प्रद्योत कुमार,बेगूसराय।आज़ादी के 69 साल के बाद भी भारत वर्ष में ग़ुलामी की तस्वीर और नज़ारा देखने को मिल रहा है,बाल मज़दूरी की वजह से बच्चों का बचपन छीन कर उन्हें मानसिक और शारीरिक रुप से सरकार की शिथिल और पंगु कानून व्यवस्था ने ग़ुलामी की ज़ंजीर में जकड़ दिया है,उनके पेट की आग उन्हें रोटी और साग लाने पर मजबूर करती है,जहाँ उनके हाथ में कलम होनी चाहिये वहां उनके हाथ में खुरपी और दरांती होती है ,जहाँ उनकी आँखों में सपने होनी चाहिए वहां आंसू होते हैं लेकिन हैरत की बात तो ये है कि सरकार रोज़ नये कानून बनाती है इन बच्चों की मुक्ति के लिए ,क्या ऐसी नपुंसक व्यवस्था से इसका उन्मूलन शायद कहना ग़लत होगा कुछ कम हो पायेगा जवाब होगा नहीं फिर आज़ादी का क्या मतलब है?दूसरी ग़ुलामी है आर्थिक ग़ुलामी सरकार ने अंग्रेजो की नीति अपनाई है फ़ूट डालो शासन करो कैसे एक ही काम के दो दाम लगाती है सरकार,एक ही विद्यालय में समान पद पर दो शिक्षक हैं एक को 54,000 दूसरे को 17,000 ये भी ग़ुलामी ही है जनाब।
चलिए अगली ग़ुलामी पर एक नज़र अब कस्बाई शहर को लीजिये किसी भी कुकुरमुत्ते की तरह फैले कॉन्वेंट में चले जाईये वहां मात्र 1500 से लेकर 5000 अधिकतम वेतन पर मज़दूरी करते आपको शिक्षक मिल जाएंगे,मेरे खयाल से ये एक स्किल्ड लेबर की मज़दूरी से बहुत कम है अब किसी भी चिकित्सक,नर्सिंगहोम, सिनेमा हॉल,छोटी,बड़ी दूकान या एजेंसी में चले जाइये 2500 से 4000 रु प्रतिमाह पर कार्य करते आज़ाद भारत के ग़ुलाम मिल जाएंगे।उक्त दर निम्नतम मज़दूरी से भी बहुत कम है,लेकिन सरकार ने इस पर सख़्त कानून बना पारित कर इसके देख रेख के लिए श्रम विभाग खोल रखा है लेकिन श्रम विभाग बेशर्म हो सरकारी कानून की हत्या रोज़ करती है और सरकार की तमाम सुपरवाईज़री विभाग दांत नीपोरे खड़ी है और अंग्रेज़ हुक़ूमत की तरह आज़ाद भारत में ग़ुलामी की तस्वीर देख रही है।ये तो पहला झांकी है अभी लाल क़िला का प्राचीर तो बाक़ी है।इन गुलामों को सलाम करने आएंगे हमारे माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी 15 अगस्त 2016 को,उनकी भाषण में गुलामों को और ग़ुलामी करने को प्रोत्साहित करने की बात कही जायेगी।इस महापर्व को मनाने के लिए सरकार की हर एक व्यवस्था लगी है।पूरे देश में ख़र्च का अनुमान लगाना कठिन है जश्ने आज़ादी में।क्या 69 वर्षों के बाद भी आज़ादी के यही मायने हैं?हमें अपने तिरंगा पर फक्र है,आज़ादी पर फक्र है लेकिन अंग्रेजी हुक़ूमत की तरह ग़ुलाम बनाने वाली सरकारी व्यवस्था पर शर्म है।

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