विशेष आलेख : अर्थव्यवस्था की सुनहरी होती तस्वीर - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 4 सितंबर 2018

विशेष आलेख : अर्थव्यवस्था की सुनहरी होती तस्वीर

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भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में तेजी से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था है, जिसकी विकास गति ने चीन को पीछे छोड़ दिया है। कृषि क्षेत्र में अच्छे प्रदर्शन एवं विनिर्माण के कारण चालु वित्त वर्ष की प्रथम तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद ( जीडीपी ) की वृद्धि दर 8.2 प्रतिशत रही है जबकि इसी तिमाही में चीन की वृद्धि दर 6.7 प्रतिशत रही है। अब हमारा देश सबसे तेज गति से आगे बढ़ने वाला देश हो गया है। भारत अब इंग्लैण्ड को पीछे छोड़ कर बहुत जल्दी ही दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है। यह वर्तमान नरेन्द्र मोदी सरकार के लिये शुभ एवं श्रेयस्कर होने के साथ-साथ एक अच्छी खबर है। 

अर्थव्यवस्था को ऊपर उठाने के हमारे आजाद भारत के संकल्प को मंजिल तक पहुंचाने में अब तक की सभी सरकारें नाकाम रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से बहुत अपेक्षाएं रही हैं, वे एवं उनकी सरकार आर्थिक संतुलन स्थापित करने में कामयाब हो रही है, विश्व में भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है, यह देखने और सुनने में बहुत अच्छा लग रहा है। लेकिन जीएसटी एवं नोटबंदी के घावों से उबरना अभी बाकी है। जनता आर्थिक परेशानियों से जूझ रही है, अमीर एव गरीब की खाई बढ़ती जा रही है, पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों के चलते हर चीज महंगी होेती जा रही है, रुपये की कीमत भी लगातार गिर रही है, बेरोजगारी बढ़ रही है, व्यापार ठप्प है। उद्योगों में बैंकिग ऋणों की गति बहुत दिनों से ठप्प है। इन विरोधाभासी एवं विसंगतिपूर्ण स्थितियों की दृष्टि से मोदी एवं उनकी सरकार की नीतियां सन्देहास्पद ही कही जायेगी। क्योंकि उन्होंने जो दिशा पकड़ी वह भी ऐसे विकास का प्रारूप है जिसमें अमीर अधिक अमीर ही होता जायेगा? भले गरीबी को कुछ स्तर पर संतुलित कर लिया जाये। मोदी सरकार भी अपनी जिम्मेदारी पर गरीब से गरीब व्यक्ति को आर्थिक स्तर पर ऊपर उठने की कोई पुख्ता योजना प्रस्तुत नहीं कर पाई है। किसी गरीब को गैस सिलैण्डर दे देने से या उनके घर तक सड़क या बिजली पहुंचा देने से एक सन्तुलित आदर्श समाज की रचना नहीं होगी। 

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देश के भीतर आम आदमी के जीवन में तकलीफें एवं परेशानियां बढ़ी है। हमने सरकार के भरोसे शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य की बुनियादी व्यवस्था छोड़ी थी, लेकिन अब तक की सभी सरकारें इस मोर्चे पर असफल रही है, और इन दोनों बुनियादी क्षेत्रों का जमकर व्यावसायीकरण हुआ है। निजी क्षेत्र ने इन क्षेत्रों में अपना आतंक फैला रखा है। सरकार के भरोसे सौंपे गये इस दायित्व के पीछे भावना यही थी कि शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में उसकी भागीदारी से आम जनता को उचित शिक्षा मिलेगी और स्वास्थ्य के लिये मूलभूत सुविधाओं से वह महरुम नहीं रहना पडे़गा। गरीब से गरीब आदमी का बच्चा भी अपने व्यक्तित्व का विकास करके अपने भाग्य का विधाता बन सकेगा। आजादी के साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से देश के विकास की जो आर्थिक-सामाजिक संतुलन की आधारशिला रखी गई, वह सात दशक तक पहुंचते-पहुंचते ही चरमरा गयी। आज सरकारें व्यावसायिक कोरपोरेट घराने बनते जा रहे हैं। उनका मुख्य लक्ष्य जनता की सेवा न होकर लाभ-हानि हो गया है। देश में सेवा एवं बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लक्ष्य को हाशिये पर डाल दिया गया है और येन-केन-प्रकारेण धन कमाना ही सबसे बड़ा लक्ष्य बनता जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों हुआ ? क्या इस प्रवृत्ति के बीज हमारी आजादी के लक्ष्य से जुड़े संकल्पों में रहे हैं या यह विश्व बाजार के दबाव का नतीजा है? इस तरह की मानसिकता राष्ट्र को कहां ले जाएगी? ये कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं, जिनपर मंथन जरूरी है। यह मंथन एवं इन इन समस्याओं का समाधान के लिये जिस तरह का नेतृत्व एवं योजना अपेक्षित है, उसके लिये नरेन्द्र मोदी सरकार की एक मात्र विकल्प है। आर्थिक जगत के विशेषज्ञों का भी मानना है कि रुपये की गिरती कीमत और पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों के बावजूद यदि देश की अर्थव्यवस्था तेजी से विकास की ओर अग्रसर होते हुए विश्व की चुनिन्दा शीर्ष अर्थव्यवस्था बनने जा रही है तो इसका श्रेय निश्चित रूप नरेन्द्र मोदी एवं उनकी सरकार, उनके सरंचनात्मक सुधार एवं लागू किये गये नीतिगत निर्णयों के प्रभावी क्रियान्वयन को जाता है, संभावनाएं की जा रही है कि आगामी तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर की गति और बढ़ेगी। 

हम अर्थव्यवस्था की गुलाबी होती तस्वीर से खुश हो ले, लेकिन हमें ऐसी संतुलित एवं आम आदमी के विकास से जुड़ी बाजारमूलक अर्थव्यवस्था को अपनाना होगा। जिसने विकास की परिभाषा को ही बदल कर रख दिया है। विदेशी निवेश के लुभावने एवं चकाचैंधभरे आह्वान में लगा कि रोजगार बढ़ेगा, गरीबी दूर होगी और सार्वजनिक क्षेत्र की जो कम्पनियां घाटे में चल रही हैं वे निजी भागीदारी से मुनाफा कमाने वाली मशीनों में तब्दील हो जायेंगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। घाटे के नाम पर सरकारों ने उन सरकारी मशीनों को बन्द ही कर दिया, जो आम जनता की सेवा के लिये गठित की गयी थी। सरकारों ने विकास के नाम पर जनता पर अनचाहा भार ही नहीं लादा बल्कि अपनी लाभ एवं लोभ की मानसिकता को भी थोपा है। विकास के नाम पर पनप रहा नया नजरिया न केवल घातक है बल्कि मानव अस्तित्व पर खतरे का एक गंभीर संकेत भी है। क्योंकि साम्राज्यवाद की पीठ पर सवार पूंजीवाद ने जहां एक ओर अमीरी को बढ़ाया है तो वहीं दूसरी ओर गरीबी भी बढ़ती गई है। यह अमीरी और गरीबी का फासला कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है जिसके परिणामों के रूप में हम आतंकवाद को, सांप्रदायिकता को, प्रांतीयता? नक्सलवाद को, माओवाद को देख सकते हैं, जिनकी निष्पत्तियां समाज में हिंसा, नफरत, द्वेष, लोभ, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, रिश्ते में दरारें आदि के रूप में देख सकते हैं। सर्वाधिक प्रभाव पर्यावरणीय असंतुलन एवं प्रदूषण के रूप में उभरा है। चंद हाथों में सिमटी समृद्धि की वजह से बड़े और तथाकथित संपन्न लोग ही नहीं बल्कि देश का एक बड़ा तबका मानवीयता से शून्य अपसंस्कृति का शिकार हो गया है। भारत का युवक यानी स्टार्टअप वालमार्ट, अमेजन जैसी विदेशी कम्पनियों के सामने कैसे टिकेगा? जिनके लिये भारत के व्यापार को हथियाने एवं भोली-भली जनता को प्रलोभन देने के लिये पांच-दस हजार करोड का नुकसान उठाना साधारण बात है। इन विदेशी कम्पनियों से पहले हमारे नव उद्यमियों एवं व्यापारियों का सामना किसी रिलायंस, टाटा या अडानी से भी है जिन्होंने हर छोटे-मोटे व्यापार पर अपना कब्जा कर रखा है और वे गांवों-कस्बों तक पहुंच गये हैं। कैसे घर-घर में व्यापार या उद्योग स्थापित होंगे, कैसे बेरोजगारी दूर होगी और कैसे सरकारी निर्भरता को कम किया जायेगा- यह अहम मुद्दा कब राष्ट्रीय चर्चा का हिस्सा बनेगा? हर नागरिक को अपने अस्तित्व एवं अस्मिता के लिये जागना होगा। भले हमारे पास कार, कोठी और कुर्सी न हो लेकिन आत्मनिर्भरता एवं स्वावलम्बन जैसे चारित्रिक गुणों की काबिलियत अवश्य हो क्योंकि इसी काबिलियत के बल पर हम अपने आपको महाशक्तिशाली बना सकेगे अन्यथा हमारे देश के शासक जिस रास्ते पर हमें ले जा रहे हैं वह आगे चलकर अंधी खाई की ओर मुड़ने वाली हैं। उन स्थितियों में जीडीपी की वृद्धि दर भी एक छलावा ही साबित न हो जाये?




(ललित गर्ग)
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