बेगूसराय : शिक्षा से साक्षर का सफ़र - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 22 अप्रैल 2017

बेगूसराय : शिक्षा से साक्षर का सफ़र

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प्रद्योत कुमार,बेगूसराय। हमारे यहां आधुनिक काल में जो भी सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन हुए हैं उस पर यूरोप का बहुत प्रभाव रहा है।18 वीं सदी में यूरोप में जो भी परिवर्तन हुए हैं उसका सीधा प्रभाव भारत के समकालीन जीवन पर पड़ा,चाहे वह राष्ट्रीय - राज्य की कल्पना हो या मध्य वर्ग की अवधारणा,भारत में शिक्षा एक मौलिक अधिकार है की अवधारणा यूरोपीय दृष्टिकोण की ही उपज है।1870 में जब इंग्लैण्ड में शिक्षा को निःशुल्क और अनिवार्य बनाने का क़ानून बना ठीक उसी समय भारत में भी यह मांग उठने लगी।विभिन्न कमिटियों ने निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के लिए मांग रखी,तो साथ ही विभिन्न प्रयोगों के द्वारा यह भी प्रमाणित किया गया कि यह विचार मात्र काल्पनिक नहीं है।वर्तामान शिक्षा नीति को समझने के लिए आज से लगभग 49 - 50 साल पीछे जाना होगा।सन 1966 में "कोठारी शिक्षा आयोग" ने अपनी एक मुख्य सिफारिश में कहा था कि पूरे देश में "समान स्कूल व्यवस्था" (Comman school system) स्थापित की जाय जिसमें देश के हर बच्चे को चाहे वो किसी भी धर्म,जाति, लिंग,वर्ग अथवा क्षेत्र का हो समान गुणवत्ता वाली शिक्षा दी जाय और शिक्षा को बुनयादी हक़ मानते हुए हर बच्चे के लिए समान गुणवत्ता वाली स्कूल प्रणाली की व्यवस्था हो।ठीक 1968 में संसद द्वारा पारित भारत की पहली शिक्षा नीति में कोठारी आयोग की सिफ़ारिश को स्वीकारते हुए कहा गया कि "ऐसी स्कूल प्रणाली के जरिये ही राष्ट्रीय एकजुटता एवं सामाजिक सद्भाव का निर्माण सम्भव हो सकेगा"।राष्ट्रीय  नीति के इस संकल्प के बावजूद विभिन्न आर्थिक तथा सामाजिक समूहों के लिए अलग अलग प्रकार की स्कूल व्यवस्थाएं खड़ी करने का काम निर्बाध जारी रहा।इसी अवधि में तथाकथित पब्लिक स्कूल सरकारी वरदहस्त पाकर फलते फूलते रहे।सत्तर के दशक में अनेक प्रकार के खर्चीले और कम खर्चीले प्राइवेट स्कूलों की संख्या बढ़ती चली गई जिसकी जैसी हैसियत उनके अनुसार वैसा ही खर्च वाला स्कूल।जिनकी हैसियत कम है उनके बच्चों के लिए कुकुरमुत्तों की तरह "कॉन्वेंट शैली" में स्कूल नूमा दुकानें खुलने लगीं जो अस्सी के दशक में छोटे शहरों और ग्रामीण कस्बों के शैक्षिक बाज़ार का हिस्सा बन गई।कुछ सालों के बाद सरकार द्वारा अपनी ही नीति का उल्लंघन किया गया और केंद्रीय कर्मचारी के बच्चों के लिए देश में केंद्रिय विद्यालय और मिलिट्री के बच्चों के लिए सैनिक स्कूल खुलने लगे और फिर 1990 के दशक में अतिखर्चीले नवोदय विद्यालय की स्थापना की गई।अभी के दौर में शिक्षा पूर्ण रूप से बाज़ारवाद के बरगद के नीचे फल फूल रहा है और शिक्षा का बाज़ारीकरण सरकार के नियंत्रण से बाहर है और अन्य माफियों की तरह भी अब लगभग देश के प्रत्येक राज्य और शहर में लोग "शिक्षा माफिया" के नाम से जाने,जाने लगे हैं।जहां पहले शिक्षा के साथ "आदर्श" शब्द जुड़ा था वहीं अब "माफिया" शब्द जुड़ गया है इससे आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि शिक्षा में कितनी गिरावट आयी है।अभी के दौर में प्राइवेट स्कूलों की तो ऐसी स्थिति है कि उन विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ाने वाले अभिभावक अजीब कश्मकश की स्थिति से गुजर रहे हैं,प्रत्येक वर्ष अभिभावक से जबरन अनाप शनाप विभिन्न मदों में फी के नाम पर वसूला जा रहा रुपया।स्कूल प्रशासन के इस वर्ताव से खासकर कस्बाई शहरों में तो हाय तौबा से लेकर हाहाकार मचा हुआ है।स्कूल के इस आतंकी प्रभाव से बचने के लिए आख़िरकार अभिभावक किससे गुहार लगाए जहाँ उनकी बातों को ईमानदारी से सुनते हुए उस आतंकी स्कूली व्यवस्था के खिलाफ उचित कार्रवाई हो सके।यहाँ सुनाने वाला कोई "सरकारी व्यवस्था" नहीं है।अब तो आलम ये है कि सरकार शिक्षा को छोड़कर "साक्षर" करने पर बल देते हुए विभिन्न लूट - खसोट वाली नीति को बढ़ावा देकर शहर शहर,गाँव गाँव में साक्षर करने की सरकारी एजेंसियां खोल रखी हैं।हाय रे सरकार की "शिक्षा नीति" जो सरकार का खुद मुंह चिढ़ा रही है।

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