देश में राम मंदिर निर्माण को लेकर पिछले 69 साल से संग्राम छिड़ा है। सियासी बहस के बीच हाईकोर्ट के फैसले के बाद सुप्रीम कोर्ट में तारीख पर तारीख का दांव चला जा रहा है। खासकर 29 अक्टूबर की तारीख लोगों के मन में घर कर गयी थी कि कांग्रेस द्वारा अटकाएं जा रहे सारे रोेड़े खत्म होने के बाद फैसले की घड़ी मुहाने पर है। लेकिन सुनवाई मात्र 3 मिनट में ही टल गई। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई वाली बेंच ने अब इस मामले के लिए जनवरी, 2019 की तारीख तय की है। यानी अब यह मामला करीब 3 महीने बाद ही कोर्ट में उठेगा, वह फैसले के लिए नहीं बल्कि सुनवाई हो या नहीं की अगली तारीख के लिए? ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है एक आंतकवादी को न्याय देने के लिए सप्रीमकोर्ट का दरवाजा आधी रात को खुल सकता है तो 100 करोड हिन्दुओं की आस्था से जुड़े श्रीराम मंदिर की सुनवाई पर तारीख पर तारीख कब तक? क्या राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश चलेगा, या आंदोलन या अध्यादेश?
फिरहाल, जिस तरह से चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई वाली बेंच ने अयोध्या में विवादित जमीन से जुड़े मुकदमे में मात्र तीन मिनट में अगली तारीख तय की है उससे तो साफ है कि उनके रहते यह फैसला जल्दी नहीं होने वाला। माननीय चीफ जस्टिस किस पृष्ठभूमि व विचारधारा से जुड़े है इस पर बहस करना निर्रथक है, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है उन्होंने वहीं किया जो कांग्रेस चाहती थी। यानी देश चुनाव की दहलीज पर होगा और अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई का काम आगे बढ़ाएगा। जबकि सच तो यह है कि करोड़ों लोगों की भावनाओं से जुड़े इस मसले को जल्द से जल्द सप्रीम कोर्ट को सुलझाना चाहिए। उच्च न्यायालय के 2010 में आएं निर्णय पर अपील यदि आज 8 साल बाद भी तारीखों के इंतजार में है तो वह कानून के राज को मानने वालों के भरोसे को डिगाती है और उन लोगों के हौसले बढ़ाती है जो कानून की परवाह नहीं करते हैं। या यूं कहें कोर्ट के इसी लेटलतीफी से आजिज आकर लोग कानून को अपने हाथ में लेने को मजबूर होते हैं।
शायद यही वजह भी है कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण को लेकर अब हर सख्स यही चाहता है कि सरकार अध्यादेश लाएं, कानून बनाकर मंदिर निर्माण हों। क्योंकि मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ की ओर से जिस तरह कहा गया कि यह संबंधित पीठ ही तय करेगी कि मामले की सुनवाई जनवरी, फरवरी, मार्च या अप्रैल में कब होगी उससे तो यही लगा कि इस विवाद का जल्द समाधान प्राथमिकता में ही नहीं। परिणाम यह है कि एक तरफ इस आदेश के बाद संतों के एक बड़े वर्ग और राम मंदिर आंदोलन से जुड़े महंतों ने इस वर्ष 6 दिसंबर से अयोध्या में मंदिर निर्माण की घोषणा कर दी है। संत समाज का कहना है कि वो मंदिर निर्माण का काम शुरू कर देंगे, सरकार रोकना चाहती है तो रोके। दुसरी तरफ कांग्रेस समेत अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाने वाले अखिलेश यादव की पार्टी कहती है कोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाहिए। भाजपा इस पेशोपेश में है कि अब होगा क्या? यहां बताना यह जरुरी है कि भाजपा को वही करना पड़ेगा जो हिन्दू समाज चाहता है, क्योंकि इतनी बड़ी बहुमत मोदी को सिर्फ और सिर्फ मंदिर के नाम पर ही मिला है। लोगों को अब भी उम्मींद है अगर इतने प्रचंड बहुमत के बाद भी मोदी कार्यकाल में मंदिर नहीं बना तो फिर कभी नहीं?
देखा जाय तो संतों का आह्वान सरकार एवं सुप्रीम कोर्ट के लिए कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। केंद्र की मोदी सरकार और राज्य में योगी सरकार के लिए यह बहुत मुश्किल होगा कि संतों को रोकने के लिए वे किसी भी प्रकार का बल प्रयोग करें। इससे भाजपा को अपने समर्थकों के बीच खासा नुकसान झेलना पड़ सकता है। क्योंकि वह ऐलान कर चुका है राम के लिए इंतजार कर रहे देश को मोदी सरकार कब लायेगी अध्यादेश? हालांकि मोदी सरकार के मंत्री गिरिराज सिंह को जब भी मौका मिलता है वे यह कहने से नहीं चुकते कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण होकर रहेगा। अब देश के सवा सौ करोड़ हिंदुओं का सब्र की सीमा टूट चुकी है। इसके लिए जो करना होगा किया जायेगा। कुछ ऐसा ही विहिप, बजरंग दल और साधु संत भी कहते फिर रहे है। मतलब साफ है 2019 चुनाव से पहले मोदी सरकार पर घर के अंदर से भी चैतरफा दबाव बनता जा रहा है कि वो राम मंदिर के निर्माण के लिए सदन में क़ानून लाए और अयोध्या में रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करे। खुद आरएसएस के विजयदशमी कार्यक्रम में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने संबोधन में कहा था, राम मंदिर के लिए कानून बनाना चाहिए। ये सीधे तौर पर इशारा था कि संघ और भाजपा के समर्थकों और राम के प्रति आस्था रखने वालों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार को सदन में राम मंदिर के लिए क़ानून लाना चाहिए।
कहा जा सकता है मोदी सरकार पर मंदिर निर्माण के लिए दबाव कम नहीं है। ज़मीन पर कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को जवाब देने से लेकर खुद को मंदिर निर्माण के लिए प्रतिबद्ध दिखाना भाजपा के लिए ज़रूरी होता जा रहा है। दूसरी ओर संतों ने सरकार को इस मुद्दे पर घेरना शुरू कर दिया है कि मंदिर निर्माण में देरी वे बर्दाश्त नहीं करेंगे। संतों का कहना है कि क्या भाजपा मंदिर निर्माण का अपना वादा भूल गई है और क्यों सुप्रीम कोर्ट के फैसले के इंतज़ार का बयान पार्टी की ओर से बार-बार दिया जा रहा है। सुनवाई टलने के बाद अयोध्या के संतों ने भी पूछा कि बार-बार क्यों सुनवाई टल रही है। संत समाज की इस घोषणा को संघ प्रमुख के आज के भाषण से एक तरह की वैधता मिल गई है। संघ ने स्पष्ट कर दिया है कि वो राम मंदिर के लिए कोर्ट के फैसले का इंतज़ार नहीं करना चाहता और सरकार इसके लिए क़ानून लाकर मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करे। ऐसी स्थिति में भाजपा के पास अब एक ही रास्ता बचता नज़र आ रहा है और वो यह है कि राम मंदिर के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को स्थापित करने के लिए मोदी सरकार सदन के आगामी शीतकालीन सत्र में राम मंदिर के विधेयक को रखे। इससे भाजपा को लाभ भी है। पहला तो यह कि सरकार लोगों के बीच चुनाव से ठीक पहले यह स्थापित करने में सफल होगी कि उनकी मंशा राम मंदिर के प्रति क्या है? वो अपने मतदाताओं को बता सकेगी कि कम से कम भाजपा और मोदी अयोध्या में राममंदिर के निर्माण के प्रति प्रतिबद्ध हैं। दूसरा लाभ यह है कि विपक्ष के लिए यह एक सहज स्थिति नहीं होगी। विपक्ष इसपर टूटेगा। कांग्रेस के लिए यह आसान नहीं होगा कि वो राम मंदिर पर प्रस्ताव का विरोध करके अपनी सॉफ्ट हिंदुत्व की पूरी कोशिशों को मिट्टी में मिला दे। इससे विपक्ष में बिखराव भी होगा और सपा बसपा जैसी पार्टियों के वोटबैंक में भी सेंध लगेगी।
बता दें, संतों और मतदाताओं के बीच संदेश देने के लिए चुनाव से ठीक पहले मोदी सरकार के सामने यह एक अहम और अंतिम मौका है। जनवरी से प्रयाग में शुरू हो रहे कुंभ के दौरान भी सरकार को संत समाज के सामने मंदिर के प्रति अपनी जवाबदेही स्पष्ट करनी होगी। मोदी सरकार के लिए आगामी शीतकालीन सत्र इस सरकार का अंतिम सत्र होगा। इसके बाद का बजट सत्र एक मध्यावधि बजट के साथ समाप्त हो जाएगा और देश आम चुनाव में लग जाएगा। चुनाव से ठीक पहले अपने मतदाताओं के बीच राम मंदिर के लिए विश्वास जताना सरकार के लिए ज़रूरी है। देखना यह है कि सरकार इस विश्वास को जताने के लिए किस सीमा तक जाती है। गौरतलब है कि अयोध्या मामले में कुल 19 हजार दस्तावेज हैं। इन तमाम दस्तावेजों को इंग्लिश में ट्रांसलेट किया गया है। इसके साथ ही अदालती बहस की कॉपी (प्लीडिंग) पेश की गई है। इन्हीं दस्तावेजों में अयोध्या मामले का पूरा लेखा जोखा है। इन दस्तावेजों में 90,000 पन्नों में गवाहियां दर्ज है। ये पाली, फारसी, संस्कृत, अरबी सहित 7 भाषाओं में थे, जिन्हें अंग्रेजी में अनुवाद कर कोर्ट में पेश किया गया है। दरअसल अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट में 14 अपील दायर हैं। इनमें 8 याचिकाएं मुस्लिम पक्षकारों की ओर से और 6 हिंदू पक्षकारों की तरफ से हैं। जबकि दोनों समुदायों की ओर से 6-6 पक्षकार हैं। मुस्लिम पक्षकारों की ओर से दायर की गई अपील सभी हिंदू पक्षकारों के खिलाफ है। जबकि वहीं हिंदू पक्षकारों की अपील ज्यादातर हिंदू पक्षकारों के खिलाफ हैं। पहला पक्ष- मस्जिद के अंदर विराजमान भगवान राम, जिनके पैरोकार विश्व हिंदू परीषद है। दूसरा पक्ष- सनातन हिंदुओं की संस्था निर्मोही अखाड़ा, जो सवा सौ साल से इस स्थान पर मंदिर बनाने की कानूनी लड़ाई लड़ रही है। तीसरा पक्ष-सुन्नी वक्फ बोर्ड है, जिसमें कुछ स्थानीय मुस्लिम है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने सुब्रमण्यम स्वामी और वसीम रिजवी की याचिका समेत कुल 32 याचिकाओं को खारिज कर दिया था, जिसमें अपर्णा सेन, श्याम बेनेगल और तीस्ता सीतलवाड़ की याचिकाएं भी शामिल थी।
न्यायालय की साख का सवाल
आज यदि सरकार या न्यायालय या खुद कोर्ट सर्वे करवाएं तो देश की बहुसंख्यक जनता धर्म की दीवारों से परे उठकर यही कहेगी शीघ्र अयोध्या में मंदिर बने, लेकिन शांति से। ऐसे में सवाल यही है इसे करेगा कौन? जवाब यही होगा न्यायालय, क्योंकि उसकी बात हर कोई मानने के लिए बाध्य होगा। लेकिन अफसोस है कि जो मामला पूरे देश के लिए गहन दिलचस्पी का है उसमें फैसले की घड़ी और दूर खिसकती जाएं। किसी मामले में जरूरत से ज्यादा देर हो तो उसे अंधेर ही कहा जाता है। निश्चित तौर पर आज की तारीख में यह जिम्मा हमारे न्यायालय का है। उसे ही तय करना है कि देश उस संविधान से चले जिसे हमारे पूर्वजों ने बड़ी मेहनत से बनाया है। हमारा संविधान महज कागजों का पुलंदा नहीं हैं। वह आज 230 करोउ़ भारतीयों की आवाज है। यह संविधान भले धर्म निरपेक्ष है लेकिन उसी में हम सबकी धार्मिक स्तंत्रता की गारंटी है। ऐसे में हमारे न्यायालय को ही तय करना है कि उसकी गरिमा आम जनमानस में कैसे बनी रहें। बेहतर हो, न्यायालय जितना जल्द हो सके, इस विवाद पर निर्णय दें, और फिर उसे उतनी शीघ्रता-दृढ़ता से लागू करवाएं। निपटारे में देरी के चलते लोगों की बेचैनी बढ़ना स्वाभाविक है, लेकिन व्यग्र हो गए लोग यह ध्यान रखें तो बेहतर कि जब कोई मामला सबसे बड़ी अदालत के समक्ष हो तब उस पर कानून बनाने की अपनी कठिनाइयां हैं। एक तो विपक्ष के सहयोग के बिना ऐसा कोई कानून बनना संभव नहीं जो अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करे और यदि वह बन भी जाए तो उसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है। इससे मामला वहीं पहुंचेगा जहां अटका है। इसके साथ ही इसके लिए भी कोशिश होनी चाहिए कि अयोध्या विवाद का समाधान आपसी सहमति से निकल आए। यदि ऐसी कोई कोशिश ईमानदारी से हो सके तो अयोध्या मामले की सुनवाई टलने को एक अवसर में तब्दील किया जा सकता है। अच्छा होगा कि वे लोग आगे आएं जो यह चाहते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण सद्भाव का नया अध्याय लिखे।
इस मामले में कब क्या हुआ
गौरतलब है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद मामले में विवादित स्थल पर मूर्ति देखे जाने के बाद 1949 में पहली बार मामला कोर्ट पहुंचा। पिछले 69 सालों से लंबित यह मामला फैजाबाद की निचली अदालत से होते हुए पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट और अब सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। यह सुनवाई राम जन्मभूमि पर 2010 के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर होनी थी, लेकिन जनवरी 2019 तक के लिए टल गया है। 27 सितंबर को इस्माइल फारूकी बनाम भारतीय संघ, 1994 के मामले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका पर तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नजीर की तीन जज की बेंच के फैसले बाद, राम जन्मभूमि विवाद के मामले में पहली बार सुनवाई की तिथि 29 अक्टूबर तय थी। बता दें कि इलाहाबाद हाई कोर्ट की तीन जज की बेंच ने 30 सितंबर, 2010 को 2ः1 के बहुमत वाले फैसले में कहा था कि 2.77 एकड़ जमीन को तीनों पक्षों- सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला में बराबर-बराबर बांट दिया जाए. इस फैसले को किसी भी पक्ष ने नहीं माना और उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने 9 मई 2011 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले पर रोक लगा दी थी। 1528 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद का निर्माण किया गया। 1949 में बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्ति देखी गई थी। जिसके बाद दोनों पक्षों के प्रतिनिधि कोर्ट चले गए, और विवादित स्थल पर ताला लगा दिया गया। 1959 में निर्मोही अखाड़ा की ओर से विवादित स्थल के स्थानांतरण के लिए अर्जी दी थी। 1961 में यूपी सुन्नी सेंट्रल बोर्ड ने भी बाबरी मस्जिद स्थल के मालिकाना हक के लिए अपील दायर की थी। 1986 में विवादित स्थल को श्रद्धालुओं के लिए खोला गया। 1986 में ही बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया गया। 1989 में विहिंप ने राजीव गांधी सरकार की इजाजत के बाद बाबरी के पास राम मंदिर का शिलांयास किया।
1990 में लालकृष्ण आडवाणी ने देशव्यापी रथयात्रा की शुरुआत की। 1991 में रथयात्रा की लहर से बीजेपी यूपी की सत्ता में आई। इसी साल मंदिर निर्माण के लिए देशभर के लिए इंटें भेजी गई। 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या पहुंचकर हजारों की संख्या में कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद का विध्वंस कर दिया था। इसके बाद कई स्थानों पर सांप्रदायिक दंगे हुए। पुलिस द्वारा लाठी चार्ज और फायरिंग में कई लोगों की मौत हो गई। जल्दबाजी में एक अस्थाई राम मंदिर बनाया गया। प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने मस्जिद के पुनर्निर्माण का वादा किया। 16 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों की जांच के लिए एमएस लिब्रहान आयोग का गठन किया गया। 1994 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ में बाबरी मस्जिद विध्वंस से संबंधित केस चलना शुरू हुआ। 4 मई, 2001 को स्पेशल जज एसके शुक्ला ने बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी सहित 13 नेताओं से साजिश का आरोप हटा दिया। 1 जनवरी, 2002 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अयोध्या विभाग शुरू किया। इसका काम विवाद को सुलझाने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों से बातचीत करना था। 1 अप्रैल 2002 को अयोध्या के विवादित स्थल पर मालिकाना हक को लेकर इलाहबाद हाई कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने सुनवाई शुरू कर दी। 5 मार्च 2003 को इलाहबाद हाई कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को अयोध्या में खुदाई का निर्देश दिया, ताकि मंदिर या मस्जिद का प्रमाण मिल सके। 22 अगस्त, 2003 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अयोध्या में खुदाई के बाद इलाहबाद हाई कोर्ट में रिपोर्ट पेश किया। इसमें कहा गया कि मस्जिद के नीचे 10वीं सदी के मंदिर के अवशेष प्रमाण मिले हैं। मुस्लिमों में इसे लेकर अलग-अलग मत थे। इस रिपोर्ट को ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने चैलेंज किया। सितंबर 2003 में एक अदालत ने फैसला दिया कि मस्जिद के विध्वंस को उकसाने वाले सात हिंदू नेताओं को सुनवाई के लिए बुलाया जाए। जुलाई 2009ः लिब्रहान आयोग ने गठन के 17 साल बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपनी रिपोर्ट सौंपी। 26 जुलाई, 2010 को इस मामले की सुनवाई कर रही इलाहबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने फैसला सुरक्षित किया और सभी पक्षों को आपस में इसका हल निकाले की सलाह दी. लेकिन कोई आगे नहीं आया।
28 सितंबर 2010ः सुप्रीम कोर्ट ने इलाहबाद हाई कोर्ट को विवादित मामले में फैसला देने से रोकने वाली याचिका खारिज करते हुए फैसले का मार्ग प्रशस्त किया। 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इसके तहत विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटा दिया गया। इसमें एक हिस्सा राम मंदिर, दूसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़े को मिला। 9 मई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी। 21 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने आपसी सहमति से विवाद सुलझाने की बात कही। 19 अप्रैल 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती सहित बीजेपी और आरएसएस के कई नेताओं के खिलाफ आपराधिक केस चलाने का आदेश दिया। 9 नवंबर 2017ः उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात के बाद शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन वसीम रिजवी ने बड़ा बयान दिया था। रिजवी ने कहा कि अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर बनना चाहिए, वहां से दूर हटके मस्जिद का निर्माण किया जाए। 16 नवंबर 2017 को आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर ने मामले को सुलझाने के लिए मध्यस्थता करने की कोशिश की, उन्होंने कई पक्षों से मुलाकात की। 5 दिसंबर 2017 को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई. कोर्ट ने 8 फरवरी तक सभी दस्तावेजों को पूरा करने के लिए कहा। 8 फरवरी 2018 को सुन्नी वक्फ बोर्ड की तरफ से पक्ष रखते हुए वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने सुप्रीम कोर्ट से मामले पर नियमित सुनवाई करने की अपील की। लेकिन पीठ ने उनकी अपील खारिज कर दी। 14 मार्च 2018 को वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने कोर्ट से मांग की कि साल 1994 के इस्माइल फारूकी बनाम भारतीय संघ के फैसले को पुर्नविचार के लिए बड़ी बेंच के पास भेजा जाए। 20 जुलाई 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने राजीव धवन की अपील पर फैसला सुरक्षित रखा। 27 सितंबर 2018 को कोर्ट ने इस्माइल फारूकी बनाम भारतीय संघ के 1994 का फैसला, जिसमें कहा गया था कि ’मस्जिद इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं’ को बड़ी बेंच को भेजने से इनकार करते हुए कहा था कि अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में दीवानी वाद का निर्णय साक्ष्यों के आधार पर होगा और पूर्व का फैसला सिर्फ भूमि आधिग्रहण के केस में ही लागू होगा।
--सुरेश गांधी--

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