हाल के दिनों में घाटी की अशांति के लिए पाकिस्तान जिम्मेदार है। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि आखिर कब तक पाकिस्तान के इस कुकृत्य के लिए हम धमकिया दे-देकर भारतीय आवाम को बरगलाते रहेंगे। जबकि मौजूदा दौर में हमें उसी की तर्ज अटैक की मुद्रा में आना होगा। माना हम उसके आतंकियों का आतंकवाद से नहीं दे सकते, लेकिन जांबाज जवानों के बूते अधिकृत कश्मीर यानी पीओके की आजादी तो करा ही सकते है। इससे न सिर्फ पाकिस्तान की कलई खुलेगी बल्कि ‘इंसाल्लाह-इंसाल्लाह हम उस दिन खुश होंगे जब कश्मीर पाकिस्तान का अंग बनेगा‘ का राग अलापने वाले शरीफ की बोलती भी बंद हो जायेगी
बेशक, गृह मंत्री राजनाथ सिंह पाकिस्तान की सरजमी से लेकर भारत की सबसे बड़ी पंचायत संसद तक में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की चालों का जवाब तो दे रहे है, लेकिन इसका उन पर फर्क पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है। नवाज शरीफ राजनाथ के बातों को सिवाय बनरघुड़की से इतर तवज्जों नहीं दे रहे है। मतलब साफ है कि अब वक्त आ गया है कि भारत शरीफ की शतरंजी चालों का जवाब शतरंज की मोहरों के मुताबिक दें। क्योंकि ‘दुनिया की कोई ताकत कश्मीर को भारत से अलग नहीं कर सकती‘, ‘भारत की धरती पर पाकिस्तान का नारा और आइएस का झंडा लहराना बर्दाश्त नहीं होगा‘, ‘गोली का जवाब गोली से देंगे‘ का असर शरीफ पर पड़ने से रहा है। शरीफ की अक्ल ठेकाने तब लेगी जब भारत अधिकृत कश्मीर यानी पीओके की आजादी के लिए पाकिस्तान से जंग छेड़ेगी। क्योंकि भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से पाकिस्तान बाज नहीं आ रहा है। भारत को जिंदा हाथ लगा आतंकी बहादुर अली ने खुद कबूला है कि कश्मीर को सुलगाने के पीछे लश्कर और पाकिस्तान का हाथ है। वैसे भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चाहिए कि वह कश्मीर में उपजे हालात को नियंत्रित करने के लिए हर संभव कोशिश तो करें लेकिन ऐसा कोई कदम न उठाएं जिससे हमारी सेना का मनोबल गिरे। क्योंकि मोदी से सेना ही नहीं देश का नौजवान भी उम्मीदें पाल रखा है कि यूपीए जैसी गलतियों का पुनरावृत्ति नहीं होगी।
जम्मू-कश्मीर में 25 जुलाई को पकड़ा गया पाकिस्तानी आतंकी बहादुर अली उर्फ सैफुल्ला लश्कर-ए-तैयबा का प्रशिक्षित आतंकी है। उसने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को बताया है कि उसे घाटी में प्रदर्शन के दौरान सुरक्षा बलों पर ग्रेनेड से हमला करने के लिए भेजा गया था। बहादुर अली पाकिस्तान के रायविंड (लाहौर) का रहने वाला है। वह 11-12 जून को अपने दो साथियों साद और दर्दा के साथ भारतीय सीमा में दाखिल हुआ था। वह पाकिस्तानी सेना के अधिकारी हैदर के संपर्क में था। वह कश्मीर में मारे गए अबू कासिम के नमाज-ए-जनाजा में भी शामिल हुआ था। महीने भर पहले मारे गए आतंकी बुरहान वानी को लेकर घाटी आज भी सुलग रही है। हिंसा में अब तक 58 लोगों की जान तक जा चुकी है। 3 हजार 356 नागरिक और 4 हजार 515 सुरक्षाबलों के जवान जख्मी हैं। महीने भर बाद भी कश्मीर घाटी के ज्यादातर जिलों में कर्फ्यू लगा है। राज्यसभा में 6 घंटे की चर्चा के बाद पारित प्रस्ताव का निचोड़ ये निकला कि बातचीत ही विकल्प है। लेकिन अभी इस सवाल का जवाब नहीं मिला है कि जब मोदी वाजपेयी की नीति पर बढ़ेंगे तो क्या सरकार और अलगाववादी एक टेबल पर बैठेंगे? 2003 में वाजपेयी सरकार ने अलगाववादियों से बातचीत की थी। जबकि सच तो यह है कि पाकिस्तान के साथ-साथ अलगाववादी नेता लगातार घाटी के युवाओं को 1000-5000 रुपये तक देकर पत्थर चलवा रहे है।
कहा जा सकता है कि पिछले 15 साल में हर पीएम के कार्यकाल में जम्मू कश्मीर की समस्या का हल निकालने की कोशिश हुई लेकिन बात वहीं की वही रही। 2010 में मनमोहन सिंह की सरकार ने तीन वार्ताकारों के जरिए हल निकालने की कोशिश की थी लेकिन जमीन पर उसका असर दिखा नहीं। अब मोदी की कोशिश की बारी है। मोदी का यह बयान ‘जिन हाथों में लैपटॉप होना चाहिए, खेलने के लिए बैट या फुटबॉल होना चाहिए, उन्हें पत्थर थमाए जा रहे हैं। लेकिन हम इंसानियत और कश्मीरियत को दाग नहीं लगने देंगे,‘ राजनीतिक लहजे से तो कहने-सुनने में अच्छा है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि लेकिन हकीकत में कब बदलेगा कयास ही लगाएं जा सकते है। यह सही है कि मोदी कश्मीर का विकास चाहते है, लेकिन मुट्ठीभर लोग कश्मीर की अस्मिता को ठेस पहुंचा रहे हैं। इससे निपटा कैसे जाय इसकी रणनीति नहीं बन रही है बल्कि विपक्ष से लेकर अलगावादी व शरीफ इसे जलाएं रखना चाहते है। आज जरुरत है कि जो आजादी देश में है, वह कश्मीर में भी हो। वहां के युवाओं को रोजगार देकर गुमराह लोगों के कंधे से बंदूक उतरवाएं। क्योंकि पाकिस्तानी आतंकी बहादुर अली का जो इकबालिया बयान है उससे साबित होता है कि पाकिस्तानी सेना किस तरह आतंक के सहारे कश्मीर में अशांति और अस्थिरता फैलाने में जुटी हुई है। पाकिस्तानी सेना के सहयोग से प्रशिक्षित लश्कर के इस आतंकी को कश्मीर में आम लोगों के साथ मिलकर अराजकता फैलाने को कहा गया था। उसे पाकिस्तानी सेना की ओर से यह संदेश मिल रहा था कि वह भीड़ में शामिल होकर सुरक्षा बलों पर हमले करे ताकि जवाबी कार्रवाई में लोगों को क्षति उठानी पड़े और उसके चलते अशांति-उपद्रव का माहौल बरकरार रहे। इस आतंकी के बयान से ढिठाई पर आमादा पाकिस्तान की सेहत पर तो कोई असर नहीं पड़ने वाला, लेकिन कश्मीर के लोगों को इस देश के असली चेहरे को पहचानना होगा।
पाकिस्तान का एकमात्र मकसद कश्मीर को अशांत रखकर अपना उल्लू सीधा करना है और इसके लिए वह कश्मीरियों की जान जोखिम में डालने से भी गुरेज नहीं कर रहा है। कश्मीर की जनता यह देखने-समझने से इंकार कर रही है कि कश्मीरियों की आजादी की मांग को हवा दे रहा पाकिस्तान अपने हिस्से वाले कश्मीर को आजाद करने को तैयार क्यों नहीं है? वहां तो बुनियादी सुविधाओं तक का घोर अभाव है। वहां कश्मीरी भाषा और संस्कृति के लिए भी कोई स्थान नहीं है। आखिर क्या कारण है कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आजादी की मांग तो दूर रही, सामान्य बुनियादी अधिकारों की मांग को लेकर भी कोई आवाज नहीं सुनाई देती? इसमें संदेह है कि राज्यसभा में कश्मीर के हालात को लेकर जो बहस हुई उससे घाटी की जनता को कोई सही संदेश मिला होगा। निःसंदेह कश्मीर के माहौल को शांत करने की जरूरत है, लेकिन इसमें सफलता तब मिलेगी जब आजादी की बेतुकी मांग को लेकर उपद्रव करना बंद किया जाएगा। आखिर कोई भी सरकार उन लोगों के साथ सही तरह से संवाद कैसे कर सकती है जो आतंकी संगठनों का गुणगान करते हों और मजहबी तौर-तरीकों वाले शासन की मांग करते हैं? क्या मस्जिदों से जेहादी तरानों की गूंज कश्मीरियत है? क्या पुलिस और सुरक्षा बलों पर हमले करना जम्हूरियत है? क्या कश्मीरी पंडितों के वापसी के सवाल से कन्नी काटना इंसानियत है? यह खेद की बात है कि राज्यसभा कश्मीर की जनता को यह संदेश देने में नाकाम रही कि अगर वह शांति-समृद्धि चाहती है तो उसे देशद्रोह का पर्याय बनती जा रही पाकिस्तान परस्ती का परिचय देना बंद करना होगा। यह सदन कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व को भी कोई संदेश नहीं दे सका, जो यह मानने लगा है कि विकास तो कश्मीर की समस्या का हल है ही नहीं।
जबकि सच तो यह है कि पाकिस्तान शांति और समझौते की भाषा केवल हार कर और दबाव में ही समझता है। इसके बाद फिर उसका रवैया ढाक के तीन पात वाला हो जाता है। पाकिस्तान अस्तित्व में आया ही भारत के विरूद्ध बर्बरता की ताकत के आधार पर। उसने अस्तित्व में आते ही भारत के खिलाफ युद्ध की ताकत आजमानी शुरू कर दी। उसने शांति वार्ता और समझौते भी तभी किए जब उसे मुंह की खानी पड़ी। बार-बार मुंह की खाने के बावजूद उसने युद्ध और ताकत आजमाना नहीं छोड़ा। अस्सी-नब्बे के दशक वाले पंजाब में, उसके बाद कश्मीर में, 1993 के मुंबई-विस्फोटों में, आतंकवादी गतिविधियों में, नकली नोटों में, नशे और हथियारों की तस्करी आदि में पाकिस्तान कभी पीछे नहीं रहा। उसने करगिल कांड भी कर डाला। इसका एक मुख्य कारण है पाकिस्तान की अपनी बनाई हुई धारणा। पाकिस्तान अपने अस्तित्व को भारत से जबरन हथियाए हुए एक टूटे खंड़ के रूप में ही व्याख्यित करने को सदा-सर्वदा के लिए अभिशप्त है। भारत की त्रसदी यह है कि जिस सामरिक विस्तार को पाकिस्तान अफगानिस्तान में तलाश रहा था वह उसे हमारे ही शहरों, विश्वविद्यालयों, मीडिया, बुद्धजीवियों, नौकरशाहों और अब तो राजनितिक दलों में मिल रहा है। अब यह युद्ध सीमा पर नहीं हमारे घरों की दहलीज पर लड़ा जा रहा है। हैरत यह है कि इस सबके बावजूद हम केवल यह कहने तक सीमित हैं कि पड़ोसी है कि मानता ही नहीं।
(सुरेश गांधी)


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