विशेष आलेख : किसान आंदोलन पर राजनीति की छाया - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 12 जून 2017

विशेष आलेख : किसान आंदोलन पर राजनीति की छाया

मध्यप्रदेश में किसान आंदोलन बाद राजनीतिक लाभ लेने के लिए उपवास और सत्याग्रह करने की कवायद की जाने लगी है। भाजपा और कांगे्रस एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ करते दिखाई दे रहे हैं। किसानों के प्रति हमदर्दी दिखाते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उपवास पर बैठे। इसके माध्यम से उनका उद्देश्य केवल इतना ही था कि वे किसानों से मिलकर समस्या का समाधान निकालना चाहते थे, लेकिन कांगे्रस ने फिर से आग में घी डालने जैसा कृत्य किया है। राजनीतिक लाभ लेने के लिए कांगे्रस के नेताओं को भी उपवास और सत्याग्रह का सहारा लेना पड़ रहा है। इस प्रकार की राजनीति करने से पहले यह किसी ने नहीं सोचा कि किसानों की समस्याओं को दूर कैसे किया जाए। दोनों दल बैठकर किसानों की स्थिति के बारे में चिन्तन करते तो संभवत: यह एक अच्छी पहल मानी जा सकती थी, लेकिन ऐसा लग रहा है कि किसानों की समस्या हल करने में ही कांगे्रस की रुचि नहीं है। कोई भी आंदोलन समाचार पत्र की सुर्खियां तो बन सकता है, लेकिन इससे आम जिन्दगी जीने वाले लोगों को कितना लाभ मिलता है, इसकी समीक्षा करने का साहस वर्तमान में किसी भी राजनीतिक दल के पास नहीं है। वास्तव में यह सत्य है कि वर्तमान में देश का किसान आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहा है, वहीं छोटे स्तर का किसान निरंतर कर्ज के बोझ तले दबा चला जा रहा है। वह अपनी खेती को छोड़कर मजदूरी करने की ओर प्रवृत हो रहा है। देश में ऐसी स्थितियां क्यों निर्मित हो रही हैं। इस पर विचा करने की आवश्यकता है।


यहां एक सवाल यह आ रहा है कि जब प्रदेश के मुख्यमंत्री समाधान की दिशा में पहल करने के लिए तैयार हो गए, तब कांगे्रस को उपवास और सत्याग्रह करने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है। भाजपा सरकार में है और विपक्षी दल भी सरकार से ही किसानों की समस्या का समाधान करने की मांग करेंगे। आज प्रदेश के किसानों की समस्याओं को अनसुलझा बनाने का जो खेल खेला जा रहा है, वह लोकतांत्रिक तरीके से तो सही ठहराया जा सकता है, लेकिन मानवीयता के तौर पर राजनीतिक दलों की कार्यवाही समस्या को विराट रुप देने की कार्यवाही का हिस्सा माना जा सकता है। कांगे्रस शायद यही सोच रही है कि समस्या को इतना बड़ा कर दो, कि कोई समाधान ही नहीं निकल सके। इस प्रकार की सोच के साथ राजनीतिक करने का यह खेल जब तक चलेगा, तब तक समस्याओं का हल नहीं निकाला जा सकता है। हल निकालने के लिए सामूहिक चिन्तन की जरुरत है। जिसकी गुंजाइश बहुत कम दिखाई दे रही है।

कृषि क्षेत्र में पनप रही समस्याओं के बारे में न तो किसी का ध्यान जा रहा है और न ही कोई इस बारे में सोच रहा है। वास्तव में आज के युग में कृषि ने भी एक व्यवसाय का रुप ले लिया है। धनाढ्य वर्गों ने जमीन खरीद ली हैं और वही खेती करवा रहे हैं। किसान तो उनके खेतों में मजदूरों की तरह जीवन जी रहा है। सबसे बड़ी समस्या यही है कि बड़े किसान मजे में हैं, छोटे किसान जीवन समाप्त करने की ओर है। मात्र इसी कारण से किसान आज कर्ज के बोझ से दबा चला जारहा है। बड़े किसानों के पास जहां खेती करने के सारे आधुनिक संसाधन मौजूद हैं, वहीं छोटे किसानों की खेती उन्ही संसाधनों पर निर्भर होकर रह गई है। कर्ज के दायरे में घिरते जा रहे किसान के सामने कर्ज माफी एक विकल्प के तौर समाधानकारक दिखाई दे रहा है, लेकिन कर्ज माफी किसान की समस्या का स्थाई समाधान नहीं माना जा सकता। कर्ज माफी के साथ ही किसानों के पास संसाधनों की पूर्ति करने के लिए भी व्यवस्थाएं करनी होंगी, नहीं तो कल के दिन किसान फिर से कर्ज के बोझ तले दबेगा ही, यह तय है।


वर्तमान में जिस प्रकार से संसाधन आधारित खेती का चलन बढ़ रहा है, उसी प्रकार से किसान कमजोर होता जा रहा है। किसान के ऊपर इन्हीं संसाधनों को प्राप्त करने के कारण कर्ज बढ़ रहा है। किसान खेती को आधार बनाकर संसाधन तो जुटा लेता है, लेकिन उसकी उपज से प्राप्त होने वाली आय कर्ज चुकाने में ही चली जाती है। इसके बाद उसके परिवार संचालन के लिए कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती हैं। सरकार को प्रयास करना चाहिए कि वह किसान की समस्या का बारीकी से अध्ययन करे और उसके समाधान के बारे में सकारात्मक कदम उठाए। वास्तव में ही पूरे देश का किसान परेशान है। किसान को समस्या से उबरने कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। यह बात सही है कि देश भर का किसान आंदोलन करने को मजबूर है, लेकिन मध्यप्रदेश के किसान आंदोलन की गाथा में राजनीतिक पुट नजर आ रहा है। कहीं कहा जा रहा है कि कांगे्रस के नेताओं ने इस आंदोलन में घी डालने का काम किया। हो सकता है कि यह सही हो, क्योंकि लगभग 19 वर्षों से सत्ता से बाहर रहने वाली कांगे्रस पार्टी आंदोलन को सत्ता प्राप्त करने की सीढ़ी बनाने का सपना देख रही है। यह तो सत्ताधारी भाजपा की कुशलता ही मानी जाएगी कि वह कांगे्रस को कोई अवसर हाथ में नहीं दे। कांगे्रस भले ही इस आंदोलन को भाजपा सरकार की असफलता सिद्ध करने का प्रयास करे, लेकिन सरकार की असफलता का पैमाना यह नहीं माना जा सकता। अगर यह होता तो मध्यप्रदेश में कांगे्रस की सरकार के समय भी किसानों के आंदोलन हुए, उसमें भी अभी से ज्यादा किसान मारे गए। यह भी सत्य है कि उस समय की खेती से आज की खेती में सुधार हुआ है। इसलिए कांगे्रस को ऐसी राजनीति करने की बजाय समाधान का रास्ता निकालने के लिए सरकार का साथ देना चाहिए। यही समय की आवश्यकता है।




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सुरेश हिन्दुस्थानी
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(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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