विशेष : पुलिस की विश्वसनीयता ही सफलता का सूत्र है - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 8 जुलाई 2019

विशेष : पुलिस की विश्वसनीयता ही सफलता का सूत्र है

एक शब्द है ’’विश्वास,’’ जीवन के प्रत्येक कर्मक्षेत्र में ’’विश्वास’’ की स्थापना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जिस व्यक्ति, संस्थान अथवा शासकीय विभाग ने अपने कार्य-क्षेत्र में ’’विश्वास’’ की स्थापना कर ली, वह सफलता के शिखर पर पहुंचेगा और सर्वत्र प्रशंसनीय होगा। ग्राहक का दुकानदार के प्रति ’’विश्वास,’’ मरीज का चिकित्सक के प्रति ’’विश्वास,’’ मुवक्किल का वकील के प्रति ’’विश्वास,’’ मतदाता का राजनेता के प्रति ’’विश्वास,’’ वादी-प्रतिवादी का न्याय-व्यवस्था के प्रति ’’विश्वास,’’ पीड़ित का प्रशासनिक व्यवस्था के प्रति ’’विश्वास’’ और आम-जनता का पुलिस के प्रति ’’विश्वास।’’ अर्थात् प्रत्येक क्षेत्र में ’’विश्वास’’ ही एक ऐसी धुरी है जो कर्म एवं व्यवस्था के तन्त्र को सुचारु रुप से संचालित करता है। व्यापारी जब अपने सही माल व मूल्य के प्रति ग्राहक में ’’विश्वास’’ स्थापित कर लेता है तो उसका व्यापार अच्छा चलता है। जब एक चिकित्सक अथवा चिकित्सा संस्थान अपने मरीज के प्रति यह ’’विश्वास’’ अर्जित कर लेता है कि मरीज का अनावश्यक पैसा व्यय नहीं कराया जाएगा और उसे सही इलाज प्राप्त होगा तो चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सक-विशेष के ’’विश्वास’’ की स्थापना हो जाती है। वकालत के क्षेत्र में जब कोई वकील अपने क्लिाईन्ट में यह ’’विश्वास’’ स्थापित कर देता है कि जो भी सलाह मिलेगी वह सही व उचित होगी और उसका अभिभाषक अनावश्यक व्यय नहीं करावेगा, उस स्थिति में अभिभाषक-विशेष का स्थान स्थापित हो जाएगा। भारत में प्रजातन्त्र से ही प्रशासन चलता है और सŸाा संचालित होती है एवं विधायिका का निर्माण जनता के द्वारा होता है। अर्थात् जनता के लिये, जनता के द्वारा, जनता का शासन। यदि जनप्रतिनिधि ऐसा करेगा कि चुनाव के समय तो बड़ी-बड़ी बातें और उसके बाद ’बाबाजी ठुल्लू।’ इसलिये जिस जनप्रतिनिधि ने मतदाता में अपने चुनावी वायदों और कार्यों के लेखा-जोखा में विश्वास की स्थापना कर ली, वही राजनीति में सफल हो पाएगा। देश की सम्पूर्ण न्याय-व्यवस्था कानून से संचालित है। न्याय-दान की कुर्सी पर जो भी न्यायाधीश बैठा है न्याय करने में उसकी संवेदनशीलता के ’’विश्वास’’ की स्थापना जब आम-जनता में होने लगे तो प्रकरण के पक्षकारों मे  न्याय-व्यवस्था के प्रति ’’विश्वास’’ की स्थापना होने लगती है।  विषय से जुड़ते हुए विचारणीय यह है कि आम-जनता और पीड़ित व्यक्ति को बिना कोई शंका के अपनी फरियाद और न्याय दिलाने के प्रति भारत की पुलिस पर क्या पूर्णतः विश्वास है ? प्रत्येक क्षेत्र, प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति का सीधा सम्बन्ध व्यवहारिक एवं मानसिक रुप में पुलिस से जुड़ा रहता है। पुलिस की सफलता इसी कसौटी पर निर्धारित् है कि आम-जनता में पुलिस के प्रति ’’विश्वास’’ की स्थापना हो। जनता को यह विश्वास हो कि ’पुलिस तो है’! अपराधी को यह भय हो कि ’पुलिस तो है’! परन्तु जनता में क्या ऐसा ’’विश्वास’’ है ? किसी भी राज्य, जिला, शहर अथवा गांव में पुलिस की कार्यशैली के द्वारा ’’विश्वास’’ की स्थापना होना आवश्यक है और जिस जिले की आम-जनता में पुलिस के प्रति ऐसे ’’विश्वास’’ की स्थापना जितने अनुपात में होगी, तब यह कहा जा सकेगा कि उस क्षेत्र में पुलिस का कार्य सन्तोषजनक है। 

मूल तत्व है ’’विश्वास।’’ पुलिस पर विश्वास बनाए रखना और पुलिस की कार्यशैली से जनता में विश्वास की स्थापना होना, ये दोनों द्विपक्षीय पाले हैं। जहां तक पुलिस पर विश्वास करने का प्रश्न है, तो आम-जनता को पुलिस पर विश्वास तो करना ही होता है और इसके अलावा दीन-हीन, गरीब, पीड़ित व्यक्ति की मजबूरी भी है और  अन्य कोई विकल्प भी उसके समक्ष नहीं है, इसीलिए वह पुलिस पर विश्वास करता है। परन्तु जब इस विश्वास की अवधांरणा खंण्डित होती है और ऐसे ’’विश्वास’’ की हत्या होती है तब आम पीड़ित व्यक्ति बहुत दुखी होता है। लेकिन विषय की गहराई में जाने पर यह तो स्पष्ट है कि जनता को पुलिस पर विश्वास करने के लिये कुछ करना नहीं है, सिर्फ सोचना है, सिर्फ मानसिकता निर्मित करनी है। लेकिन प्रश्न तो यह है कि आम-जनता में ऐसी मानसिकता और चिन्तन कैसे निर्मित हो ? ऐसे सोच व विश्वास की स्थापना के लिए तो जो कुछ करना है, वह तो पुलिस को ही करना है। निष्कर्ष यह है कि पुलिस के प्रति जनता में ’’विश्वास’’ स्थापित करने की जिम्मेदारी स्वयं पुलिस की कार्यशैली पर निर्भर करती है।  हम देखतें हैं कि अधिकांश झगड़े संवादहीनता के कारण ही होते हैं। संवाद का तात्पर्य सिर्फ इतना भर नहीं है कि कोई बात कही गई और सुन ली गई है। मन के अन्दर उत्पन्न हुए भाव को भाषा के माध्यम से शब्दो में पिरो कर प्रकटीकरण करना ही तो ’संवाद’ है। भाव का आदान-प्रदान ही वास्तविक संवाद है। बोलने वाले और सुनने वाले का मानसिक पटल जब एक जैसा होगा, तो यह कहा जा सकता है कि बात कही गई, सुनी गई और समझी गई। परन्तु यदि मानसिक पटल सुनने वाले का भिन्न है तो निश्चित ही बात सुन तो ली गई है, परन्तु समझी नहीं गई। पीड़ित व्यक्ति के मानसिक पटल पर यदि पीड़ा है और वह पुलिस थाना में शिकायत लेकर पहुंचा है तो उस स्थिति में पीड़ित की मानसिकता में उसके भाव को समझने के लिये पुलिस को उतरना पड़ेगा। तभी पीड़ित का दुख समझा जा सकता है और न्याय मिल सकता है। परन्तु यदि प्रारम्भ में ही उसे झूंठ मान लिया जाए अथवा उसे दुत्कारा जाए, तब तो यही कहा जाएगा कि पीड़ित की फरियाद को समझा नहीं गया। पुलिस थानों में यदि पीड़ित व्यक्ति का मुस्कराहट के साथ स्वागत हो, उसे बैठने की व्यवस्था हो, उसके साथ अपराधियों जैसा व्यवहार नहीं हो, तो आधी समस्या का हल मानसिक रुप से पीड़ित को तत्क्षंण ही मिल जाता है। 
इस लेख की विषय वस्तु पुलिस की कार्यशैली में सुधार से जुड़ी हुई है और एक समारोह में ऐसी ही चर्चा मे मेरे विचार उपरोक्तानुसार प्रकट किए गए तो वहां उपस्थित एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने सम्पूर्ण चर्चा को पुलिस की बुराई व छबि पर प्रश्न दागना मान लिया। मैं भी अपना सिर पकड़ कर बैठ गया और समझ गया कि यहीं से संवादहीनता का प्रथम चरण प्रारम्भ हो चुका है। जब तक विषय के केन्द्र बिन्दु को समझा ही नहीं जाएगा तब तक उस पर चर्चा सारहीन रहेगी। सच तो यह है कि समझने की बात तो अलग है, हम सुनना भी नहीं चाहते हैं ! संवादहीनता तो इस स्तर पर हो चुकी है कि हम किन्हीं सुधार के बावत् चर्चा करना भी पसंद नहीं करते हैं। उन पुलिस अधिकारी ने प्रतिक्रिया में तत्काल जबाव दिया कि जब शहर की जनता रात के समय सो रही होती है तो उसे यह आभास करना चाहिए कि वह पुलिस के कारण सो पा रही है। यह तो स्वयं की शाबासी के साथ स्वयं की पीठ थपथपाने जैसा है। चलिए, एक कल्पना करिए, इस समय देश में कोई भी कानून नहीं है, कहीं कोई पुलिस नहीं है, कहीं कोई न्यायालय नहीं है, कहीं कोई व्यवस्था के लिए कोई कुछ भी कहने वाला नहीं है। तो प्रश्न यह है कि क्या इसी क्षंण मार-काट मच जाएगी ? कतई नहीं। इस देश का आम-नागरिक आध्यात्मिक स्तर पर सही और गलत का चयन करने वाला है, वह पाप और पुंण्य के भेद को समझता है, उसके हृदय में करुणा और दया का भाव है और बिना किसी कानून के वह पीड़ित व्यक्ति की सहायता करने को आतुर रहता है। वह यदि पीड़ित को सहयोग और सहायता से बिमुख है भी, तो सिर्फ पुलिस के झमेले से बचने के कारण। देश में अभी वह स्थिति नहीं आई है कि जब रास्ते में चलने वाला 80 वर्ष का बृृद्ध व्यक्ति पत्थर की ठोकर लगने के कारण से गिर जाए और इस हेतु भी कोई कानून बनाना पड़े कि ’जब रास्ते में चलने वाला असहाय बृद्ध अचानक गिर जाए तो वहां निकलने वाला प्रत्येक नागरिक उसे उठाने और सहारा देने के लिये बाध्य होगा, और जो ऐसा नहीं करेगा वह पांच सौ रुपए के अर्थदंण्ड दंण्डनीय होगा।’ मैं समझता हूं कि भारत में इस प्रकार की संवेदनहीनता कभी नहीं होगी और इस प्रकार के कानून बनाने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। सामान्यतया देश का आम व्यक्ति स्वयं नियंन्त्रित रहता है। वह स्वयं सड़क के बांए तरफ चलता है। उसे कोई पुलिस वाला यह कहने नहीं आता कि सड़क के बांए तरफ चलो। हां, यह अवश्य है कि समाज मे कुछ अराजक, आपराधिक, असंवेदनशील, असभ्य, आतताई, आतंक निर्मित करने वाले लोग भी होते हैं और पुलिस की सक्रिय भूमिका उनके सन्दर्भ मे वांछित है। आवश्यकता तो यह है कि पुलिस उनके प्रति सख्ती बरते। 

समाज मे अच्छे लोग अधिक हैं जो स्वनियन्त्रित, व्यवस्था-पसन्द हैं। पुलिस को उनसे मित्रता के सम्बन्ध बनाना चाहिए। समय-समय पर सेमीनार आयोजित होना चाहिए जिसमे पुलिस प्रशासन मे सुधार विषय पर चर्चा हो। तत्कालीन पुलिस आधीक्षकों के द्वारा आयोजित अनेकों सेमीनार मे मैने अपने शासकीय-अभिभाषक कार्यकाल के दौरान अपराध के अनुसंधान की बारीकियों पर चर्चाएं की हैं। स्विट्जरलेण्ड की महिला से हुआ सामूहिक बलात्कार के प्रकरण मे जब उसने भय के कारण न्यायालय मे उपस्थिति से व कथन देने से इन्कार कर दिया था और तत्समय के पुलिस महानिरीक्षक श्री अफजल, कलेक्टर श्री भोंडवे व एस.पी श्री चन्द्र शेखर सोलंकी ने इस समस्या से निपटने के लिये पूरी जिम्मेदारी मुझ पर सौंप दी थी। तब दिल्ली स्थित स्विट्जरलेण्ड दूतावास के एम्बेस्डर से मैने सम्पर्क कर उस महिला को स्विट्जरलेण्ड से बुला कर स्विट्जरलेण्ड एम्बेसी मे ही कमीशन पर दिल्ली के मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट श्री आकाश जैन को कमिश्नर नियुक्त करा कर उसका कथन लेख कराया था। परिणमतः पीड़ित को न्याय मिला और सभी को आजीवन कारावास हुआ। उस सम्पूर्ण प्रक्रिया मे हुई कानूनी कठिनाई के सन्दर्भ मे भोपाल की एकेडेमी मे एक विशेष सेमीनार आयोजित हुई थी जिसमे मेरा उद्बोधन कराया गया था और कानून की बारीकियों को पुलिस अधिकारियों ने समझा था। उसी दौरान एक सात वर्षीय लड़की के साथ बलात्कार व उसकी हत्या के प्रकरण मे आरोपी को फांसी की सजा अपराध घटित होने के तीन माह मे मेरे अपने शासकीय-अभिभाषक कार्यकाल के दौरान हुई थी, जिसकी पुष्टि उच्च न्यायालस से भी हो चुकी है। पुलिस की प्रशासनिक व्यवस्था मे सुधार जैसे विषय को हमेशा स्वागत योग्य मानना चाहिए। जीवन मे और अच्छा तभी बना जा सकता है, जब सच्चाई का आयना दिखाने वाला मित्र हो।




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राजेन्द्र तिवारी, अभिभाषक, छोटा बाजार दतिया
फोन- 07522-238333, 9425116738
rajendra.rt.tiwari@gmail.com
नोट:- लेखक एक पूर्व शासकीय एवं वरिष्ठ अभिभाषक व राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक आध्यात्मिक विषयों 
के समालोचक हैं।

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