बेगुसराय के 34 वर्षों का फ़िल्मी सफ़र - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

बेगुसराय के 34 वर्षों का फ़िल्मी सफ़र

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प्रद्योत कुमार,बेगुसराय। 80 के दशक से बेगुसराय फिल्म निर्माण के क्षेत्र में दस्तक दे चुका है,सन 1983 या 1984 में रतनपूर,बेगुसराय निवासी माधव सिंह अभिनीत फ़िल्म "महामिलन" हिंदी फ़िल्म बनायी गई थी,माधव सिंह हिंदी सिनेमा के पहले "हीरो" थे बेगूसराय से।हांलाकि उस वक़्त फ़िल्म निर्माण अभी के वनिस्पत साधन और तकनीक के दृष्टिकोण से काफी कठिन था। लेकिन अब बेगुसराय में फ़िल्म निर्माण धड़ल्ले से ही रही है,अक्सर अख़बारों में किसी न किसी फ़िल्म के मुहूर्त होने की ख़बर पढ़ने को मिल जाती है,सच जानिये तो ये सब फ़िल्म निर्माण के उपलब्ध सस्ते संसाधनों की बुरी तासीर है और अगर तकनीकी दृष्टिकोण से देखा जाय तो फ़िल्म निर्माण पहले से कठिन हो गयी है,बहरहाल अब मैं आपका ध्यान विगत 5 - 6 वर्षों में बेगुसराय में हुए या हो रहे फ़िल्म निर्माण की ओर चाहता हूँ।बेगुसराय में इन दिनों भोजपुरी फ़िल्में लगभग सात बन चुकी हैं जो इस प्रकार हैं,"छोटकी दुल्हिन" निर्माता अमित,विष्णुपूर निवासी(स्वर्णकार,रिलीज़),"पैसा नाच नचावे ला "निर्माता केसावे निवासी राजेश सिंह (रिलीज नहीं),"सनम दिल ले गईल" और "प्यार किया नहीं जाता" निर्माता तेघड़ा निवासी पप्पू (रिलीज़ नहीं),"नादिया के पार पिरितिया हमार", निर्माता विपिन विद्यार्थी(रिलीज़ नहीं),"लव का सौदा"निर्माता शंभु साधारण (रिलीज़),"बलमा रंगरसिया,निर्माता विश्वनाथ पौद्दार,सुहृदनगर निवासी(रिलीज़ नहीं)और इसके अलावे बिहार की लोक संस्कृति पर आधारित दो फिल्में बनी हैं एक "जट जटिन",निर्माता सनहा निवासी अनिल पतंग(रिलीज) इसकी भाषा मिलावटी थी,हिंदी और अंगिका,दूसरी,रेशमा - चौहरमल की प्रेम कहानी पर आधारित,फ़िल्म "चौहर"निर्माता बेगुसराय शाहपुर निवासी दिनकर भारद्वाज,भाषा हिंदी(रिलीज़)। उक्त तमाम रिलीज़ फ़िल्में दर्शक को सिनेमा घरों तक लाने में बुरी तरह नाकामयाब रही।


इन फिल्मों के असफल होने के मुख्य कारण हैं फ़िल्म निर्माण में अव्यवसायिक दृष्टिकोण।यहाँ एक सवाल उठता है कि फिल्म निमार्ण क्यों और किसके लिए?ज़ाहिर सी बात है कि व्यवसाय और दर्शक के लिए तो यहां एक बात स्पष्ट करना ज़रूरी है कि बेगुसराय के निर्माता की फिल्में व्यवसाय नहीं कर सकी क्योंकि दर्शक तो है ही नहीं, अब एक अहम सवाल ये खड़ा होता है कि ऐसा हुआ क्यों है?इसीलिए कि फ़िल्म के संबंध में सारे बारीक तकनिकी चीजों की मुकम्मल जानकारी नहीं होना।दूसरी बात है अगर आप फिल्म निर्माण करते हैं राजनीतिक फायदे के लिए तो उसका फायदा भी आपको तभी मिलेगा जब अधिक से अधिक संख्या में दर्शक सिनेमा घरों तक जाएगा।राजनितिक लाभ बड़े बड़ों का गेम है,अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म "इंकलाब" राजनीतिक लाभ के लिए बनवाई गई थी,खैर।अगर फ़िल्म का बजट कम हो तो फ़िल्म की कहानी "आउट ऑफ बॉक्स" होनी चाहिये,कहीं से भी "पटकथा" में कोई स्पेश नहीं होनी चाहिये,संवाद रोचक एवं कसा होनी चाहिए,मेकिंग से पहले मार्केटिंग तय होनी चाहिये,फ़िल्म निर्माण में प्रत्येक चीज़ का एक मजबूत व्याकरण होता है और उसी के दायरे में काम करना होता है लेकिन यहाँ के निर्माता सारे व्याकरण को ताक पर रख कर कार्य करते हैं इसीलिए स्थित "ढ़ाक के तीन पात" जैसी है और जब तक यहाँ के निर्माता गंभीर भ्रम के दायरे में रहेंगे तब तक ऐसी ही फिल्मों का निर्माण होता रहेगा एवं रीयल फ़िल्म निर्माण के मुस्कबिल से काफी दूर नज़र आते रहेंगे। 37 वर्षों के फ़िल्मी सफ़र में क्या खोया,क्या पाया इसका मूल्यांकन एक सवाल अवश्य छोड़ जाता है।

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