उत्तर प्रदेश : -उत्तरप्रदेश में कांग्रेस व सपा में दोस्ती की कवायद- - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 31 दिसंबर 2016

उत्तर प्रदेश : -उत्तरप्रदेश में कांग्रेस व सपा में दोस्ती की कवायद-

  • गठबंधन के सहारे राजनीतिक उत्थान की तलाश

कहावत है कि कमजोर को सहारे की तलाश रहती है। उत्तरप्रदेश में भी आगामी विधानसभा चुनाव के लिए सपा और कांग्रेस के लिए कुछ ऐसी ही स्थितियां निर्मित होती दिखाई दे रहीं हैं। जिसमें पिछले 27 वर्ष से लगभग वनवास जैसी स्थिति में जा चुकी कांग्रेस के लिए वर्तमान में भी उत्थान के रास्ते बंद जैसे दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस के लिए आज गठबंधन मजबूरी बन गया है। इसी प्रकार समाजवादी पार्टी के भीतरखाने में भी कहीं न कहीं अविश्वास की स्थिति का प्रादुर्भाव होता दिखाई दे रहा है। जिसमें उसके अंदर परिवार की लड़ाई को प्रमुख कारण माना जा रहा है। सपा के प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल सिंह साफ शब्दों में यह कहते हुए दिखाई देते हैं कि वे मुख्यमंत्री के अधीनस्थ नहीं हैं। इसी कारण से उन्होंने कई पूर्व घोषित प्रत्याशी का फेरबदल कर दिया। जिसका एक उदाहरण माधौगढ़ में दिखाई दिया। जिसमें पूर्व घोषित प्रत्याशी का बदल दिया जाना और उसके बाद फिर से उसी प्रत्याशी को मैदान में लाना कहीं न कहीं पेचीदगी की स्थिति को निर्मित कर रहा है।

उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की स्थिति का चिन्तन किया जाए तो यह साफ दिखाई देता है कि मुख्यमंत्री का चेहरा और प्रदेश अध्यक्ष बदल दिए जाने के बाद भी कांग्रेस अपनी स्थिति में सुधार करती हुई दिखाई नहीं दे रही। इसका कारण यह भी माना जा रहा है कि कांग्रेस के परिचित चेहरों ने जब चुनाव अभियान का सूत्रपात किया, उसमें कहीं न कहीं अपशगुन जैसी स्थितियां निर्मित हो गईं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अपने पूर्व के बयानों के कारण ही उलझते जा रहे हैं। इसी प्रकार कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी अपने चुनाव अभियान के दौरान ही बीमार हो गईं और उन्होंने अभियान को बीच में ही छोड़ दिया। मुख्यमंत्री का चेहरा बनाईं गईं शीला दीक्षित के साथ भी इसी प्रकार के हालात निर्मित हुए, जिसमें पहले दिन ही उनका मंच टूट गया। इसके अलावा प्रथम बात तो यह है कि इन सब चेहरों के बाद कांग्रेस को अपनी स्थिति में परिवर्तन होने की गुंजाइश कम ही दिखाई दी। इसलिए कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी की ओर हाथ बढ़ाए हैं। इसमें सबसे प्रमुख कारण यह माना जा रहा है कि कांग्रेस और सपा यह कतई नहीं चाहते कि उत्तरप्रदेश में भाजपा फिर से पांव जमाने में सफल हो। वर्तमान में कांग्रेस और सपा का एक ही अभियान है कि भाजपा को सत्ता में आने से रोका जाए। और भाजपा जिस तरीके से चुनाव की तैयारियां कर रही है, उससे तो लगता है कि भाजपा को रोकने के लिए गैर भाजपा दलों को एक साथ आना होगा। हम जानते हैं कि बिहार में भाजपा की सरकार बनने के पूरे अवसर थे, लेकिन जनता दल यूनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल व कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़कर भाजपा के सपनों पर पानी फेर दिया। यह बात अलग है कि आज बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुतार फिर से नरेन्द्र मोदी की ओर आने के लिए उतावले दिखाई दे रहे हैं। हालांकि बिहार का प्रयोग उत्तरप्रदेश में दोहराया जाएगा, इस बात के अवसर कम ही दिखाई दे रहे हैं। क्योंकि उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यह कतई नहीं चाहेंगे कि उनका राजनीतिक प्रभाव कम हो।

उत्तरप्रदेश के होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी दल समाजवादी पार्टी ने वैसाखियों की तलाश प्रारंभ कर दी है, इससे प्रथम दृष्टया यह प्रमाणित होता है कि समाजवादी पार्टी अपने दम पर सत्ता प्राप्त करने का साहस खो चुकी है। समाजवादी पार्टी की ओर से भले ही यह दावे किए जा रहे हैं कि इस बार भी सपा की ही सरकार बनेगी। इस दावे में कितना दम है, यह इस बात से पता चल जाता है कि वह कांग्रेस पार्टी से गठबंधन करने की कवायद करने में जुटी हुई है। जहां तक कांग्रेस पार्टी का सवाल है तो उत्तरप्रदेश में उसके भविष्य को लेकर यही कहा जा सकता है कि उसके तमाम प्रयास फिलहाल नाकाफी ही साबित हो रहे हैं। उत्तरप्रदेश में चाहे वह पिछला विधानसभा का चुनाव हो या फिर बीता लोकसभा का चुनाव सभी में कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रमुख भूमिका का प्रतिपादन किया था। लेकिन पूरी ताकत लगाने के बाद भी नतीजा और खराब होते चले गए। इस बार के चुनाव की तैयारियों को लेकर कांग्रेस ने जरुर कुछ नया करने का प्रयास किया था, लेकिन जैसे जैसे समय निकलता गया, वैसे ही उसको विधानसभा चुनाव में परिणामों की स्थिति का भान हो गया। कांग्रेस ने कुछ दिनों पूर्व प्रदेश में सत्ता के लिए वापसी का सपना पाले बैठी बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन करने का प्रयास किया था, लेकिन बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने कांग्रेस जैसी पार्टी से हाथ मिलाने से साफ इनकार कर दिया। ऐसे में राहुल गांधी के राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के लिए उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को पुन: पटरी पर लाने की कवायद की गई, उसके फलस्वरुप सपा से गठबंधन करने का रास्ता निकाला गया। हालांकि सपा के कुछ नेता वर्तमान में कांग्रेस से दूर रहने की सलाह दे रहे हैं, लेकिन कहीं न कहीं सपा को भी लगने लगा है कि बिना किसी के सहारे सपा राजनीतिक सत्ता को फिर से प्राप्त कर पाने में असफल ही सिद्ध होगी। भारतीय राजनीति में यह सत्य है कि कोई भी दल तभी गठबंधन करने की ओर प्रवृत होता है, जब उसे अकेले चलने में खतरा महसूस होने लगता है। वर्तमान में समाजवादी पार्टी संभावित खतरे को टालने के लिए कांग्रेस की ओर कदम बढ़ाने का प्रयास कर रही है। अगर दोनों मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो भी इस बात की पुष्टि नहीं हो सकती कि प्रदेश में फिर से सपा सरकार ही बनेगी। क्योंकि अभी कुछ दिनों पूर्व हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने जिन राज्यों में क्षेत्रीय दलों को समर्थन दिया था, उनमें कांग्रेस के साथ ही उन दलों को भी जनता ने पूरी तरह से नकार दिया था। तमिलनाडु में करुणानिधि को पूरा विश्वास हो गया था कि अबकी बार वही सरकार बनाएंगे, लेकिन कांग्रेस के साथ चलने के कारण उसका भी बंटाधार हो गया। इतना ही कांग्रेस पार्टी वर्तमान में सिमटती ही चली जा रही है। ऐसे में कांग्रेस को डूबता हुआ जहाज निरुपित किया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं कही जाएगी। प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने एक प्रकार से डूबते हुए जहाज का सहारा लिया है। प्रदेश में बसपा ने संभवत: इसी बात को ध्यान में रखकर ही कांग्रेस से दोस्ती करने को नकार दिया कि कहीं ऐसा न हो जाए कि कांग्रेस के साथ वह भी डूब जाए। अब प्रदेश में सत्ता का संचालन करने वाली सपा ने कांग्रेस की ओर हाथ बढ़ाया है तो इस बात की कम ही गारंटी लग रही है कि सपा प्रदेश में पुन: सत्ता संभाल पाएगी।




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सुरेश हिन्दुस्थानी
झांसी (उत्तरप्रदेश)
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