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मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

विशेष आलेख : गलती का अधिकार मिला तो भारत में क्या होगा

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नागरिकों को गलती करने का अधिकार देना सचमुच साहस की बात है लेकिन क्या फ्रांस की तरह भारत में भी नागरिकों को गलती करने का अधिकार दिया जा सकता है? पहली बात तो भारत में ऐसा संभव नहीं है और अगर ऐसा हुआ भी तो इसकी परिणिति की कल्पना सहज ही की जा सकती है? फ्रांस के लोग कानून की अहमियत समझते हैं। वे गलती करते वक्त भी सौ बार सोचेंगे लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। यहां लोग गलतियां भी करेंगे और स्वीकारेंगे भी नहीं। अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरों पर फोड़ने की राजनीति तो यहां रोज ही होती है। यहां आदमी सहूलियत का पंजा पहले पकड़ता है और इसके बाद कब पहुंचे मतलब हाथ के अंतिम छोर तक पहुंच जाता है, पता ही नहीं चलता। यहां गलती करने में भी सुविधा का संतुलन देखा जाता है। रियायत को लोग अधिकार समझ लेते हैं।  भारत के लोग गलती करने से इसलिए बचते हैं क्योंकि उन्हें डर होता है कि वे दंडित किए जा सकते हैं लेकिन जब उन्हें यह ज्ञात हो जाए कि गलती करना उनका अधिकार है तो फिर यहां गलतियों की बाढ़ आ जाएगी। विदेशों में तो प्रशासन यह तय भी कर लेगा कि गलती अनजाने में हुई है या जान बूझकर, लेकिन भारत में जांच में भी गलती को अधिकार मान लिया जाएगा। पहली गलती माफ हो जाएगी, इस विचार के दृढ़ होते ही देश में अपराधों की बूम आ जाएगी। यह सच है कि गलती आदमी से ही होती है। भारत के बुद्धिजीवी हमेशा इस बात की दलील देते रहे हैं कि जो काम करेगा, गलती उसी से होगी, जो काम ही नहीं करेगा, उससे गलती क्या खाक होगी। भारत में तो क्षमा को बड़प्पन की निशानी कहा गया है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को अपराध।’

  भारत में हर अपराध की सजा दंड ही नहीं है। अदालतें भी निर्णय देते वक्त इस बात का नीर-क्षीर विवेक करती हैं कि अपराध जान बूझकर किया गया है या गलती से हो गया है। दंड देते वक्त देश के विद्वान जज इस पर चिंतन जरूर करते हैं। ऐसे में नहीं लगता कि भारत में अलग से गलती का अधिकार देने वाला कोई कानून बनाने की जरूरत भी है। यह अलग बात है कि कभी दुनिया भारत की ओर देखती थी और आज भारत दुनिया को ओर देखता है। इस प्रवृत्ति को बदलने की जरूरत है। हम अपने भाग्य के निर्माता क्यों नहीं बन सकते? और यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि हम औरों के प्रति उदार और अपने प्रति कठोर नहीं हों। गलतियों पर हर आदमी की जीरो टालरेंस की नीति होनी चाहिए। गलतियों पर समाज ध्यान दे या न दे, अदालतों से सजा मिले या न मिले लेकिन अगर गलतियों को लेकर खुद के मन में पीड़ा और पश्चाताप का हाहाकार न हो तो समझा जाना चाहिए कि हम अभी मनुष्य कहलाने योग्य नहीं बन पाए हैं। आचार्य रजनीश ने लिखा है कि गलती भी करें तो होश में रहकर। होश में रहकर गलती नहीं हो सकती है। गलती करने के लिए होश की नहीं, जोश की जरूरत होती है। विकथ्य है कि फ्रांस की इमैनुएल मैक्रों सरकार ने लोगों को गलती करने का अधिकार दिया है। इसके लिए उसने बाकायदा कानून भी बना दिया है। शर्त यह रखी गई है कि गलती अच्छी नीयत से की जाए। राइट टू मेक मिस्टेक नामक इस कानून को फ्रांसीसी सरकार विश्वसनीय समाज की आधारशिला मान रही है। मैक्रों ने चुनाव प्रचार के दौरान इस तरह का कानून बनाने का वादा किया था। इस लिहाज से फ्रांस की नेशनल असेंबली में सांसदों ने पूर्व कानून में संशोधन किया था। इस कानून के तहत सरकारी कामकाज के दौरान की गई पहली गलती माफ कर दी जाएगी। प्रशासन चाहे तो इस बात की जांच कर सकता है कि गलती के पीछे नीयत अच्छी रही या नहीं रही। स्वास्थ्य, पर्यावरण, सुरक्षा जैसे कुछ मामले को इस कानून से अलग रखा गया है।

 संभव है कि विपक्षी दलों को फ्रांस सरकार का यह प्रयोग रास भी आए और वे देर-सवेर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार पर इस तरह का कानून बनाने का दबाव भी बनाएं। ऐसे में क्या सरकार को देशवासियों को गलती का अधिकार देने वाला कानून बनाना चाहिए। गलती करनी चाहिए या नहीं, यह अपने आप में बड़ा सवाल है। गलती जानबूझकर हुई है या अनजाने में, यह हमेशा विचार का विषय रहा है। भारतीय बुद्धिजीवियों का गलतियों को लेकर हमेशा उदारवादी रवैया रहा है। उनका मानना है कि गलती मनुष्य से ही होती है। गलतियों से हमें सुधरने का मौका मिलता है। जो घोड़े पर सवार होता है, गिरता भी वही है। इस दलील का स्वागत किया जाना चाहिए। करके सीखने का जो सिद्धांत है, उसकी भी आत्मा यही है कि गलतियों से ही व्यक्ति सीखता है। अब सवाल उठता है कि क्या इसे कानूनी जामा भी पहनाया जाना चाहिए, जैसा कि फ्रांस की मौजूदा सरकार ने किया है।   भारत में लोग गलतियां न करें। गरुड़ पुराण में बताया गया है कि यमलोक में किस गलती की क्या सजा है। अगर आदमी गरुड़ पुराण पढ़ ले या सुन ले तो वह गलतियों से लगभग तौबा कर लेगा लेकिन इस देश में बहुत बड़ा तबका ऐसा भी है जो इसे भय का कारोबार ठहराने में भी संकोच नहीं करता। पूरा भारतीय धर्मदर्शन देश के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्वास्थ्य के दृष्टिगत पथ्य का काम करता है। वहां यह बात दृढ़ता से कही गई है कि ‘सचिव, वैद्य, गुरु तीजि जो प्रिय बोलहिं भय आस। राज, धर्म, तन तीनि कर होंहि बेगहि नास।’ आज सचिव, चिकित्सक और गुरु क्या कर रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। बुनियाद में ही कमी हो तो भवन की मजबूती की उम्मीद की भी कैसे जा सकती है?

 जब पूरा देश 69 वां गणतंत्र दिवस मना रहा था, तब  कांग्रेस, एनसीपी समेत देश के 18 राजनीतिक दल मुंबई में ‘संविधान बचाओ’रैली निकाल रहे थे। महाराष्ट्र में पिछले महीने आक्रामक प्रदर्शन हुए थे। विवाद को मराठों और दलितों के बीच मतभेद को जोड़कर देखा गया था। पता चला कि गुजरात कांग्रेस के दलित विधायक जिग्नेश मेवाणी और पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाने वाले एक मुस्लिम छात्रनेता उमर खालिद की भडकाउ टिप्पणियों के चलते महाराष्ट्र के कई जिलों में तनाव के हालात बने थे। यह बात खुलकर सामने आ गई है कि चाहे गुजरात का पाटीदार आंदोलन हो या उना का कथित दलित उत्पीड़न कांड, इसके मूल में कांग्रेस और उसके विदेशी कनेक्शन की अहम भूमिका रही। ‘संविधान बचाओ’रैली को पहले मराठा और फिर दलित आंदोलन से उपजे गुस्से को विपक्ष भुनाना चाहता है। क्या यह गलती नहीं है? 

 अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इस तरह की गलती को किए जाने का अधिकार क्या विपक्ष को कानूनी तौर पर दिया जाना चाहिए। जो फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला कश्मीर के पत्थरबाजों के मौलिक अधिकारों का वास्ता देते हैं। जो पाक अधिकृत कश्मीर को पाक का हिस्सा बताते हैं, यह जानते हुए भी है कि वह भारत का हिस्सा है, वे किस मुंह से संविधान को बचाने की बात करते हैं। उमर अब्दुल्ला कह रहे हैं कि देश को बचाने के लिए संविधान को बचाना होगा। उन्हें हरियाणा के स्कूल बस में बैठे बच्चों की सुरक्षा की चिंता है लेकिन जम्मू-कश्मीर के स्कूलों पर हो रही पाकिस्तान की गोलीबारी उन्हें नजर नहीं आती। उन्हें कश्मीरी पत्थरबाजों के मानवाधिकार नजर आते हैं लेकिन कश्मीर बचाने में जुटी सेना के मानवाधिकार उन्हें कभी नजर नहीं आए। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रेसिडेंट सांसद असदुद्दीन ओवैसी को ट्रिपल तलाक को प्रतिबंधित करने वाला बिल मुस्लिमों के खिलाफ साजिश नजर आता है। ओवैसी मानते हैं कि कानून बनाकर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध नहीं रोके जा सकते। दहेज प्रथा को गैरकानूनी करार देने से क्या दहेज के मामले कम हो गए? इसका मतलब तो यह हुआ कि देश में कोई कानून होना ही नहीं चाहिए। जब कानून है तो ये हालात हैं, नहीं होगा तो क्या होगा? 

 कांग्रेस नेताओं को लगता है कि कोई संगठन संविधान और उसकी मूल सिद्धांतों को बदलने की कोशिश कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐलानिया तौर पर इस बात को कई बार कह चुके हैं कि भारत का एक ही धर्म है राष्ट्रधर्म और एक ही धर्मग्रंथ है और वह है संविधान। इसके बाद भी गणतंत्र दिवस पर संविधान बचाओ रैली निकालना क्या जायज है। रैली ही निकालनी थी तो शरद यादव बिहार में निकाल सकते थे। उमर अब्ुल्ला जम्मू कश्मीर में निकाल सकते थे। हार्दिक पटेल गुजरात में निकाल सकते थे। 18 दलों के नेता महाराष्ट्र में भी ऐसा करने को क्यों विवश हुए? इस राजनीतिक साजिश को गलती माना जाएगा या नहीं, यह तो वक्त तय करेगा और इस देश की जनता तय करेगी लेकिन इन षड़यंत्रों से देश मजबूत तो नहीं होता।

  यह सच है कि भाजपा ने तिरंगा रैली निकालकर अपने विरोधियों को जवाब दिया। इसे संविधान सम्मान रैली का नाम दिया गया। गणतंत्र दिवस पर प्रभात फेरी और तिरंगा रैली निकालने का सिलसिला आजादी से लेकर आज तक चला आ रहा है। देश में पाकिस्तान का झंडा फहराने और भारत माता की जय बोलने वालों पर हमले करने वालों को भी विपक्षी दल गलत नहीं मानते। इसमें भी उन्हें सत्तारूढ़ दल की नीतियां ही गलत लगती हैं। हर राज्य में कुछ ऐसे भी क्षेत्र हैं जिन्हें मिनी पाकिस्तान कहा जाता है। यहां इसी देश के लोग रहते हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देशद्रोह का खेल खेलते हैं। लोकतंत्र तो तब मजबूत होता है जब देश के नागरिक विश्वसनीय हों। ‘अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता’ वाली रीति-नीति तो पतन-पराभव की ही वजह बनती है। अपने लिए तो सभी काम करते हैं लेकिन देश के लिए काम करने वालों की तादाद अंगुलियों पर गिनने भर है।   इस देश में कड़े कानून और उस पर अमल कराने वाले सख्त प्रशासक ही चाहिए। लोकतंत्र के चारों ही स्तंभों पर अंगुलियां उठ रही हैं। इस पर ध्यान देने की जरूरत है। देश का हर नागरिक एक दूसरे को सुधारने के लिए चेष्टारत है। जब तक हर इंसान खुद नहीं सुधरेगा, तब तक देश का सुधार कैसे होगा? हम सुधरेंगे, युग सुधरेगा। बदलाव की शुरुआत तो खुद से ही करनी होगी। जब तक हमारी जिंदगी में अच्छी किताबों का समावेश नहीं होगा तब तक गलतियां होती रहेंगी।   




--सियाराम पांडेय ‘शांत’--

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