विशेष : भारतीय इतिहास का गुंजायमान चरित्र महाराणा प्रताप सिंह - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 13 जून 2018

विशेष : भारतीय इतिहास का गुंजायमान चरित्र महाराणा प्रताप सिंह

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भारतीय इतिहास में राजपूताने का प्रारम्भ से ही गौरवपूर्ण स्थान रहा है और इस राज्य के इतिहास में वीरता, त्याग, बलिदान तथा स्वतन्त्रता प्रेम का एक अद्भुत समन्वय दिखायी देता है। मध्यकाल में यहां के शासकों तथा जनता के द्वारा अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए मुसलमान सुल्तानों के विरुद्ध किये गये संघर्ष इतिहास में अद्वितीय माने जाते हैं। यहां के रणबाकुरों ने देश, जाति तथा स्वाधीनता की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने में कभी संकोच नहीं किया। उनके इस त्याग पर संपूर्ण भारत को गर्व रहा है। वीर रस रूचिरा इस भूमि में राजपूतों के छोटे-बड़े अनेक राज्य रहे, जिन्होंने भारतीय इतिहास के अनेक उज्जवल अध्यायों की रचना की। इन्हीं राज्यों में मेवाड़ का अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है, जिसमें इतिहास के गौरव वप्पारावल, खुमाण प्रथम, महाराणा हम्मीर, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा तथा भारतीय इतिहास के गुंजायमान चरित्र चरितनायक वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जैसे इतिहास निर्माता महान् वीरों ने जन्म लिया। इसी वीर भूमि पर जन्म लेने वाले मेवाड़ मुकुटमणि महाराणा प्रताप का नाम लेते ही अनायास ही देशप्रेम, त्याग, बलिदान, संघर्ष आदि गुणों के प्रतीक तथा भारतवासियों के लिए श्रद्धा तथा अभिमान का विषय बन चुके मुगल साम्राज्य की सत्ता को चुनौती देने वाले वीरता के ओज से परिपूर्ण एक अप्रतिम वीर योद्धा का बिम्ब हमारे मस्तिष्क में मूर्त रूप धारण कर नाच उठता है और उनके द्वारा विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी स्वतंत्रता हेतु किये गये संघर्ष की शौर्यगाथा मनोमस्तिष्क में गुंजायमान हो उठती है। मेवाड़ नरेश होते हुए भी उनके जीवन का अधिकांश भाग वनों और पर्वतों में इधर-उधर भटकते तथा मुगलों से सतत संघर्ष करते हुए व्यतीत हुआ। अपनी अदम्य इच्छा शक्ति और अपूर्व रण कौशल से अन्ततः वे मेवाड़ को स्वाधीन कराने में समर्थ हुए। भौतिक सुख-लाभों की उपेक्षा करते हुए मातृभूमि की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए उनके द्वारा किये गये अनवरत संघर्ष इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है। सदैव अपने एवम अपने परिवार से उपर प्रजा को मान देने वाले महाराणा प्रताप एक ऐसे राजपूत थे जिसकी वीरता को अकबर भी नमन, सलाम करता था । महाराणा प्रताप युद्ध कौशल में तो निपुण थे ही, वे एक भावुक एवं धर्म परायण मनुष्य भी थे। उनके इन्ही गुणों के कारण भारत सरकार के द्वारा महराणा प्रताप के नाम से डाक टिकट जारी किया गया परन्तु सम्पूर्ण विश्व सहित भारत के इतिहासकारों के द्वारा उन्हें इतिहास में समुचित सम्मान नहीं दिया गया और आज भी वे इतिहास में उचित स्थान प्राप्ति हेतु संघर्षरत्त नजर आते हैं। 

इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर महाराणा प्रताप सिंह (बैशाख शुक्ल तृतीया रविवार विक्रम संवत 1597 तदनुसार 9 मई 1549–29 जनवरी 1597) उदयपुर, मेवाड में शिशोदिया राजवंश के राजा थे। उन्होंने कई वर्षों तक मुगल बादशाह अकबर के साथ संघर्ष किया और मुगलो को कई बार युद्ध में भी हराया। उनका जन्म बैशाख शुक्ल तृतीया रविवार विक्रम संवत 1597 तदनुसार 9 मई 1549 को राजस्थान के कुम्भलगढ में महाराणा उदयसिंह एवं माता राणी जीवत कँवर के घर हुआ था। उनकी माता को जैवन्ताबाई अथवा जयवन्ता के  नाम से भी इतिहास में जाना जाता है, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा में हुआ। उनकी सबसे पहली गुरु उनकी माता जयवंता बाई थी । अजबदे पुनवार प्रताप की पहली पत्नी थी तथा अमर सिंह और भगवान दास इनसे दो पुत्र थे। इसके अतिरिक्त इनकी 11 पत्नियाँ और भी थी।  और उनसे प्रताप के कुल 17 पुत्र एवं 5 पुत्रियाँ थी । महाराणा प्रताप के संतानों में अमर सिंह सबसे बड़े थे और वे अजबदे के पुत्र थे। महाराणा प्रताप के साथ अमर सिंह ने शासन संभाला था।

मेवाड़ के राणा उदयसिंह द्वितीय की 33 संतानें थीं। उनमें प्रताप सिंह सबसे बड़े थे। स्वाभिमान तथा धार्मिक आचरण उनकी विशेषता थी। प्रताप बचपन से ही ढीठ तथा बहादुर थे। उनकी इस प्रवृति से सबको यह अंदेशा था कि बड़ा होने पर वे एक महापराक्रमी पुरुष अवश्य बनेंगे। सर्वसाधारण शिक्षा लेने के बजाय खेलकूद एवं हथियार बनाने की कला सीखने में उनकी रुचि अधिक थी। महारानी जयवन्ता के अतिरिक्त राणा उदय सिंह की और भी पत्नियाँ थी जिनमे रानी धीरबाई उदय सिंह की सबसे प्रिय पत्नी थी। रानी धीरबाई की मंशा थी कि उनका पुत्र जगमाल राणा उदय सिंह का उत्तराधिकारी बने। इसके अलावा राणा उदय सिंह के दो पुत्र शक्ति सिंह और सागर सिंह भी थे। इनमे भी राणा उदय सिंह के बाद राजगद्दी सँभालने की इच्छा बलवती हो रही थी लेकिन प्रजा और राणा उदयसिंह  दोनों ही प्रताप को ही योग्य उत्तराधिकारी के तौर पर मानते थे ।  इस कारण ये तीनों भाई प्रताप से घृणा करते थे। और इसी घृणा का लाभ उठाकर मुग़लों ने चित्तोड़ पर अपना विजय पताका फहराया था। इसके साथ ही कई राजपूत राजाओं ने अकबर के आगे घुटने टेक दिए थे और उसकी अधीनता स्वीकार की जिसके कारण राजपुताना की शक्ति भी मुगलों को मिल गई । जिसका प्रताप ने अंतिम सांस तक डटकर मुकाबला किया लेकिन राणा उदय सिंह और प्रताप ने मुगलों की अधीनता कभी भी स्वीकार नहीं की। आपसी फूट एवं पारिवारिक मतभेद के कारण राणा उदय सिंह एवं  प्रताप चितौड़ का किला हार गए थे लेकिन अपनी प्रजा की भलाई के लिए वे दोनों किले से बाहर निकल जाते हैं, और प्रजा को बाहर से संरक्षण प्रदान करते रहते हैं। पूरा परिवार एवं प्रजा अरावली की तरफ उदयपुर चला जाता हैं । अपनी मेहनत और लगन से प्रताप उदयपुर को वापस समृद्ध बनाते हैं और प्रजा को संरक्षण प्रदान करते हैं। 

इतिहासकारों के अनुसार यद्यपि राजपूताना के कई राजा प्रताप के खिलाफ थे और अकबर से डर के कारण अथवा राजा बनने की लालसा से कई राजपूतों ने स्वयं ही अकबर से हाथ मिला लिया था। और इसी तरह अकबर राणा उदय सिंह को भी अपने अधीन करना चाहते थे। लेकिन उदयसिंह इसके लिए तैयार नहीं थे। अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिये चार शान्ति दूतों को क्रमश: जलाल खान कोरची को सितम्बर 1572 , मानसिंह को 1573, भगवान दास को सितम्बर–अक्टूबर 1573 तथा टोडरमल को दिसम्बर 1573 को भेजा। लाख प्रयास के बावजूद महाराणा प्रताप ने भी अकबर की अधीनता को स्वीकार नहीं किया था। इस पर अकबर ने राजा मान सिंह को अपने ध्वज तले सेना का सेनापति बनाया इसके अलावा टोडरमल, राजा भगवान दास सभी को अपने साथ मिलाकर 1576 में प्रताप और राणा उदय सिंह के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। इतिहासकारों के अनुसार 1576 के हल्दीघाटी युद्ध में 20,000 राजपूतों को साथ लेकर राणा प्रताप ने मुगल सरदार राजा मानसिंह के 80,000 की सेना का सामना किया। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया ओर महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए बोला। शक्ति सिंह ने आपना अशव दे कर महाराणा को बचाया। प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें 17,000 लोग मारे गएँ। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिन चिंतित हुई जा रही थी । 25,000 राजपूतों को बारह साल तक चले उतना अनुदान देकर भामा शाह भी अमर हुआ। यह युद्ध 18 जून 1576 ईस्वी में मेवाड तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लडने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे -हकीम खाँ सूरी। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन करते हुए अब्दुल कादिर बदायूनीं ने लिखा है कि इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की।वहीं ग्वालियर नरेश राजा रामशाह तोमर भी अपने तीन पुत्रों कुँवर शालीवाहन, कुँवर भवानी सिंह , कुँवर प्रताप सिंह और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैंकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया । इतिहासकारों के अनुसार इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए अकबर के विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितने देर तक टिक पाते पर ऐसा  कुछ नहीं हुआ और यह युद्ध कई दिन चला और राजपूतों ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिया थे ओर सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने- सामने लड़ा गया था। महाराणा की सेना ने मुगल सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था ओर मुगल सेना भागने लग गयी थी। मेवाड़ के गहन वनों में निवास कर कृषि और पशुपालन का व्यवसाय करते हुए भी समरभूमि में अपनी वीरता का सुन्दर परिचय देने वाले भीलों ने महाराणा प्रताप के साथ मुगलों के युद्धों में प्रताप की जिन विषम परिस्थितियों में सहायता की उनका यह कार्य इतिहास में वीरता, स्वामीभक्ति, नि:स्वार्थता जैसे गुणों का अद्वितीय उदाहरण है।

दरअसल ई.पू. 1579 से 1585 तक पूर्व उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशो में विद्रोह होने लगे थे और प्रताप भी एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे अतः परिणामस्वरूप अकबर उस विद्रोह को दबाने मे उलझा रहा और मेवाड़ पर से मुगलो का दबाव कम हो गया । इस बात का लाभ उठाकर महाराणा ने ई.पू. 1585 में मेवाड़ मुक्ति प्रयत्नों को ओर भी तेज कर लिया । महाराणा की सेना ने मुगल चौकियां पर आक्रमण शरु कर दिए और तुरंत ही उदयपूर समेत 36 महत्वपूर्ण स्थान पर फिर से महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया। महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया , उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका अधिकार था , पूर्ण रूप से उतने ही भू भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी । बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका । और इस तरह महाराणा प्रताप समय की लंबी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने मे सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ । मेवाड़ पे लगा हुआ अकबर ग्रहण का अंत ई.पू. 1585 में हुआ । उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा मे जुट गए , परंतु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावंड मे उनकी मृत्यु हो गई और एक सच्चे राजपूत, शूरवीर, देशभक्त, योद्धा, मातृभूमि के रखवाले के रूप में महाराणा प्रताप दुनिया में सदैव के लिए अमर हो गए। महाराणा प्रताप सिंह के डर से अकबर अपनी राजधानी लाहौर लेकर चला गया और महाराणा के स्वर्ग सिधारने के बाद अगरा ले आया। महाराणा प्रताप के स्वर्गावसान का समाचार सुन अकबर रहस्यमय तरीके से मौन हो गया और उसकी आँख में आंसू आ गए।


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अशोक “प्रवृद्ध”
करमटोली , गुमला नगर पञ्चायत ,गुमला 
पत्रालय व जिला – गुमला (झारखण्ड)

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