रोहतास जिले के डिहरी विधान सभा क्षेत्र के लिए होने वाले उपचुनाव लड़ने को लेकर कई साथी सवाल पूछते हैं। मैदान में उतरने का औचित्य भी पूछते हैं। स्वाभाविक है कि विधानसभा के प्रेस दीर्घा में बैठने वाले पत्रकार को सदन में बैठने की बेचैनी क्यों है। दरअसल हम विधान सभा की 33 सीढि़यों का फासला पाटना चाहते हैं। बिहार विधान सभा का ग्राउंड फ्लोर और प्रथम तल के बीच 33 सीढि़यों का फासला है। ग्राउंड फ्लोर पर विधान सभा का सदन है तो प्रथम तल पर पत्रकार दीर्घा बना हुआ है। प्रथम तल पर नेता प्रतिपक्ष, संसदीय कार्यमंत्री का कार्यालय के साथ ही प्रेस रूम भी बना हुआ है। अब तक कितने पत्रकार विधायक बने हैं, इसका सही आंकड़ा हमारे पास नहीं है। इस मामले में उर्दू अखबार वाले ज्यादा सौभाग्यशाली हैं। विधान सभा के स्पीकर रहे गुलाम सरवर भी पत्रकार ही थे। यह सही है कि चुनाव लड़ने का निर्णय हमारी महत्वाकांक्षाओं की अति है। बिना संसाधन के चुनाव मैदान में उतरने को मजाक में भी उड़ाया जा सकता है। चंदा लेकर चुनाव लड़ना मजाक का विषय ही हो सकता है। दूसरे अन्य उम्मीदवारों के संसाधनों की आंधी में चंदा का तिनका कहां ठहरेगा। इससे हम भी अवगत हैं। लेकिन हम अपने मुद्दों के लिए चुनाव लड़ना चाहते हैं। अपने मुद्दों को मंच देने के लिए चुनाव लड़ना चाहते हैं। असल में हम विधान सभा की 33 सीढि़यों का अंतर समाप्त करना चाहते हैं। प्रेस दीर्घा से निकलकर विधानसभा के सदन में बैठना चाहते हैं। प्रेस दीर्घा से सदन तक पहुंचने में बमुश्किल 60 से 70 सेकेंड लगता है। लेकिन प्रेस दीर्घा में बैठने और सदन में बैठने के अंतर को पाटना में पूरी चुनावी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। जनता की अदालत में जनता के सवालों का जवाब देना पड़ता है। जनता को भरोसा दिलाना पड़ता है। टिकट से लेकर वोट तक की कीमत चुकानी पड़ती है। हालांकि हम टिकट और वोट की कीमत चुकाने की चिंता से मुक्त हैं। चुनाव जीत गये तो सदन की कार्यवाही में शामिल होंगे और हार गये तो कार्यवाही की खबर आप तक पहुंचाते रहेंगे। लेकिन बैठेंगे तो बिहारे विधान सभा में।
---बीरेंद्र यादव---
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