विशेष आलेख : आखिर मुखिया कौन - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

विशेष आलेख : आखिर मुखिया कौन

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मील का पत्थर कहे जाने वाले 73वें संशोधन के तहत पंचायती राज में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की गयी। आशा थी कि महिलाएं पंचायत और गांव के विकास में अपनी भूमिका निभाएंगी और इस तरह गांवों का चहुंमुखी विकास होगा। किन्तु पितृसत्ता के शिकंजे में जकड़ी हुई महिलाएं अपने इस अधिकार का पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं कर पा रही हैं। देश के विभिन्न इलाकों में इस तरह की कहानियां बिखरी मिल जाएंगी। फिलहाल गुजरात के अहमदाबाद के धंधुका तालुका की बात करते हैं। इस तालुका की ग्राम पंचायतों में अधिकांशतः ऐसी महिलाएं सरपंच की भूमिका में हैं जिन्हें सरपंच बनने की तो अनुमति है पर पंचायत में बैठकर पंचायत का नेतृत्व करने या पंचायत के काम करने की नहीं। इन महिला सरपंचों को घर के बाहर सार्वजनिक स्थलों पर जाने अथवा अनजान पुरुषों से बात करने की मनाही है। पंचायत के सभी काम उनके परिवार के पुरुषों के द्वारा किया जाता है। वह केवल कागजों पर दस्तखत करने या अंगूठा लगाने भर के लिए सरपंच बन पाती हैं। धंधुका के गांवगुंजार, कडोल, कंजिया, कोथादिया गल्साना और मोरेसिया गाँवों की सरपंच महिलाएं हैं। गुंजार ग्राम पंचायत की सीट 2017 में महिलाओं के लिए आरक्षित थी और 35 वर्षीया जया बेन 2017 में 250 वोटों के साथ जीतकर सरपंच बनीं। जया बेन के परिवार में दो बच्चों के अलावा उनके पति हैं। जया स्वयं तो अशिक्षित  हैं पर उनके पति कक्षा 6 तक पढ़े है। 4000 की आबादी वाले इस ग्राम पंचायत में अधिकतर लोग हीरा घिसने का काम करते हैं। 

हालांकि जया की चुनाव में प्रतिभागिता करने की कोई इच्छा नहीं थी पर यह गांव वालों का दबाव था कि उन्हें चुनाव में जाना पड़ा। जया के पति कांजीभाई जादव गुंजार ग्राम पंचायत के पहले उप-सरपंच रह चुके हैं और वर्तमान में सरपंच पति की भूमिका में हैं। जया के पति ने ही उनका नामांकन भी भरा और उनके लिए प्रचार भी किया। जया सरपंच बनीं पर उनको सरपंच के कामों के बारे में कोई जानकारी नहीं है। उन्होंने बताया कि पंचायत की बैठकों में उनके पति ही जाते हैं और गांव के अधिकतर मामले वही निपटाते हैं। भविष्य के कामों और गांव की ज़रूरतों के बारे में भी जयाबेन को कोई जानकारी नहीं है। उन्होंने बताया कि ‘‘ पंचायत के काम काज के बारे में सारी जानकारी मेरे पति देंगे क्योंकि वही सारा काम  देखते हैं और मैं तो तब ही पंचायत जाती हूँ जब मुझे कहीं अंगूठा लगाना होता है।“ कांजीभाई जादव (सरपंच पति) ने बताया कि उनकी पत्नी के कार्यकाल में गाँव की बच्चियों के लिए परिवहन विभाग में बात करके एक बस का इन्तजाम कराया  ताकि बच्चियों को स्कूल जाने में कोई परेशानी न आए। पंचायत में रोड व गटर का निर्माण कराया गया। इसी धंधुका तालुका की एक और पंचायत है कोथाडिया। यह भी 2017 में महिला सीट थी। चुनाव में 189 वोटों से जीतकर यहां की सरपंच बनीं हंसाबेन मकवाना। हंसाबेन मकवाना बुनकर समुदाय से हैं। इनकी उम्र 36 साल है व इन्होंने कक्षा 3 तक शिक्षा हासिल की है। हालांकि हंसाबेन पढ़ लिख नहीं सकती हैं। इनके गांव की आबादी एक हज़ार है। तीन बच्चों, पति व हंसाबेन को मिलाकर परिवार में कुल पांच सदस्य हैं। बेहद सरल जीवन बिताने वाले इस परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। हंसाबेन खुद खेतों में मज़दूरी करती हैं व पति बिजली का काम करते हैं। इस तरह दोनों से होने वाली आमदनी से परिवार का खर्च चलता है।  

कोथाडिया में अधिकतर दरबार समुदाय के लोग रहते हैं। उनके कहने पर ही हंसा बेन को पंचायत चुनाव में सरपंच पद का उम्मीदवार बनाया गया। हंसा अपने घर के कामों में ही व्यस्त रहती हैं, जबकि उनकी सरपंची के निर्णय उनके पति गाँव वालों के कहने के अनुसार ही लेते है। हंसाबेन के मुताबिक वह अभी तक अपनी सरपंच की कुर्सी पर भी नहीं बैठी हैं। हालांकि उनके कार्यकाल में पंचायत में विकास के काम हुए हैं। पर हंसाबेन को इस बारे में जानकारी नहीं कि गांव में 200 लोगों के लिए गैस चूल्हे के लिए फार्म भरवाए गए, 80 लोगों के गैस के चूल्हे आ गए हैं और बाकी लोगों को दिलवाने की योजना है। आवास योजना के तहत लोगो के लिए रहने के लिए घर बनवाने की बात भी कार्य योजनाओं में शामिल है। गाँव में आगंनबाड़ी,पंचायत भवन की मरम्मत, गाँव में नालियों और सड़क का निर्माण का काम हुआ। पर सभी कार्यो को उनके पति के ज़रिए किए गए। हंसाबेन की एक सरपंच के तौर पर इसमें न कोई राय है न ही कोई जानकारी। धंधुका तालुका की कोटड़ा ग्राम पंचायत सीट भी 2017 में महिलाओं के लिए आरक्षित थी।  मावू धनजी राठौर यहां की सरपंच बनीं। माबू के परिवार में उनके पति के अलावा दो बच्चे और सासू माँ हैं। कोटड़ा ग्राम पंचायत में 6000 लोग हैं जिसमें ठाकुर, राठौर, कोड़ी पटेल, भरवाड, और पगी इत्यादि जातियां हैं। केवल पांच ही घर भरवाड समुदाय से है जिसमें माबू बेन का परिवार भी एक है। कक्षा 6 तक पढ़ी माबूबेन केवल पंचायत के कागजों पर हस्ताक्षर करने भर की सरपंच हैं। उन्हें पंचायत व पंचायत के कामों के बारे में कोई भी जानकारी नहीं है। 

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दो घंटा उनके घर में गुज़ारने के बाद भी माबू बहन पंचायत के कामों के बारे में कुछ नहीं बता सकीं। पूरे इंटरव्यू के दौरान वह ज़मीन पर बैठी रहीं और हर सवाल पर वह अपने पति धनजी भाई की ओर देखतीं फिर शांत होकर सब कुछ सुनती रहतीं। माबू धनजी से बात करना भी आसान नहीं था। उनके पति ने शुरू में कहा कि वह खेत गयी हैं और जो भी सवाल हों वह धनजीभाई से करें क्योंकि वह केवल हस्ताक्षर करती हैं बाकी सारे काम उनके पति द्वारा ही किये जाते हैं। धनजी भाई का कहना था कि जब तक वह बैठे हैं माबू काम करके क्या करेगी ? उसे कुछ काम नहीं आता और वास्तव में वह ही सरपंच हैं। माबू के चुनाव में खड़े होने के पीछे प्रेरणा और अन्य निजी प्रशनों का उत्तर भी उनके पति ने ही दिया। उन्होंने कहा कि यदि सामान्य सीट होती तो वह स्वयं चुनाव में खड़े होते परन्तु महिला सीट होने की वजह से उन्होंने माबू को चुनाव में खड़ा किया। उसका नामांकन भरा और सभी दस्तावेज जमा किये। दरअसल माबू की तो चुनाव में जाने की कोई इच्छा ही न थी। 

माबू जीतीं इसलिए कि वो धनजीभाई की पत्नी हैं। धनजी भाई राठौर ने बताया कि उन्होंने गांव में पानी की व्यवस्था करने के लिए अपने निजी कोष से धन की व्यवस्था की और गांव को पानी के संकट से मुक्त किया। इसलिए गांववालों ने उनकी पत्नी को वोट दिया अन्यथा असली सरपंच तो वही हैं। कंजिया ग्राम पंचायत की सरपंच रेखाबेन के पति ने बताया कि रेखाबेन के कार्यकाल में उन्होंने अपने प्रयासों से 84 लाख रूपए की लागत से सड़क निर्माण का कराया गया, आंगनबाड़ी की मरम्मत व उसकी हालात में सुधार करवाया गया। आंगनबाड़ी स्टाफ को स्थायी कराया गया। मोरेसिस गाँव की लड़कियां शिक्षा के लिए बस से धंधुका तालुका जाती हैं। रास्ते में दूसरे गाँव के लड़कों द्वारा उनके साथ छेड़छाड़ की घटनाएं होती थीं। सरपंच के पति ने तालुका दफ्तर में अर्जी लगाई लिहाज़ा अब मोरेसिस गाँव से धन्दुका तालुका तक बस सीधी जाती है। इस तरह छेड़-छाड़ की घटनाओं पर रोक लगी ।

कुछ महिला सरपंचों से बातचीत में यह बात सामने आयी कि पहली बार सरपंच बनने वाली  महिला को लगातार प्रशिक्षण देने की जरुरत है जबकि व्यवस्था केवल एक ही प्रशिक्षण की है। उसमें भी उनको गांधीनगर जाकर प्रशिक्षण लेना होता है जिसमें सरपंचों और महिलाओं की संख्या बेहद कम रहती हैं। जयाबेन कहती हैं कि ‘‘महिलाओं को इतनी दूर उनके घर वाले जाने ही नहीं देते और इस सरकारी प्रशिक्षण में सरकार के पास महिला सरपंच पतियों के फोन नम्बर होते हैं जिससे सारी बातचीत उन्हीं तक सीमित रहती है और उनको प्रशिक्षण के बारे में पता ही नहीं चलता।  मावूबेन बस एक बात बोल सकीं कि अगर उनको भी प्रशिक्षण लगातार मिले तो उनको भी जानकारी हो सकती है कि एक सरपंच के तौर पर उनकी जिम्मेदारियां क्या हैं या पंचायत की समस्याओं को लेकर किस विभाग के पास जाएँ। मावू की बातों से ऐसा भी निकल कर आया कि यदि उनको इस बारे में जानकारी होगी तो उनके घर के पुरूष सदस्य उनके कामों में दखलंदाजी कम या बंद कर देंगे इसके साथ ही वह भी अपने कामों को लेकर आत्मनिर्भर हो जाएँगी। 




(सुनीती शर्मा)

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