नागों की पूजा से मिलता है आध्यात्मिक शक्ति व धन - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 11 अगस्त 2016

नागों की पूजा से मिलता है आध्यात्मिक शक्ति व धन

जी हां, नागपंचमी पर नागों की पूजा कर आध्यात्मिक शक्ति और धन मिलता है। सनातन धर्म में नागपंचमी को नाग की पूजा का विशेष महत्व है, और यही कारण है कि इस दिन नाग मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना होती हैं। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को नागपंचमी का पर्व मनाया जाता है 


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नाग देवता की पूजा से कालसर्प दोष से मुक्ति मिलता है। इस दिन महिलाएं नाग देवता की आराधना के साथ परिवार की सुख-समृद्धि और दीर्घायु की कामना करती हैं। इस व्रत के प्रताप से कालभय, विषजन्य मृत्यु और सर्पभय नहीं रहता। नागपंचमी के व्रत का सीधा संबंध उस नागपूजा से भी है जो शेषनाग भगवान शंकर और भगवान विष्णु की सेवा में भी तत्पर हैं। इनकी पूजा से शिव और विष्णु पूजा के तुल्य फल मिलता है। नाग पंचमी के दिन भगवान शिव के विधिवत पूजन से हर प्रकार का लाभ प्राप्त होता है। नागपंचमी के दिन नागदेवता का दूध से अभिषेक कर पूजा करने से परिवार पर उनकी कृपा बनी रहती है। मान्यता है कि जो भी श्रद्धालु नागदेवता की पूजा करते हैं नागदेव उनके परिवार के सदस्य की भी रक्षा करते हैं। परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु नाग के डंसने से नहीं होती है। नागपंचमी के इतिहास के विषय में पुराण में वर्णन है कि इस शुभ तिथि के दिन सृष्टि के अनुष्ठाता ब्रह्मा ने शेषनाग को पृथ्वी का भार धारण करने का आदेश दिया था। 


कहते है इस दिन नागों की पूजा करने का विधान है। हिंदू धर्म में नागों को भी देवता माना गया है। महाभारत आदि ग्रंथों में नागों की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है। महाभारत के अनुसार महर्षि कश्यप की तेरह पत्नियां थीं। इनमें से कद्रू भी एक थी। कद्रू ने अपने पति महर्षि कश्यप की बहुत सेवा की, जिससे प्रसन्न होकर महर्षि ने कद्रू को वरदान मांगने के लिए कहा। कद्रू ने कहा कि एक हजार तेजस्वी नाग मेरे पुत्र हों। महर्षि कश्यप ने वरदान दे दिया, जिसके फलस्वरूप सर्पों की उत्पत्ति हुई। इनमें शेषनाग, वासुकि, तक्षक आदि प्रमुख थे। कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी शेषनाग थे। इनका एक नाम अनन्त भी है। शेषनाग ने जब देखा कि उनकी माता व भाइयों ने मिलकर विनता (ऋषि कश्यप की एक और पत्नी) के साथ छल किया है तो उन्होंने अपनी मां और भाइयों का साथ छोड़कर गंधमादन पर्वत पर तपस्या करनी आरंभ की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उन्हें वरदान दिया कि तुम्हारी बुद्धि कभी धर्म से विचलित नहीं होगी। ब्रह्मा ने शेषनाग को यह भी कहा कि यह पृथ्वी निरंतर हिलती-डुलती रहती है, अतः तुम इसे अपने फन पर इस प्रकार धारण करो कि यह स्थिर हो जाए। इस प्रकार शेषनाग ने संपूर्ण पृथ्वी को अपने फन पर धारण कर लिया। क्षीरसागर में भगवान विष्णु शेषनाग के आसन पर ही विराजित होते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण व श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम शेषनाग के ही अवतार थे। 

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रामायण में सुरसा को नागों की माता और समुद्र को उनका अधिष्ठान बताया गया है। महेंद्र और मैनाक पर्वतों की गुफाओं में भी नाग निवास करते थे। हनुमानजी द्वारा समुद्र लांघने की घटना को नागों ने प्रत्यक्ष देखा था। नागों की स्त्रियां अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध थी। रावण ने कई नाग कन्याओं का अपहरण किया था। प्राचीन काल में विषकन्याओं का चलन भी कुछ ज्यादा ही था। इनसे शारीरिक संपर्क करने पर व्यक्ति की मौत हो जाती थी। ऐसी विषकन्याओं को राजा अपने राजमहल में शत्रुओं पर विजय पाने तथा षड्यंत्र का पता लगाने हेतु भी रखा करते थे। रावण ने नागों की राजधानी भोगवती नगरी पर आक्रमण करके वासुकि, तक्षक, शंक और जटी नामक प्रमुख नागों को परास्त किया था। कालान्तर में नाग जाति चेर जाति में विलीन गई, जो ईस्वी सन के प्रारम्भ में अधिक संपन्न हुई थी। नागपंचमी मनाने के संबंध में एक मत यह भी है कि अभिमन्यु के बेटे राजा परीक्षित ने तपस्या में लीन ऋषि के गले में मृत सर्प डाल दिया था। इस पर ऋषि के शिष्य श्रृंगी ऋषि ने क्रोधित होकर शाप दिया कि यही सर्प सात दिनों के पश्चात तुम्हे जीवित होकर डस लेगा, ठीक सात दिनों के पश्चात उसी तक्षक सर्प ने जीवित होकर राजा को डसा। तब क्रोधित होकर राजा परीक्षित के बेटे जन्मजय ने विशाल सर्प यज्ञ किया जिसमे सर्पो की आहुतियां दी। इस यज्ञ को रुकवाने हेतु महर्षि आस्तिक आगे आए। उनका आगे आने का  कारण यह था कि महर्षि आस्तिक के पिता आर्य और माता नागवंशी थी। इसी नाते से वे यज्ञ होते देख न देख सके। सर्प यज्ञ रुकवाने, लड़ाई को खत्म करने पुनः अच्छे सबंधों को बनाने हेतु आर्यो ने स्मृति स्वरूप अपने त्योहारों में सर्प पूजा को एक त्योहार के रूप में मनाने की शुरुआत की। 


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नागवंश से ताल्लुक रखने पर उसे नागपंचमी कहा जाने लगा होगा। मगध के प्रभुत्व के सुधार करने के लिए अजातशत्रु का उत्तराधिकारी उदय (461-ईपू ) राजधानी को राजगृह से पाटलीपुत्र ले गया, जो प्राचीन भारत प्रमुख बन गया। अवंति शक्ति को बाद में राजा शिशुनाग के राज्यकाल में ध्वस्त किया गया था। एक अन्य राज शिशुनाग वंश का था। शिशु नाग वंश का स्थान नंद वंश (345 ईपू)ने लिया। भाव शतक में इसे धाराधीश बताया गया है अर्थात नागों का वंश राज्य उस समय धरा नगरी (वर्तमान में धार) तक विस्तृत था। धाराधीश मुंज के अनुज और राजा भोज के पिता सिन्धुराज या सिंधुज ने विध्याटवी के नागवंशीय राजा शंखपाल की कन्या शशिप्रभा से विवाह किया था। इस कथानक पर परमारकालीन राज कवि परिमल पदमगुप्त ने नवसाहसांक चरित्र ग्रंथ की रचना की। मुंज का राज्यकाल 10 वीं शती ईपु का है। अतः इस काल तक नागों का विंध्य क्षेत्र में अस्तित्व था। नागवंश के अंतिम राजा गणपतिनाग थे। इसके बाद नाग वंश की जानकारी का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। नाग जनजाति का नर्मदा घाटी में निवास स्थान होना बताया गया है। लगभग 1200  ईपु हैहय ने नागों को वहां से उखाड़ फेंका था। कुषान साम्राज्य के पतन के बाद नागों का पुनरोदय हुआ और यह नव नाग कहलाए। इनका राज्य मथुरा, विदिशा, कांतिपुरी, (कुतवार ) व् पदमावती (पवैया ) तक विस्तृत था। नागों ने अपने शासन काल के दौरान जो सिक्के चलाए थे उसमे सर्प के चित्र अंकित थे। इससे भी यह तथ्य प्रमाणित होता है कि नागवंशीय राजा सर्प पूजक थे। शायद इसी पूजा की प्रथा को निरंतर रखने हेतु श्रावण शुक्ल की पंचमी को नागपंचमी का चलन रखा गया होगा। कुछ लोग नागदा नामक ग्रामों को नागदा से भी जोड़ते है। यहां नाग-नागिन की प्रतिमाएं और चबूतरे बने हुए हैं  इन्हे भिलट बाबा के नाम से भी पुकारा है। भारत में नागों को खेत की रक्षा करने वाला बताया गया है। यहां नागों को क्षेत्रपाल भी कहा जाता है। जीव जंतु जो फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं, सांप उन्हें खाकर खेतों को हरा-भरा रखने में मदद करते हैं। नागपंचमी के दिन लोग नाग देवता का सत्कार करते हैं और इनकी पूजा करते हैं।

पूजन की विधि 
इस दिन लोगों को नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ वस्त्र धारण करना चाहिए। पूजन के लिए सेंवईं-चावल का ताजा भोज बनाना चाहिए। इसके बाद घर में दीवाल पर गेरू पोतकर पूजन के लिए स्थान बनाना चाहिए। कच्चे दूध में कोयला घिसकर उससे गेरू पुती दीवाल पर घर जैसी आकृति बनानी चाहिए और इस आकृति के भीतर कई नागों की आकृतियां बनानी चाहिए। अब सबसे पहले निकटतम नाग की बांबी में एक कटोरा दूध चढ़ाना चाहिए। इसके बाद दीवाल पर बनाए गए नाग देवता की कच्चा दूध, दही, दूर्वा, कुशा, गंध, अक्षत, पुष्प, जल, रोली और चावल से पूजा करनी चाहिए। इसके बाद आरती करके नागपंचमी की कथा सुनने से भक्तों को नागपंचमी की पूजा का लाभ मिलता है। नागपंचमी की सुबह श्रद्धालु स्नान के बाद भगवान शिव व नामदेव की पूजा-अर्चना करेंगे। इसके लिए घर के भीतर और दरवाजे पर नागदेव का चित्र बनाएंगे, नए कपड़े की कतरन को चिपकाकर यानी नया वस्त्र अर्पित कर हल्दी-चंदन से उनका साज-श्रृंगार किया जाएगा। फिर पूजा कर उन्हें सिंदूर, हल्दी, चावल, गुलाल से उनका अभिषेक करेंगे और दूध, लाई व खीर का भोग लगाया जाएगा। ग्रामीण क्षेत्रों में भी किसान खेत-खलिहानों में नाग देवता के भोग के लिए कटोरे में दूध रखेंगे और लाई का भोग लगाएंगे। साथ ही लोग अपने कष्टों को दूर करने की कामना करेंगे। भगवान विष्णु शेषनाग की शैया पर शयन करते हैं इसलिए सनातन धर्म में सर्पों की पूजा का विधान है। इसी दिन कालसर्प दोष की मुक्ति के लिए मंदिरों में अनुष्ठान किया जाएगा। मेष, वृष, मिथुन, कर्क, कन्या, वृश्चिक और मीन राशि वाले इस दिन कालसर्प दोष की शांति कराते हैं, तो उन्हें इस पूजा का विशेष फल प्राप्त होगा। ‘जिनके परिवार में कलह हो, पति-पद्यी में नहीं बनती हो या जिस लड़की का विवाह होता हो वे नागपंचमी के दिन नागदेवता की पूजा करें। इसके साथ ही उनके पसंद का प्रसाद अर्पित करें। ‘सभीराशि वालों को नागपंचमी पर होने वाले कालसर्प दोष की शांति और पूजा का पूरा फल मिलेगा। इस विशेष संयोग पर होने वाली पूजा का विशेष प्रभाव कुछ राशि वालों को मिलेगा। 

हस्त नक्षत्र में 7 को मनेगी नागपंचमी 
इस बार नागपंचमी पर्व तीन योग को लेकर आई है। इस योग में पूजा-अर्चना करने से घर-घर में सुख, समृद्धि का वास होगा। साथ ही हर कार्य में सफलता के योग भी बनेंगे। इस बार नागपंचमी पर्व रविवार 7 अगस्त को मनाई जाएगी। ज्योतिषाचार्य पंडित रामदुलार उपाध्याय ने बताया कि इस बार नागपंचमी पर तीन योग एक साथ बन रहे हैं। सिद्ध योग, सर्वार्थ सिद्धि योग और अमृत योग। सर्वार्थ सिद्धि और अमृत योग के आने से इस दिन नागदेवता की पूजा करने से व्यक्ति की हर मनोकामना पूरी होगी। साथ ही कोर्ट कचहरी के कार्य में भी सफलता मिलेगी। इसके अलावा पानी का नक्षत्र होने से अच्छी वर्षा के संकेत भी नजर आएंगे। मान्यता के अनुसार घर-घर में महिलाएं नागदेवता का पूजन करती हैं लेकिन इस बार तीन योग बनने से यह पंचमी काफी विशेष फलदायी रहेगी। इस बार यह पर्व हस्त नक्षत्र योग में पड़ रहा है। इस दौरान की गई पूजा-अर्चना कई गुना फलदाई होगी। मान्यतानुसार नागपंचमी भगवान शिव व नागदेव के साथ चंद्र देव को भी समर्पित है। जिन जातकों की राशि में राहु-केतु का दुष्प्रभाव हो, उन्हें नागपंचमी पर भगवान शिव व नागदेव की पूजा करनी चाहिए। 

नागपंचमी पर घरों में नहीं चढ़ाया जाता तवा 
परंपरा के अनुसार नागपंचमी के दिन घर-घर में नागदेवता का पूजन किया जाता है। महिलाएं नागदेवता की पूजा करने के साथ ही वर्षों पुरानी परंपरा को आज भी बरकरार है जिसके चलते घर में तवा भी नहीं चढ़ाया जाता न ही चावल बनाए जाते हैं। केवल दाल-बाटी जैसे व्यंजन का उपयोग ही होता है। इसलिए घर-घर में दाल.बाटी ही बनाई जाती है। साथ ही चाकू या कैंची का उपयोग भी नहीं किया जाता। इस दिन केवल गुड़ की मिठाई का भोग लगाने का विशेष महत्व है।

पंचमी के दिन क्या करें, क्या न करें  
इस दिन पृथ्वी की खुदाई करना वर्जित है। भोले भंडारी नागपंचमी के दिन अपनी झोली से विषैले जीव को भूमि पर विचरण के लिए छोड़ देते हैं और जन्माष्टमी के दिन पुनः अपनी झोली में समेट लेते हैं। इस मास में भूमि पर हल नहीं चलाना चाहिए। मकान बनाने के लिए नींव भी नहीं खोदनी चाहिए। इस दिन दूध, गंध, फल प्रसाद नागदेवता को अर्पित करें। आटा का प्रतीक स्वरूप नाग बनाकर उसकी पूजा करें। इस दिन किसी सपेरे से नाग खरीदकर उसे खुले जंगल में छोड़ने से शांति मिलती है। पूजा में चंदन की लकड़ी का प्रयोग अवश्य करें। 

अब नहीं होती कुश्ती-कबड्डी 
सिर्फ नाग देवता का पूजन व जलाभिषेक तक सीमित हो गया है। अब सपेरे भी बीन बजाते कम ही दिखते है। जबकि एक वक्त वह भी था, जब नागपंचमी से सप्ताहभर पहले से गली-मुहल्लों से लेकर गांव की मैदानों में कुश्ती-कबड्डी सहित अन्य खेल शुरु होकर नागपंचमी के दिन उर्ज पर पहुंच जाते थे। जगह-जगह नागपंचमी मेले का आयोजन होता रहा। लेकिन अब इक्का-दुक्का जगहों पर ही यह सब दीखता है। अब सिर्फ नाग-नागिन के चित्र की पूजा तो कहीं-कहीं भगवान भोलेनाथ के शिवलिंग पर जलाभिषेक या दूध-लावा चढ़ाने के सिवाय कुछ भी नहीं दिखता। बात एक एक दशक पीछे की करें तो नागपंचमी के आगमन को लेकर बच्चों में खासा उत्साह रहता था। क्षेत्र के अखाड़े और स्कूलों में दंगल और प्रदर्शन की तैयारियां काफी पहले से आरंभ हो जाती थीं। लेकिन आधुनिकता आज सभी जगह हावी हो चुकी है। इसका असर सर्वत्र दिखाई पड़ रहा है। शहरों तथा गांवों में आज भी कुश्ती और अन्य विधाओं के उस्ताद खलीफा हैं जो लोगों को दांव-पेंच की कला सिखाने आतुर रहते हैं लेकिन आज का युवा इस ओर से पूरी तरह विमुख हो चुका है। ये हालात ताजा नहीं बल्कि वर्षों में निर्मित हुए हैं। एक दौर था जब घर के बुजुर्ग बच्चों को डटकर खाने और खूब मेहनत करने के लिए प्रेरित करते थे। इसके बाद दौर आया तो फण्डा ही बदल गया। कहा जाने लगा कि ‘खेलोगे, कूदोगे तो होगे खराब, पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नबाब।‘ यह स्लोगन लोगों के दिलो-दिमाग पर इस कदर घर कर गया कि बुजुर्गों ने बच्चों को सिर्फ पढ़ाई तक ही सीमित करके रख दिया। वर्तमान दौर में बच्चों का ध्यान टीवी सीरियल तक सिमटकर रह गया है और इसके भयावह नतीजे देखकर लोगों ने बच्चों को स्वस्थ रखने दौड़ने खेलने के लिए प्रेरित किया। फर्क इतना है कि अब लोगों का ध्यान पारंपरिक खेलों की बजाए आधुनिक खेलों की तरफ हो गया है। यही वजह है कि आज कुश्ती, दंगल और व्यायाम न केवल स्कूल-कॉलेजों से नदारद हो चुके हैं बल्कि विभिन्न सामाजिक संस्थाओं द्वारा किये जाने वाले आयोजन भी बंद हो गए हैं। नागपंचमी, जन्माष्टमी और दशहरा आदि कोई भी त्योहार हो तो अखाड़ों में दंगल के प्रदर्शन होते थे। अखाड़ों में सिखाएं जाने वाले मुगदर घुमाने की प्रक्रिया भी एक महायोग है। इसके नियमित अभ्यास से ब्लड प्रेशर, हृदय रोग, श्वास उखड़ना, शरीर में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा अधिक होना जैसे रोग नहीं होते। इससे शरीर के प्रत्येक अंग का व्यायाम होता है। आज के युवा आधुनिक जिमनेजियम में अधिक पैसा खर्च कर शरीर को स्वस्थ रखने व्यायाम करते हैं। शरीर सौष्ठव के पहलवान मसल्स बनाने टॉनिक लेते हैं। इसके विपरीत मिट्टी वाले अखाड़ों में वर्जिश करना अधिक फायदेमंद होता है। 

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