~~~~~भारत में उल्लासपूर्वक 'विश्व आदिवासी दिवस' मनाने की शुरूआत हो चुकी है। भारत का आदिवासी भी जाग रहा है। यह अपने आप में बहुत बड़ी घटना है। अन्यथा अभी तक आदिवासी दलितों के पीछे खड़ा रहकर, चाहे—अनचाहे उनका अनुसरण करता रहा है। यह आदिवासी इतिहास में नया और सुखद मोड़ है। जबकि इसके विपरीत इससे दलित वर्ग में उथल—पुथल दिख रही है। फलत: दलित राजनीति ने 'विश्व आदिवासी दिवस' को हाई जैक करके 'विश्व मूलनिवासी दिवस' बनाकर, 'विश्व आदिवासी दिवस' सांकेतिक विरोध किया है। जिसके पीछे दलितों का स्पष्ट लक्ष्य—'किसी भी सूरत में केवल और केवल आदिवासी को ही भारत का मूलवासी नहीं बनने देना है।' क्योंकि दलित नेतृत्व बखूबी जानता है कि यदि विश्व आदिवासी दिवस का विचार भारत में आगे बढा तो उनकी 'मूलनिवासी की असत्य अवधारणा' क्षणभर में धराशाही हो जायेगी। 'मूलवासी' के स्थान पर 'मूलनिवासी' असत्य अवधारणा को जबरन लादने के पीछे भी दलितों का यही एक मात्र लक्ष्य रहा है। अन्यथा सभी को अपनी मौलिक पहचान प्रिय होती है। जिसके लिये डीएनए की एक अप्रासंगिक रिपोर्ट का भी सहारा लिया जाता रहा है, जबकि धरातलीय सच्चाई बिलकुल भिन्न है। इस कारण बीमारी के जीवाणू दोनों ओर कुलबुलाते रहते हैं। संविधान सभा में आदिवासी प्रतिनिधि जयपाल सिंह मुण्डा के प्रयासों को डॉ. अम्बेड़कर द्वारा विफल करके 'आदिवासी' के स्थान पर संविधान में 'अनुसूचित जनजाति' शब्दावलि को प्रस्थापित करने का दु:ख प्रत्येक आदिवासी के लिये अनवरत पीड़ा का बड़ा कारण है। यही वह मूल कारण है, इसी वजह से भारत सरकार संयुक्त राष्ट्रसंघ में घोषणा करने में सफल रही कि 'भारत में आदिवासी हैं ही नहीं!' इसी कारण वर्तमान सरकार 9 अगस्त, 2016 को 'आदिवासी उन्मूलन दिवस' मनाने का दुस्साहस कर सकी!
~~~~~इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहा जाये कि जाति प्रमाण—पत्र की बदौलत उपजे कथित आधुनिक आरक्षित विद्वानों का पहला और अन्तिम लक्ष्य केवल आरक्षण का लाभ उठाना और सत्ता पाना है-चाहे कुछ भी करना पड़े! ऐसे लोगों को दलित-आदिवासियों की मौलिक पहचान, पृथक समस्याओं और उनकी ऐतिहासिक भिन्नता सार्वजनिक रूप से समझ में आना मुश्किल है। यदि समझ आ भी जाये तो वे उसे स्वीकारना नहीं चाहते।
~~~~~हाँ उनको यह विभेद मनुवादी मंदिरों और अपने श्मशान घाटों पर बखूबी समझ में आता है। जब असहज और अपरिहार्य हालातों में भी इनके द्वारा किसी विजातीय और विशेषकर किसी भी दलित को जिन्दा या मुर्दा प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाती। संविधान में अस्पृश्यता अस्वीकार होने पर भी भी भारत के नीति—नियन्ता और उच्च प्रशासनिक पदों पर बिराजमान महामानवों तक में अस्पृश्य को हेय दृष्टि से देखने की बीमारी अभी भी बाकायदा जिन्दा है, जिसका मूल कारण है-"स्वर्ग की आकांक्षा और नर्क का भय!"....."
~~~~~दलित और आदिवासी को एक मानने का किताबी ज्ञान बांटने वाले कथित विद्वान विचारक इस विभेद को मिटाने के लिये, जमीनी स्तर पर कुछ सृजनात्मक करने में सक्षम हैं? लगता नहीं! हाँ उन्हें आरक्षण और सत्ता चाहिये, चाहे इसके लिये कुछ भी करना पड़े। ऐसे लोग बाबा साहब के कंधों पर सवार हो सकते हैं या बाबा साहब को कंधों पर बिठा सकते हैं या बाबा साहब के कदमों पर दण्डवत लमलेट हो सकते हैं, लेकिन जन्मजातीय भेदभाव और नाइंसाफी के खिलाफ बाबा साहब के संघर्ष से इनका कोई वास्ता नहीं है। मूल रूप से दलितों द्वारा संचालित सामाजिक न्याय के आन्दोलन को अपना बताने में इनको शर्म नहीं आती, लेकिन दलितों को मंदिरों में प्रवेश करने से रोकने के लिये बामणों के साथ खड़े रहते हैं। बामणों से भागवत कथा बंचवाने के लिये लाखों का चंदा दे सकते हैं, लेकिन भारत को संविधान खरीदने के लिये उनकी जेब में फूटी कौड़ी नहीं होती, क्योंकि यह काम उनका नहीं, दलितों का है!
~~~~~इन हालातों में खुद को हिंदू मानने वाले, किन्तु कानूनी तौर पर अहिंदू आदिवासी/हिन्दू धर्म से शासित नहीं आदिवासी को यह कैसे समझ में आयेगा कि हिन्दू धर्म से शासित होने वाले दलित, हिंदुत्व से मुक्ति के लिये बौद्ध धर्म अपना रहे हैं, जबकि बौद्ध धर्म कानूनी तौर पर हिंदू धर्म की एक शाखा मात्र है और सभी बौद्ध हिन्दू धर्म के कानूनों से शासित होते हैं। फिर भी दलित के मन में हिन्दू धर्म की गुलामी से मुक्ति की एक गहरी तड़प है, लेकिन दु:खद तथ्य दलित से बौद्ध बना मानव अपने अवचेतन में बैठे बामणी भगवान से मुक्त नहीं हो पा रहा है। अत: महामानव बुद्ध की कांस्य प्रतिमा के समक्ष मोमबत्ती जलाकर, विष्णू की आरती की ही तरह से बुद्ध—वंदना गाता है, जबकि खुद बुद्ध, भगवान के अस्तित्व और वंदना के समर्थक नहीं हैं।
~~~~~अतः इस नवबौद्धिकरण का कोई कानूनी औचित्य नहीं रह जात है। इन नवबौद्धों का आचरण भी हिंदुत्व से ओतप्रोत बना हुआ रहता है। यही नहीं बल्कि यह भी सर्वज्ञात है कि बौद्ध धर्म में जाति नहीं होती, ईसाइयत में भी जाति नहीं होती, लेकिन सभी नवबौद्ध (दलित) और सभी नव ईसाई (आदिवासी) अपना धर्म बदलकर भी जब अपने लिये जाति प्रमाण-पत्र बनवाते हैं, तो उसमें अपनी मूल हिन्दू जाति का उल्लेख कर के आरक्षण का लाभ उठाते हैं। सम्भवत: यह सामाजिक न्याय पाने की और हिन्दुत्व की गुलामी से मुक्ति पाने की इनकी कानूनी मजबूरी है।
~~~~~कड़वा सच तो यही है कि सामाजिक न्याय के इन मिशनरियों को आरक्षण और सत्ता चाहिये, बेशक इसके लिये उन्हें कुछ भी करना पड़े। सच को झूठ और झूठ को सच बनाकर परोसना पड़े। चाहे संघ एवं बामणों से दोस्ती जरूरी हो। एमके गांधी और बाबा साहब के कथित हत्यारों की शरण में जाना पड़े। आदिवासियों के अस्तित्व के खिलाफ नक्सलवाद का समर्थन करना पड़े। जयपाल सिंह मुंडा का विरोध और आदिवासी पहचान का विलोपन करने वालों का जयकारा मंजूर है। मूलनिवासी का नारा और मूलवासी पर कटारा चलाना मंजूर है। दलित उत्पीड़न पर चुप्पी और रामायण-भागवत कथा पर खुशी। सब-कुछ जायज है। उनको इस सब से क्या फर्क पड़ता है-आखिर आरक्षण जो चाहिये। वाह क्या मिशन है। इसीलिये अब 'विश्व आदिवासी दिवस' भी 'विश्व मूलनिवासी दिवस' के रूप में मनाने की शुरू हो रही है। जबकि 'शूद्र कौन थे' नामक ग्रंथ में बाबा साहब डॉ. अम्बेड़कर स्वयं स्वीकार करते हैं कि भारत के असली और मूलमालिक केवल 'आदिवासी' हैं। लेकिन दलित और आदिवासी दोनों को बाबा साहब भी, सम्पूर्णता के बजाय अपनी—अपनी सुविधा के अनुसार टुकड़ों—टुकड़ों में उपयोगी लगते हैं!
~~~~~यही वजह है कि इन दिनों बाबा साहब के मिशन के नाम पर एक ऐसी विचारधारा का जन्म हो चुका है, जिसका मूल मकसद है कि अपनी अंधभक्ति के नारे लगवाओ और जो कोई इन नारों का समर्थन नहीं करे उसे सामाजिक न्याय की आड़ में बाबा साहब के मिशन का गद्दार घोषित कर दो। संघ और कांग्रेस का ऐजेण्ट करार दे दो। जबकि इतिहास उठाकर देखा जाये तो ऐसे नारे लगाने वालों में से अधिकतर कुर्सी मिलते ही बाबा साहब के कथित मिशन से विमुख होते रहे हैं। वर्तमान में—पासवान, अठावले, उदित राज और परोक्ष रूप से मायावती (जो संविधान के विपरीत सवर्ण गरीबों को आरक्षण दिलाना चाहती है और गुजरात जाकर मोदी का प्रचार करती है) बड़े नाम हैं। इन हालातों में वन्दे मातरम्, जयहिंद, गाय माता और भारत माता की जय नहीं बोलने पर राष्ट्र का गद्दार कहने वाले कथित साम्प्रदासियिक राष्ट्रवादियों में और इन मिशनरी आरक्षण लोभियों के मूल चरित्र में क्या फर्क रह जाता है? क्योंकि सत्य दोनों को ही अस्वीकार है। एक कैसे भी सत्ता पाना चाहता है, जबकि एक सत्ता छोड़ना नहीं चाहता।
~~~~~मुझे दु:ख है कि उपरोक्त अवांच्छित परिस्थितियों के कारण दलित—आदिवासी की दूरी मिटने के बजाय बढ रही है। रिश्तों में खटास आ रही है। अत: वर्तमान में सच्चे दलित नेतृत्व को ऐतिहासिक सत्य को समझकर, उसे उदारतापूर्वक स्वीकारना चाहिये। जिससे वंचित वर्ग की एकता में बाधा उत्पन्न नहीं हो, क्योंकि ऐतिहासिक तथ्यों के विपरीत आदिवासी का अस्तित्व मिटाने के लक्ष्य से 'मूलनिवासी' शब्द गढकर भारत का 'मूलवासी' बनना असम्भव है। आदिवासी को अजजा बनाने वाले डॉ. अम्बेड़कर से शुरू होकर मूलनिवासी की असत्य अवधारणा प्रचारित करने वाले दलितों के दृष्टिकोंण का ही दुखद दुष्परिणाम है कि 9 अगस्त, 2016 का ऐतिहासिक दिन आदिवासियों ने विश्व आदिवासी दिवस, दलितों ने विश्व मूलनिवासी दिवस और सरकार ने आदिवासी उन्मूलन दिवस के रूप में मनाया। यह आदिवासी अस्मिता पर सीधा कुठाराघात है। इससे आने वाले भविष्य के संकेत को समझा जा सकता है।
~~~~~मेरी समझ केवल इतनी सी है कि-'मीठा झूठ' बोलने से अच्छा है 'कड़वा सच' बोला जाए..इससे आपको 'सच्चे दुश्मन' जरूर मिलेंगे लेकिन 'झूठे दोस्त' नहीं! अत: आप मेरे विचारों से सहमत हों, यह जरूरी नहीं, लेकिन मैं दूसरों के स्वार्थों की पूर्ति के लिये असत्य लिखूं, यह सम्भव नहीं।
सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
संपर्क : 9875066111
लेखक का संक्षिप्त परिचय : मूलवासी-आदिवासी : रियल ऑनर ऑफ़ इंडिया/Indigenous-Aboriginal : Real Owner of India। प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS), नेशनल चैयरमैन-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एन्ड रॉयटर्स वेलफेयर एसोसिएशन (JMWA), पूर्व संपादक-प्रेसपालिका (हिंदी पाक्षिक) और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ।-11.08.2016

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