कि उस समय गोपालन अपनी समृद्ध अवस्था में था। प्राकृत भाषा के जैन आगम (षास्त्र) ‘उपासकदषांग सूत्र’ में गोपालन का अद्भुत विवरण मिलता है। इस षास्त्र में भगवान महावीर के दस उपासकों (भक्तों) के जीवन का बहुपक्षीय चित्रण किया गया है। उनके जीवन का एक पक्ष यह था कि उन सभी के पास विपुल गोधन था। मवेषियों के बाड़ेनुमा आवास-स्थल को व्रज, गोकुल अथवा संगिल्ल कहा जाता था। एक व्रज में दस हजार की संख्या में गोधन रखा जाता था।


हम देखते हैं कि एक-एक व्यक्ति के पास भी चालीस, साठ और अस्सी-अस्सी हजार की संख्या में गोसम्पदा होती थी तो गोपालन और पषुपालन कितना व्यापक और प्रचलित व्यवसाय रहा होगा। गोपालक की समाज में अच्छी प्रतिष्ठा थी। इसी कारण उपासकदषांग के सातवें अध्ययन में गोषालक भगवान महावीर की प्रषंसा में उन्हें अध्यात्म जगत के ‘महागोप’ की संज्ञा देता है। पषुपालन और कृषि के साथ ही श्रावकों के अन्य व्यवसाय भी थे। उनका जीवन साधना और सेवा से सुरभित था। आचार्य आत्मारामजी ने ‘गाय‘ अथवा ‘गो’ शब्द को समस्त पषुधन का बोधक कहा है। गाय को पषुओं का प्रतिनिधि पषु माना जाता है। इस अर्थ में गाय की रक्षा का आषय सभी पषु-पक्षियों की रक्षा से भी जुड़ा है। 

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यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित है कि पषुपालन का उद्देष्य दूध-प्राप्ति, भारवहन, परिवहन, हल चलाना, जीवदया आदि था। पषुपालन के साथ ही दूध, घी और अन्य दुग्ध-उत्पादों के व्यापार के उल्लेख जैन ग्रन्थों तथा अन्य ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। पषुपालन के साथ खेती-बाड़ी जुड़ी थी और खेती-बाड़ी से शाकाहारी जीवन षैली जुड़ी थी। मानव और पषु-पक्षियों के बीच पूर्ण सहअस्तित्व था। पषुओं में स्वामी-भक्ति, मार्ग-स्मरण, किसी खतरे या आपदा का पूर्वाभास जैसे अद्भुत गुण होते थे। पषु-पक्षियों में ऐसे गुण आज भी होते हैं। 

कृषि और पषुपालन दोनों अन्योन्याश्रित हैं। महावीर के समकालीन बुद्ध दीघनिकाय में एक राजा को कहते हैं - ‘‘राजन! जो कोई आपके जनपद में कृषि, गोपालन करने का उत्साह रखते हैं, उन्हें आप पूंजी दें।’’ बुद्ध के इस कथन में भी उस समय खेती-बाड़ी, गोपालन और दोनों के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध का पता चलता है। पषु कृषि में सहयोग करते हैं और कृषि से पषुओं की आवष्यकताएँ आसानी से जुटाई जा सकती हैं। ये दोनों कार्य प्राचीनकाल से भारतीय अर्थव्यवस्था ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण जनजीवन का आधार बने हुए हैं। दूध, कृषि और यातायात के अलावा पषुपालन से पर्यावरण व पारिस्थितिकी सन्तुलन, जमीन की उर्वरा-शक्ति और जैव-विविधता का संरक्षण भी सहज रूप से होता है।

प्राकृत भाषा के चैथी सदी के जैन ग्रंथ ‘वसुदेवहिण्डी’ में राजा जितषत्रु का पषुप्रेम अंकित है। उनके दो गोमण्डल (गोकुल) थे। उनके नियुक्त गोपालकों में प्रमुख थे - चारूनन्दी और फग्गुनन्दी। एक बार राजा जितषत्रु चारूनन्दी द्वारा रक्षित गोमण्डल में गया। अपने स्वस्थ-सुन्दर पषुओं को देखकर राजा प्रसन्न हो गया। इस प्रकार राजाओं की उनकी अपनी निजी गोषालाएँ भी होती थीं। अनाथ-सनाथ, स्वस्थ-रूग्ण सभी पषुओं के लिए उनमें चारा-पानी की व्यवस्था रहती थी। पषुओं को चरने के लिए बडे़-बड़े चरागाह होते थे। गोपालक अपने पषुओं को बहुत जिम्मेदारी से चराने ले जाते, लाते और देखभाल करते थे। इस प्रकार भारत में सदियों-सदियों तक गोपालन, गोसंवर्धन और प्राणी-संरक्षण की श्रेष्ठ व्यवस्थाएँ रहीं। इन सुन्दर व्यवस्थाओं की बहाली हमारा राष्ट्रधर्म और पुनीत कर्म है। मेरे एक मुक्तक के साथ इस लेख को विराम देता हूँ - 


रस को बचाया, ऋषि को बचाया।
गाय ने कृषक व कृषि को बचाया।
जिन्होंने उपकारी गोवंष बचाया,  
उन्होंने आदमी की खुषी को बचाया। 




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 - डाॅ. दिलीप धींग (एडवोकेट)
(निदेषक: अंतरराष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन व शोध केन्द्र)

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