आलेख : हुसैन की कुर्बानी ज़ुल्म के खिलाफ आवाज है - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 30 नवंबर 2017

आलेख : हुसैन की कुर्बानी ज़ुल्म के खिलाफ आवाज है

hussain-sacrifice-and-karbala
कर्बला का नाम सुनते ही मन खुद-ब-खुद कुर्बानी के ज़ज्बे से भर जाता है। जब से दुनिया का वजूद कायम हुआ है, तब से लेकर अब तक न जानें कितनी बस्तियां बनीं और उजड़ गईं, लेकिन कर्बला की बस्ती के बारे में ऐसा कहते हैं कि यह बस्ती सिर्फ 8 दिनों में तबाह कर दी गई। 2 मुहर्रम 61 हिजरी में कर्बला में इमाम हुसैन के काफिले को जब याजीदी फौज ने घेर लिया तो इमाम हुसैन  ने अपने साथियों से यहीं खेमे लगाने को कहा और इस तरह कर्बला की यह बस्ती बसी।

इस बस्ती मे इमाम हुसैन के साथ उनका पूरा परिवार और चाहने वाले थे। बस्ती के पास बहने वाली फुरात नदी के पानी पर भी याजीदी फौज ने पहरा लगा दिया। 7 मुहर्रम को बस्ती में जितना पानी था, सब खत्म हो गया। 9 मुहर्रम को याजीदी कमांडर इब्न साद ने अपनी फौज को हुक्म दिया कि दुश्मनों पर हमला करने के लिए तैयार हो जाए। उसी रात इमाम हुसैन ने अपने साथियों को इकट्ठा किया। तीन दिन का यह भूखा, प्यासा कुनबा रात भर इबादत करता रहा।इसी रात रानी 9 मुहर्रम की रात को इस्लाम में शबे आशूर के नाम से जाना जाता है। दस मुहर्रम की सुबह इमाम हुसैन ने अपने साथियों के साथ नमाज़-ए-फ़र्ज अदा किया। इमाम हुसैन की तरफ से सिर्फ 72 ऐसे लोग थे, जो मुक़ाबले में जा सकते थे। यजीद की फौज और इमाम हुसैन के साथियों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें इमाम हुसैन अपने साथियों के साथ नेकी की राह पर चलते हुए शहीद हो गए और इस तरह कर्बला की यह बस्ती 10 मुहर्रम को उजड़ गई।इसी लिए सारी दुनियां कर्बला को हज़रत इमाम हुसैन की ज़ात से जानती है।तभी से सैकड़ों सालों से सारी दुनियां मे मोहर्रम के महीने मे या हुसैन की सदा गूंजती आ रही है।

कुछ लोग कहतेँ है कि कर्बला सत्‍ता के लिए दो शहज़ादों की एक जंग थी ।लेकिन नही जंग तब होती है जब दोनो तरफ से बराबर ताकतेँ होती हैँ।लेकिन यहां तो यज़ीद के पास लाखोँ की फौज और दूसरी तरफ महज़ 72 अपराध ।दरअसल यज़ीद अपने निरंकुश और जनविरोधी शासन पर हुसैन की सहमती की मुहर लगवाना चाहता था।एक विशाल साम्राज्य का बादशा तो वह बन ही चुका था ।लेकिन उसका मकसद था कि हुसैन उसे अपना समर्थन दे दे ताकि राज्य मे फैली अराजकता ,व्यभिचार,जनता पर अत्याचार और बेईमानी को उस समय के मुसलमान भी सही मानलेँ।असल मे यज़ीद को हुसैन की ज़रूरत थी इसी लिए उसने अपने मकसद के लिए ज़ुल्म की वह सारी हदें पार कर दी जिसकी मिसाल इतिहास मे दूसरी नही मिलती है।यज़ीद ने इमाम हुसैन सहित कर्बला के हर शहीद के साथ हद दर्जे की बदसलूकी की और राक्षसी अमल को अंजाम दिया ।  हुसैन रसूल के नवासे होने के साथ -साथ वक्त के इमाम भी थे ।इस लिए हुसैन की रज़ामंदी से एक तो ये बातेँ इस्लाम के दायरे मे आ जाती दूसरे भविश्य  मे इन बातोँ का विरोध करने वाले किसी भी आदमी या समूह को यज़ीद रसूल का हवाला दे कर आसानी से कुचल देता ।यज़ीद ने पहले हुसैन को बैयत यानी सहमती का पैग़ाम भिजवाया ।जब हुसैन ने यज़ीद की अराजकता और निरकुंशता पर सहमति देने से इंकार कर दिया तो उसने आंतकवाद का सहारा लिया।बल पूर्वक हुसैन को मजबूर करना चाहा लेकिन वह झुके नही और अपने साथियोँ के साथ शहादत का जाम पीने को सहर्ष तैयार हो गये।जुल्मे की बानगी देखिये अरब का तपता रेगिस्ताँन उपर से हुसैन और उनके साथियों का तीन दिन तक पानी बंद कर दिया गया था जिसमे 6 माह के मासूम अली अज़गर भी शामिल थे। हदीसोँ मे ज़िक्र आया है कि हुसैन ईश्वर को चाहने वाले थे । हुसैन अगर यज़ीद के खिलाफ बद दोआ के लिए हाथ उठा देते तो वह अल्लाह के कहर से फनां हो जाता ।उसकी फौज नेस्त  नाबूत हो जाती । अपनी ऐड़ियां ज़मीन पर रगड़ देते तो पानी के झरने फूंट पड़ते ।लेकिन हुसैन आखिरी नबी की सुन्नत ,इंसानियत, सच्चाई और इंसाफ का संदेश संसार को देना चाहते थे।उनका मकसद था कि यज़ीदी आंतकवाद दुनियां से मिट जाये और कोई दूसरा इंसानियत का दमन ना कर सके ।यही वजह थी कि उनका आंदोलन तमाम भौगोलिक और ऐतिहासिक सीमाऔं को लांघता हुआ हर ज़माने के लिए प्रभावी हो गया।कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि हुसैन का भरत से लगाव था और  उन्‍होनें यज़ीद से भारत जाने देने  की आज्ञा भी मांगी थी लेकिन उसका मकसद तो सिर्फ इंसानियत के पैकर को मिटाना था।

आज के संदर्भ मे अगर कर्बला को देखा जाये तो वह सामाजिक रिश्तोँ की पूरी प्रयोगशाला दिखती है।दरअसल कर्बला मे इमाम हुसैन के 72 साथियोँ की ही शहादत हुयी ।लेकिन उनके इन मुट्रठी भर साथियों मे हर वह चरित्र और नाते रिश्‍ते मौजूद थे जिसकी ज़रुरत एक पूर्ण समाज के र्निमाण मे पड़ती है।उनके काफिले मे हर रिश्ते  मौजूद थे और सब मे शहादत के लिए पहले जाने की होड़ मची थी उसका पूरा चित्रण करना तो यहां मुमकिन नही है।इमाम हुसैन के साथ उनके जांबाज़ भाई हज़रत अब्बास और नवविवाहित भतीजे जनाबे कासिम ने तो शहादत दी ही ।उनके दोस्तोँ ,मानने वालोँ और अज़ीज़ोँ ने भी शहादत का जाम पिया।लेकिन सबसे अहम बात ये रही कि बादशाह यज़ीद के ताकतवर सरदार हज़रत हुर भी अपनी इलाकेदारी और सरदारी छोड़ कर हुसैन के ख़ैमे मे चले आये थे।इतिहास गवाह है कि इन्ही हज़रत हुर को यज़ीद ने इमाम हुसैन के काफिले को रोकने और घेर कर कर्बला तक लाने की ज़िम्मेदारी सौपी थी ।जिस पर हुर ने पूरी तरह अमल किया और इमाम के काफिले को घेर कर कर्बला तक लाये।लेकिन अखिरी वक्त पर वह सोते से जागे और उन्हेँ लगा कि इमाम का रास्ता हक की तरफ जा रहा है और यज़ीद जिस राह पर है वह दीन ,समाज और मानवता के विरुद्ध है। रवायतोँ मे मिलता है कि हुर जब इमाम हुसैन से मिलने आये तो एक गुनाहगार की तरह अपने हाथोँ को पीछे बांध कर आये थे ।लेकिन हुसैन ने ना केवल उनको बल्कि अपने दूसरे चाहने वालोँ को रात के अंधेरे मे वापस जाने की मोहलत भी दी।ये जानते हुए भी कि कुछ घंटों बाद उनकी शहादत तय है फिर भी  हुसैन का कोई साथी वापस नही लौटा वफादारी की ऐसी दूसरी मिसाल इतिहास मे नही मिलती है।हुसैन कर्बला के मैदान मे प्यासे शहीद कर दिये गये थे।यकीनन इससे साबित होता है कि कर्बला एक अज़ीम क़ुर्बानी ज़रूर थी ।लेकिन इससे ईश्वर ने इमाम हुसैन के ज़रिए इंसान को वह संदेश प्रयोग करके दिखवा दिए जिसका ज़िक्र पवित्र कुरान मे किया गया है और जिसे आखिरी नबी ने दुनियां को बताया।इंसान अगर मोहम्‍मद मुस्तफा स.अ.स. की सुन्नसत पर पढ़ कर अमल ना कर सके तो कर्बला और हुसैन की तरफ देख कर उसे अपने जीवन मे अपना सके ।वास्तव मे कर्बला समाज को जोड़ने की प्रेरणा हैँ।कर्बला मानवता के लिए नसीहत है।कर्बला आतंकवाद और ज़ुल्म  के खिलाफ एक आवाज़ है।अब जब भी अत्याचार के मुकाबले न्याय की सुरक्षा की बात आयेगी तो हर ज़बान पर हुसैन का नाम अवश्य़ आयेगा।कर्बला का दर्द अत्याचार से थके हुए लोगों को आज भी उर्जा प्रदान करता है।तभी तो महात्मा गांधी से लेकर रविंद्रनाथ टैगोर,स्वामी विवेकानंद,जवाहर लाल नेहरू जैसी महान शक्सियतों ने इमाम हुसैन की कुर्बानी को सभी धर्मोँ के लिए आदर्श जीवन की राह बताया है।महान संत गुरू गोविंद सिँह ने कहा था कि हुसैन ज़मीर का नाम है।शायद आज भारत के हर हिस्से में इमाम हुसैन का ग़म बहुसंख्यक वर्ग में उसी शिद्दत से मनाया जाता जिस तरह से मुसलमान मनाते हैं।कई इलाके तो ऐसे हैं जहां हिन्दुओं के जरिए ग़मे हूसैन मनाने का सिलसिला करीब सौ साल से चला आ रहा है। दुर्गा पूजा और मोहर्रम साथ साथ पड़ने के बाद भी कई स्थानों ताज़िए और मां दुर्गा की प्रतिमा अगल बगल रखी गई।मेरा विश्वास ये कहता है कि कर्बला से हमें सामाजिक एकता का भी संदेश मिलता है।यानी  हुसैन की कुर्बानी को धर्म और राष्‍ट्र की सीमाओं मे नही बांधा जा सकता है।इसमे कोइ शक नही कि हुसैन हर धर्मो के आदर्श है और उनका जि़क्र आते ही हर आखें नम हो जाती है।कर्बला को  जानने ,समझने के बाद क्या अब भी ये सवाल नही पैदा होता की आज सारी दुनियां जिस इसलामी आतंकवाद का हवाला देती है उसका सच्चें और न्याय प्रिय मुसलमानों से क्‍या लेना देना ?रसूल की सुन्‍नत और हुसैन के आदर्शों पर चल कर आज आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है।क्यो कि  इस्लाम मे मानव जीवन की बड़ी अहमियत है।यह कर्बला और यह मोहर्रम हमे हमेशा याद दिलाएगा की ज़ुल्मी चाहे जितना बड़ा हो,चाहे जितना खूँखार हो और हम चाहे जितने कम हों,अगर ईमानदारी से उसके खिलाफ हैं तो उसका नेस्तनाबूद होना तय है। जब सच के लिए झूठ के आगे झुकने की मजबूरी आन पड़े तो कर्बला को देखना,सर कटकर भी बहुत बार सच को ज़िंदा रखता है।बस यह तय कर लेना की सच ज़्यादा ज़रूरी है या आप।।जिस दिन यह फैसला कर लेंगे उस दिन कर्बला का ताबीज़ पा जाएँगे।





*शाहिद नकवी *

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