विजय सिंह, आर्यावर्त डेस्क ,2 दिसंबर, 2018, पिछले सप्ताह यूं ही एक गाना गाकर वाह्ट्सअप पर शेयर कर दिया था. घर के कोने में,बाथरूम में या कार चलते वक़्त अक्सर अकेले गाता रहता हूँ. कभी कभार दोस्तों ने सुन लिया तो कुछ गुनगुनाने को कह दिया और तारीफ भी कर दी,बस पंख निकलने लगे,एकदम गायक ही समझ बैठा I व्हाट्सअप पर शेयर करते ही दूर शहरों में बैठे आत्मीयजनों ने जब खुद के गाए हुए गीत शेयर किये तो जमीन तले पैर खिसकने लगे Iएक से बढ़ कर एक गाने और लाजवाब आवाजें. जल्दी घर आ गया तो, टीवी पर इंडियन आइडल देखने लगा. गजब की प्रतिभाएं,एक से बढ़ कर एक.छोटे शहरों ,छोटे परिवेशों से निकल कर आज अपनी प्रतिभा से पूरे विश्व में उम्मीदों की किरणे रौशन कर रहें हैं. अनगिनत प्रतिभाएं हैं. प्रतिभा हो तो चायवाला देश का प्रधानमंत्री बन सकता है पर पहले चाय बनानी तो आनी चाहिए. कितनी शक्कर,कितनी चायपत्ती डालनी है,दूध को कितनी देर उबालना है,यह तो मालूम होना ही चाहिए न,एकदम कड़क चाय के लिए लेकिन नहीं, यहाँ सीखता कौन है,चाय अच्छी नहीं बनी,यह कहने में ज्यादा आनंद आता है. कौशल विकास का समय है चायवाला बनना है परन्तु सही मात्रा नहीं मालूम, तब पर भी गुस्ताखी यह कि ज्ञान देना नहीं छोड़ेंगे, तुलसीदास जी ने सही लिखा है- "पर उपदेश कुशल बहुतेरे,जे आचरहि ते नर न घनेरे " लेकिन सुनता कौन है,सबके सब ज्ञानी मसाला चाहिए ,दिन भर सोशल मीडिया में निंदा फैक्ट्री का प्रबंधक बनने का! अरे भाई ,कोई प्रतियोगिता हो रही है क्या ? किसने कहा बेरोजगारी है,इतना रोजगार तो पूरे विश्व में नहीं होगा राम जी आगे बढ़े तो हनुमान जी को पकड़ लिए ये तो होना ही था क्योंकि सब जानते हैं- "दुनिया चले न श्री राम के बिना और राम न मिलेंगें हनुमान के बिना "तो राम को प्राप्त करने के लिए हनुमान को तो भजना ही होगा श्री राम और श्री हनुमान दोनों ही हमारे आरध्य हैं. आराध्य तो हर जगह हैं,हर दिल में हैं,रोम रोम में हैं रास्ते से गुजर रहा था ,ध्यान आया कि यहीं तो त्रिवेणी जी का घर है,चलो मिलते हुए चाय का लुत्फ़ भी उठा लेंगें घंटी बजाते ही दरवाजा खुला तो सुधा भाभी बड़बड़ाते हुए बोली भाई साहब ,आप ही समझाइये.दो दिन से राशन का थैला लेकर जाते हैं और फिर "दलित,बनवासी" के चक्कर में पड़कर वापस आ जाते हैं अब आप ही बताईये,आज तक तो संकटमोचन को दलित या बनवासी के रूप में नहीं जानते थे . रोज दलित दलित कहा जा रहा है. साहब, यहाँ पढ़ता कौन है, सुनता कौन है,समझता कौन है,यहाँ तो बस टीआरपी का खेल चलता है . "दलित" बिकने वाला शब्द है उस लिए परोसा जा रहा है.सबसे तेज,सबसे पहले,सबसे बड़ी खबर का झमेला जो पाल रखा है. अब विष्णु पड़ारकर का जमाना नहीं है जो मालिक को सम्पादकीय में हस्तक्षेप से दूर रखें. अब तो पी आर चलता है, तो "खुद" संभलना होगा. पूरा सुनने,देखने की फुर्सत कहाँ है,बिकने लायक माल खोजना ही लक्ष्य है.कटिंग का जमाना है.पर पूरी कीमत में आधा माल क्यों ? खरीददार को ही आपत्ति नहीं अब भी नहीं मान रहा हूँ. गाए चला जा रहा हूँ. सामने से आते लोगों में से कुछ मुहं बनाते नजर आये तो कुछ तालियां पीटने लगे.फिर ग़लतफ़हमी हो गयी लगा कि मुझसे बेहतर कोई गा ही नहीं सकता,क्योंकि सिर्फ तालियों की आती आवाज की तरफ ही नजरें इनायत कीं. घर पहुंचा तो टी वी पर इंडियाज़ गॉट टैलेंट आ रहा था, आत्मविश्वास से भरे साधारण परिवेश के प्रतिभाओं को देखकर औकात याद आ गयी. संत कबीर ने कितना सही कहा है- "बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय, जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।"
रविवार, 2 दिसंबर 2018
सम्पादकीय : बुरा जो देखन मैं चला....
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