दुमका (अमरेन्द्र सुमन) दलित, शोषित, आदिवासी व अल्पसंख्यक मुस्लिम महिलाओं सहित अन्य कमजोर तबकों की महिलाओं के अधिकारों पर बेवाक विचारों के लिये प्रसिद्ध, लोकप्रिय सामाजिक कार्यकर्ता व झारखण्ड मुक्ति मोर्चा महिला मंच में अग्रिम पंक्ति की नेत्री शबनम खातुन ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा कि पुरुषों की परंपरागत मानसिकता व व्यवहार में जब तक बदलाव नहीं होगा, महिलाएँ मुख्य धारा से नहीं जुड़ सकेंगी। गाँव-देहात की बात हो या फिर शहरों-महानगरों की बात। तमाम जगहों पर महिलाएँ अपने-अपने अधिकारों से वंचित और संधर्षरत दिखलायी पड़ती हैं। दलित, आदिवासी, पिछड़ी व अल्पसंख्यक बाहुल्य क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति और भी भयावह है। झाड़-फूँक, ओझागुनी, डायन-बिसाही, के नाम पर संताल परगना प्रमण्डल के विभिन्न जिलों में जहाँ एक ओर महिलाओं को प्रताड़ित कर उनकी हत्या तक कर देने की घटनाएँ अवाम को शर्मसार कर जाती हैं, वहीं दूसरी ओर मासूम व कमउम्र बच्चियों, युवतियों-महिलाओं के साथ बलात्कार व सामुहिक गैंगरेप की घटनाएँ राष्ट्रीय चिन्ता का विषय बन जाती हैं। घर, परिवार, समाज की पूरी व्यवस्था को साथ लेकर चलने वाली बहन-बेटियों, माताओं के साथ ऐसे अमानवीय व्यवहार पर राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों, सरकारों व आम-अवाम की चुप्पी इस बात का द्योतक है कि महिलाएँ किसी भी अवस्था में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर न चल सके। आगे न बढ़ सके। लोकप्रिय सामाजिक कार्यकर्ता व झामुमों महिला मंच में अग्रिम पंक्ति की नेत्री शबनम खातुन का कहना है सरकारी/ गैर सरकारी क्षेत्रों में नौकरी-पेशा से लेकर रोजगार के छोटे-छोटे अवसरों तक से महिलाओं को वंचित रखा जाता है। राजनीति में महिलाओं को आगे बढ़ने का अवसर ही नहीं दिया जाता। राजनीति में जब तक महिलाओं को अपनी बात रखने की आजादी नहीं होगी उनकी समस्याएँ कम नहीं होंगी। महिलाओं को खुद सोंचने, समझने-बूझने, व निर्णय लेने का अधिकार देना होगा। घर, परिवार, रिश्तों के दायित्वों का निर्वहण करते हुए समाज में शोषित वंचित, उपेक्षित व पीड़ित, तबकों के बीच काम करने से बड़ा अनुभव होता है। जनता कीी भावनाओं का ख्याल रखने वाले ही अवाम की आँखों मंे बसे होते हैं। दकियानूसी विचारधाराओं को त्याग कर पुरुष प्रधान समाज को महिला अधिकार के प्रति गंभीर रहने की जरुरत है। महिलाआंे की अस्मिता तभी बची रह सकती है।
दुमका (अमरेन्द्र सुमन) दलित, शोषित, आदिवासी व अल्पसंख्यक मुस्लिम महिलाओं सहित अन्य कमजोर तबकों की महिलाओं के अधिकारों पर बेवाक विचारों के लिये प्रसिद्ध, लोकप्रिय सामाजिक कार्यकर्ता व झारखण्ड मुक्ति मोर्चा महिला मंच में अग्रिम पंक्ति की नेत्री शबनम खातुन ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा कि पुरुषों की परंपरागत मानसिकता व व्यवहार में जब तक बदलाव नहीं होगा, महिलाएँ मुख्य धारा से नहीं जुड़ सकेंगी। गाँव-देहात की बात हो या फिर शहरों-महानगरों की बात। तमाम जगहों पर महिलाएँ अपने-अपने अधिकारों से वंचित और संधर्षरत दिखलायी पड़ती हैं। दलित, आदिवासी, पिछड़ी व अल्पसंख्यक बाहुल्य क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति और भी भयावह है। झाड़-फूँक, ओझागुनी, डायन-बिसाही, के नाम पर संताल परगना प्रमण्डल के विभिन्न जिलों में जहाँ एक ओर महिलाओं को प्रताड़ित कर उनकी हत्या तक कर देने की घटनाएँ अवाम को शर्मसार कर जाती हैं, वहीं दूसरी ओर मासूम व कमउम्र बच्चियों, युवतियों-महिलाओं के साथ बलात्कार व सामुहिक गैंगरेप की घटनाएँ राष्ट्रीय चिन्ता का विषय बन जाती हैं। घर, परिवार, समाज की पूरी व्यवस्था को साथ लेकर चलने वाली बहन-बेटियों, माताओं के साथ ऐसे अमानवीय व्यवहार पर राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों, सरकारों व आम-अवाम की चुप्पी इस बात का द्योतक है कि महिलाएँ किसी भी अवस्था में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर न चल सके। आगे न बढ़ सके। लोकप्रिय सामाजिक कार्यकर्ता व झामुमों महिला मंच में अग्रिम पंक्ति की नेत्री शबनम खातुन का कहना है सरकारी/ गैर सरकारी क्षेत्रों में नौकरी-पेशा से लेकर रोजगार के छोटे-छोटे अवसरों तक से महिलाओं को वंचित रखा जाता है। राजनीति में महिलाओं को आगे बढ़ने का अवसर ही नहीं दिया जाता। राजनीति में जब तक महिलाओं को अपनी बात रखने की आजादी नहीं होगी उनकी समस्याएँ कम नहीं होंगी। महिलाओं को खुद सोंचने, समझने-बूझने, व निर्णय लेने का अधिकार देना होगा। घर, परिवार, रिश्तों के दायित्वों का निर्वहण करते हुए समाज में शोषित वंचित, उपेक्षित व पीड़ित, तबकों के बीच काम करने से बड़ा अनुभव होता है। जनता कीी भावनाओं का ख्याल रखने वाले ही अवाम की आँखों मंे बसे होते हैं। दकियानूसी विचारधाराओं को त्याग कर पुरुष प्रधान समाज को महिला अधिकार के प्रति गंभीर रहने की जरुरत है। महिलाआंे की अस्मिता तभी बची रह सकती है।
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