विशेष : प्रकृति का अनमोल तोहफा है ‘मकर संक्रांति’ - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।

सोमवार, 13 जनवरी 2020

विशेष : प्रकृति का अनमोल तोहफा है ‘मकर संक्रांति’

संक्रांति शब्द का अर्थ है- मिलन, एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक का मार्ग, सूर्य या किसी ग्रह का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना, दो युगों या विचारधाराओं के संघर्ष से परिवर्तित होते वातावरण से उत्पन्न स्थितियां। संक्रांत होना ही जीवन है। परिवर्तन और संधि- इसके दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं, जिन्हें समझना जरूरी है। जैसे धनु और मकर। जैसे फल और फूल। जैसे बचपन और यौवन। जैसे परंपरा और आधुनिकता। जैसे शब्द और वाक्य। एक-दूसरे से जुड़ना, बदलना और विस्तार या विनिमय। खिचड़ी का भी यही भाव है। खिचड़ी यानी मिश्रण। विश्व के सारे समाजों और संस्कृतियों का मूलाधार ही है- मिश्रण। मकर संक्रांति को सूर्य की गति से निर्धारित किया जाता है। बच्चे की विस्मय भावना में व सृजनशील कलाकार की कल्पना में हर सूर्योदय अपने प्रकार का पहला सूर्योदय होता है। जीवन को अंधकार से उजाले की ओर ले जाने का। यही एक ऐसा पर्व है जो नए साल के शुरु होते ही हर किसी के मन में उत्साह और उमंग भर देता है। यही वजह है कि भारतीयों का असली नव वर्ष मकर संक्रांति का दिन ही होता है। कहते है इस दिन स्नान-दान करने से दस हजार अश्वमेघ यज्ञ जितना पुण्य फल की प्राप्ति होती है। साथ ही जटिल से जटिल रोगों का निवारण भी होता है   
makar-sankranti
दान-पुण्य का महापर्व मकर संक्रांति भगवान सूर्य की आराधना का पर्व है। चूकि शनि सूर्य पुत्र है और इस दिन सूर्य का शनि से मिलन होने के चलते यह पर्व काफी महत्वपूर्ण है। मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन ही सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने के उनके राशि में प्रवेश करते है। इसीलिए मकर संक्रांति सूर्य उपासना का पर्व है। जो जीवन की वजह है और आधार भी। मान्यता है कि मकर राशि के स्वामी शनिदेव है, जो सूर्य के पुत्र होते हुए भी सूर्य से शत्रु भाव रखते है। शनिदेव के घर में सूर्यदेव की उपस्थिति के दौरान शनि उन्हें कष्ट न दें, इसीलिए इस दिन तिल का दान व सेवन किया जाता है। मान्यता है कि इस दिन गंगा, युमना और सरस्वती के संगम, प्रयाग मे सभी देवी देवता अपना स्वरूप बदलकर स्नान के लिए आते है। इसलिए इस दिन दान, तप, जप का विशेष महत्व है। इस दिन गंगा स्नान करने से सभी कष्टों का निवारण हो जाता है। गुड, तिल आदि का इसमें शामिल होना इस बात का संदेश देता है कि मन के हर बैर मिटाकर एक-दुसरे से मीठा बोलो। इसीलिए इस दिन बड़े के हाथों से तिल-गुड़ का प्रसाद लेना सबसे अहम् माना जाता है।  इस दिन ब्राहमणों को अनाज, वस्त्र, उनी कपड़े आदि दान करने से शारीरिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। इस दिन से सूर्य एक राशि में एक माह तक रहते हैं और कुछ लोग पंचांग संक्रांति से ही महीने का आरंभ मानते हैं। बारह राशियों में सूर्य के आगमन के कारण एक वर्ष में बारह संक्रांति होती हैं। मकर संक्रांति का महत्व सर्वाधिक है, क्योंकि इसी दिन से सूर्य उत्तरायण होते हैं और रात की अपेक्षा दिन बड़ा होना शुरू होता है। आम तौर पर शुक्र का उदय भी लगभग इसी समय होता है। इसीलिए इस दिन से शुभ कार्यों की शुरुआत होती है। कहते हैं अगर कुंडली में सूर्य या शनि की स्थिति खराब हो तो इस पर्व पर विशेष तरह की पूजा से मुक्ति पाई जा सकती है। जिस परिवार में रोग कलह तथा अशांति हो, वे अपनी रसोई घर में ग्रहों के विशेष नवान्न से पूजा कर संकट से छुटकारा पा सकते है।  अक्षय उर्जा के स्रोत सूर्य देवता ज्योतिष विज्ञान और प्रकृति दोनों के ही आधार है। उनकी आराधना से दैहिक, दैविक और भौतिक तापों का क्षय होता है। इस दिन चावल और काली उड़द की दाल से मिश्रित खिचड़ी बनाकर खाने व दान करने का भी विधान है। इसके पीछे यह वैज्ञानिक आधार है कि इसमें शीत को शांत करने की शक्ति होती है। आकाश में उड़ती पतंगे भी इस पर्व की परंपरा का ही हिस्सा है, जो इस बात को बताती है कि उंचाईयों को छू लों। इस दिन सुबह से उल्लास छा जाता है। रसोई से उठती सोधी खुशबू दिल में उतर जाती है और महक जाता है सारा घर-आंगन। परिवर्तन शाश्वत है, परंतु उसे सकारात्मक बनाना मनुष्य की सृजनात्मकता है। संक्रांति से प्रकाश अधिक और अंधकार कम होने का भाव इसी मांगल्य का प्रतीक है। उसमें समन्वयन यानी खिचड़ी, संगमन, मिष्ठान भाव, स्नान का सहस्रशीर्ष अनुभव, लोकमन की संपृक्ति एक साथ एकत्र हैं। वैदिक ज्योतिष में सूर्य को नवग्रहों के राजा की उपाधि दी गई है। यह आत्मा, पिता और सरकारी सेवा का कारक माना जाता है। सूर्य को सिंह राशि का स्वामित्व प्राप्त है। 

एकता व समरसता की मजबूत कड़ी है मकर संक्रांति 
makar-sankranti
कहा जा सकता है मकर संक्रांति प्रगति, ओजस्विता, सामाजिक एकता व समरसता का पर्व है। यह सूर्योत्सव का द्योतक है। संपूर्ण भारतीय गणराज्य में कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं है, जहां यह पर्व किसी न किसी रुप में मनाया ना जाता रहा हो। वास्तव में यह एक ऐसा पर्व है जिसमें हमारे देश के बहुरंगी संस्कृति के दर्शन होते है। मतलब साफ है मकर संक्रांति जैसे त्योहार व्यक्तित्व व समाज को उस नैसर्गिकता की ओर ले जाते है, जहां व्यक्ति अपनी धरती की गंघ में डूब कर नव-उर्जा अर्जित करता है और उसके जीवन में उल्लास आता है। शायद यही वजह भी है कि भारत के प्रमुख त्योहारों में इसे महापर्व का दर्जा दिया गया है। हिन्दू धर्म में मकर यानी घडियाल को एक पवित्र जलचर माना गया है। यह माना जाता है कि हिन्दुओं के अधिकतर देवताओं का पदार्पण भूमध्य रेखा के उत्तर यानी उत्तरी गोलार्ध में हुआ है, इसीलिए सूर्य की उत्तरायण स्थिति शुभ को माना गया है। शास्त्रों में सूर्य के तेज, ओज और प्रकाश को लेकर अनेक प्रतिबिम्ब खींचे गए हैं। अथर्ववेद में कहा गया है, जैसे सूर्य प्रकाशमान हैं, तेज से भरे हुए हैं, उसी तरह से भगवान भास्कर मुझे भी तेज से भर दें। एक दूसरे बिम्ब के मुताबिक, महाराज सूर्य दक्षिण दिशा को जीत कर, वहां मौजूद अंधकार और शीत जैसे बैरियों का दलन करके अब अपने महान देश भारत को प्रस्थान कर रहे हैं। भारत में उनके इस तेजस्वी रूप की हर जगह जय-जयकार हो रही है। जैसे सूर्य नारायण अंधकार, शीत जैसे शत्रुओं का दलन करके प्रजा को ठिठुरन और संसार को तमस से छुड़ाते हैं, हमें भी अपने अंतरात्मा-रूपी सूर्य से तमस, विकार और विषयों को दूर करके जीवन को प्रकाश से भर देना चाहिए। मकर संक्राति का यही संदेश है। यदि कुंडली को ग्लोब का प्रतीक माना जाए तो यह राशि दक्षिण दिशा का द्योतक है। जब सूर्य अपनी दिशा बदलते हैं तो 12 संक्रातियां भी अपना पूर्व स्थान बदल देती हैं। इस दिन से सूर्य प्रतिदिन एक अंश आगे बढ़ते हैं। यही सूर्य के ओज का कारण है। भगवान भास्कर की रश्मियां इस दिन से प्रखर होने लगती हैं और धरती पर सूर्य का प्रकाश और भी तेजी के साथ पहुंचने लगता है। इस तरह वर्ष भर सूर्य सभी राशियों को पार करते हुए अपने अक्षांश पर पूरे 360 डिग्री घूम जाते हैं। इसी तरह पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ घूमते हुए अपने अक्ष के दोनों तरफ 23.27 डिग्री झुक जाती है। वैसे तो यह झुकाव उत्तरी ध्रुव की ओर होता है, लेकिन सूर्य दक्षिण की तरफ बढ़ते दिखाई पड़ते हैं। इसी को सूर्य का दक्षिणायन कहा जाता है। वहीं पर एक दूसरी क्रिया उत्तरायण की भी होती है। जब पृथ्वी दक्षिण धु्रव की ओर झुकती है, तब सूर्य उत्तर की ओर बढ़ते दिखाई देते हैं। सूर्य से जुड़ा होने के कारण यह पर्व प्रत्येक वर्ष 14 जनवरी को ही पड़ता है। सूर्य कर्क रेखा से जब आगे बढ़ते हैं, तब देवता पृथ्वी पर होते हैं।  

शुभ मुहूर्त 
इस बार मकर संक्रांति 15 जनवरी को मनाई जाएगी। इस दिन सुबह 8.33 मिनट पर सूर्य श्रवण नक्षत्र के साथ धनु से मकर रााशि में प्रवेश करेगा। यानी सुबह पुण्यकाल 8.33 से 12ः31 बजे तक व महापुण्य काल 8.33 से 09ः03 बजे तक है। श्रवण नक्षत्र के स्वामी शनि है। चंद्र पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में रहेगा और बुधवार को पंचमी तिथि रहेगी। इस दिन सर्वाथ सिद्धि व रवि, कुमार योग का संयोग भी रहेगा। सूर्य के राशि परिवर्तन के समय को लेकर पंचांग भेद भी हैं। सूर्य के राशि परिवर्तन का सभी 12 राशियों पर असर होगा। मेष राशि के लोगों को मिल सकती है सफलता। जबकि वृश्चिक राशि के लिए लाभदायक रहेगा यह समय। कुंभ राशि के लोगों को सावधान रहने की जरुरत है। 

लौकिक महत्व 
मान्यता है कि सूर्य के उत्तरायन होने से देवताओं के दिन की शुरुआत हो जाती है। इस वजह से इस पर्व का विशेष महत्व है। मकर संक्रांति पर सूर्य पूजन और पवित्र नदियों में स्नान करने और दान-पुण्य करने की प्राचीन परंपरा है। इस बार मकर संक्राति गंधर्व पर सवार होकर आएगी। अपवाहन मेष होगा। दिन भर दान-पुण्य और स्नान किया जा सकेगा। दिन भी बड़े होने लगेंगे। इसके साथ ही धनु मलमास भी समाप्त हो जाएगा और मांगलिक कार्य शुरू होंगे। इस दिन तिल निर्मित वस्तुओं का दान शनिदेव की विशेष कृपा को घर परिवार में लाता है। लोग घरों में इस दिन कई तरह के पकवान बनाते हैं, जिसमें एक पकवान खिचड़ी भी शामिल होता है। मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी बनाने और खाने की एक खास महत्व बताया गया है। यही वजह है कि इस पर्व को कई जगहों पर खिचड़ी पर्व भी कहा जाता है। इस दिन भगवान सूर्य को खिचड़ी का भोग लगाया जाता है और गुड़ तिल से बनी चीजें जैसे तिल के लड्डू, गजक, रेवड़ी को प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। इस दिन यदि कोई व्यक्ति खिचड़ी का सेवन करता है तो उसकी राशि में ग्रहों की स्थिती मजबूत बनती है।
मान्यता है कि मकर संक्रांति का पर्व ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, आद्यशक्ति और सूर्य की आराधना एवं उपासना का पावन व्रत है, जो तन-मन-आत्मा को शक्ति प्रदान करता है। सूर्य का किसी राशि विशेष पर भ्रमण करना संक्रांति कहलाता है। सूर्य हर माह में राशि का परिवर्तन करता है। वर्ष में बारह संक्रांतियां होती हैं परन्तु दो संक्रांतियां सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती हैं-मकर संक्रांति और कर्क संक्रांति। सूर्य जब मकर राशि में जाता है तब मकर संक्रांति होती है। मकर संक्रांति से अग्नि तत्त्व की शुरुआत होती है और कर्क संक्रांति से जल तत्त्व की। इस समय सूर्य उत्तरायण होता है अतः इस समय किये गए जप और दान का फल अनंत गुना होता है। इस दिन प्रयाग में पावन त्रिवेणी तट सहित हरिद्वार, नासिक, त्रयंबकेश्वर, गंगा सागर में लाखों-करोड़ों आस्थावान डूबकी लगाते हैं। ऐसी मान्यता है कि जब तक सूर्य पूर्व से दक्षिण की ओर चलता है, इस दौरान सूर्य की किरणों को खराब माना गया है, लेकिन जब सूर्य पूर्व से उत्तर की ओर गमन करने लगता है, तब उसकी किरणें सेहत और शांति को बढ़ाती हैं। इस वजह से साधु-संत और वे लोग जो आध्यात्मिक क्रियाओं से जुड़े हैं उन्हें शांति और सिद्धि प्राप्त होती है। अगर सरल शब्दों में कहा जाए तो पूर्व के कड़वे अनुभवों को भुलकर मनुष्य आगे की ओर बढ़ता है। स्वयं भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि, उत्तरायण के 6 माह के शुभ काल में, जब सूर्य देव उत्तरायण होते हैं, तब पृथ्वी प्रकाशमय होती है, अतः इस प्रकाश में शरीर का त्याग करने से मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता है और वह ब्रह्मा को प्राप्त होता है। महाभारत काल के दौरान भीष्म पितामह जिन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। उन्होंने भी मकर संक्रांति के दिन शरीर का त्याग किया था।

कल्पवास 
‘माघ मकर रवि गति जब होई, तीरथ पतीह आज सब कोई’ ‘माघ मकर रवि गति जब होई, तीरथ पतीह आज सब कोई’ अर्थात माघ माह में मकर राशि पर भगवान सूर्य आ जाते हैं और तीर्थों के राजा प्रयाग के संगमत तट पर धैर्य, अहिंसा व भक्ति का प्रतीक कल्पवास शुरू हो जाता है। कल्पवास का अपना अलग ही आध्यात्मिक महत्व होता है। बड़े-बड़े साधु व महात्माओं का प्रवचन सुनने को मिलता है। जहां पर धर्म की एक अलग ही दुनिया बसती है। इसी वजह से अनादि काल से प्रयाग ऋषियों व महात्माओं की तपोस्थली रही है। गंगा को स्वर्ग की नदी माना जाता है। यह पृथ्वी पर भगीरथ के तप से आयी और सगर के पुत्रों का उद्धार करते हुए सागर में मिल गयी। जिस दिन गंगा सागर में मिली थी वह मकर संक्रान्ति का दिन था। इसीलिए मकर संक्रांति से कुंभ संक्रांति तक लाखों श्रद्धालु प्रभु दर्शन का भाव लिए ‘मोक्ष’ की आस में कल्पवास करते है। कल्पवास का अर्थ कायाशोधन अथवा कायाकल्प है। सुख-सुविधा से परे, घर-परिवार व नाते-रिश्तेदारों दूर हजारों गृहस्थ गंगा की रेती पर धूनी रमा कर तप करते हैं। संतों के सानिध्य में आध्यात्मिक ऊर्जा हासिल होती है। हर कल्पवासी अपने तीर्थपुरोहित से संकल्प लेकर तप आरंभ करते हैं। सुख हो या दुःख, कल्पवास बीच में छोड़कर घर, परिवार या रिश्तेदार के यहां जाने की अनुमति नहीं होती। नियम का पालन न करने पर कल्पवास खंडित हो जाता है। अनुष्ठान, खाली समय में धार्मिक ग्रंथों एवं पुस्तकों का पाठ कल्पवासी के कर्म होते हैं। आस्थावानों का मानना है यहां स्नान से न सिर्फ मोक्ष की प्राप्ति होती है, बल्कि जनम-जनम के सारे कष्ट व पाप दूर हो जाते है। माया मोह से मुक्त माहभर कल्पवास के दौरान यहां जप-तप और यज्ञ-अनुष्ठान करने से मानसिक और आध्यात्मिक संतुष्टि के साथ ही शत्रुओं पर विजय का फल मिलता है। ‘अर्थ न धर्म न काम रुचि, गति न चहुं निर्वाण। जन्म-जन्म सियराम जी पद, यह वरदान दे आज’ अर्थात धर्म व पुण्य के लिए हमेशा भगवान के साथ मन लगा रहे इसलिए कल्पवास के समय एक माह तक यह वरदान मांगा जाता है। प्रतिदिन शांति व सुकून के साथ भगवान का स्मरण करना अद्भुत लगता है। शायद यही वजह है कि कुंभ देश ही नहीं सात समुंदर पार विदेशियों के भी आस्था का केन्द्र रहा है। साधु-संतों की मौजूदगी व उनके प्रवचन उन्हें यहां बरबस ही खींच लाते हैं। 

जीवन में भी होता है दीर्घजीवी उजाले का आलोकन 
मकर संक्रांति के दिन से सूर्य दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा की ओर बढ़ना शुरू हो जाता है और प्रकृति रूप निखरते हुए रोज आना नये उत्साह की ओर बढ़ती है। जैसे वृक्ष से पुराने पत्तों के टूटने ने बाद नये पत्तों का आना, नये-नये पौधों का जन्म होना तथा धीरे-धीरे सर्दी में सुकड़े हुए जीवन को समाप्त कर नये जीवन का उदय होता है। इससे प्रति वर्ष सूर्य का उत्तरायण होना हमारे जीवन में भी दीर्घजीवी उजाले का आलोकित करता है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने और तिल-गुड़ खाने के साथ ही हम उत्तरायण सूर्य की भी स्तुति करते हैं। इससे न सिर्फ वर्ष भर हमारे जीवन में मिठास घुली रहती है, बल्कि हमें सूर्य के प्रकाश से ऊर्जा मिलती रहती है। मकर संक्रांति पर्व जीवन को अंधकार से उजाले की ओर ले जाने का कार्य करता है। भारतीय लोगों के लिए असली नव वर्ष मकर संक्रांति का दिन ही होता है।

सूर्य ब्रह्मांड की आत्मा हैं 
सूर्य ऊर्जा और प्रकाश के पुंज हैं, इसलिए हम गायत्री मंत्र में कहते हैं, ‘तत सवितु वरेण्यं‘। वरेण्य तो सविता अर्थात सूर्य ही है, क्योंकि भारतीय संस्कृति अंधकार से उजाले की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। सूर्य केवल प्रकाश या ऊर्जा पुंज नहीं हैं। सूर्य ब्रह्मांड की आत्मा भी हैं, इसलिए उनकी स्तुति में कहते हैं, हे सूर्य! आप इन स्त्रोतों के कारण तीव्रगामी अश्वों के साथ हमारे सामने उदित हो रहे हैं। हम निष्पाप हुए। यह बात मित्र, वरुण, अर्यमा और अग्नि से भी कह दीजिए। व्यक्ति पुण्य स्नान-दान कर आत्मा से साक्षात्कार के पश्चात जीवन के उत्तर पथ का वरण करे, यही मकर संक्रांति का संदेश है। यही इसकी सार्थकता है। इसीलिए कभी भीष्म पितामह ने शर-शय्या पर सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की थी, क्योंकि यह काल मोक्षदाता है और यह काल प्रकाश के विस्तार की ओर इंगित करता है।  यह संदेश शायद हमसे कहता है कि तिल गुड़ खाकर जीवन में मिठास और स्निग्धता बनी रहे और कड़वेपन के दौर में भी हम मीठा-मीठा बोलें। वैसे भी दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि अर्थात नकारात्मकता और उत्तरायण को देवताओं का दिन यानी सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। यह सकारात्मकता एक-दूसरे से मिलने यानी संगम करने, दान करने और सहस्र शीर्षानुभव से आती है। यह दिन बताता है कि दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर जाना नकारात्मकता से सकारात्मकता और अंधकार से प्रकाश की ओर जाना है। सूर्य यानी तेज की तज्ञता। वास्तव में यह तेज बाहर और अंदर, दोनों में उतरना चाहिए। संक्रांति से प्रकाश अधिक और अंधकार कम होने का भाव इसी मांगल्य का प्रतीक है। उसमें समन्वयन यानी खिचड़ी, संगमन, मिष्ठान भाव, स्नान का सहस्रशीर्ष अनुभव, लोकमन की संपृक्ति एक साथ एकत्र हैं। 

स्नान का है विशेष महत्व 
माघ मासे महादेवः यो दास्यति घृत कंबलम्। स भुवत्वा सकलान भोगान अंते मोक्ष् प्राप्ति।। शायद इसीलिए गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम व गंगासागर स्नान का विशेष महत्व भी है। ठंड के बावजूद यहां करोडों आस्थावान डूबकी लगाते है। आस्थावानों का मानना है यहां स्नान से न सिर्फ मोक्ष की प्राप्ति होती है, बल्कि जनम-जनम के सारे कष्ट व पाप दूर हो जाते है। माया मोह से मुक्त माहभर कल्पवास के दौरान यहां जप-तप और यज्ञ-अनुष्ठान करने से मानसिक और आध्यात्मिक संतुष्टि के साथ ही शत्रुओं पर विजय का फल मिलता है। ‘अर्थ न धर्म न काम रुचि, गति न चहुं निर्वाण। जन्म-जन्म सियराम जी पद, यह वरदान दे आज’ अर्थात धर्म व पुण्य के लिए हमेशा भगवान के साथ मन लगा रहे इसलिए कल्पवास के समय एक माह तक यह वरदान मांगा जाता है। प्रतिदिन शांति व सुकून के साथ भगवान का स्मरण करना अद्भुत लगता है। शायद यही वजह है कि कुंभ देश ही नहीं सात समुंदर पार विदेशियों के भी आस्था का केन्द्र रहा है। साधु-संतों की मौजूदगी व उनके प्रवचन उन्हें यहां बरबस ही खींच लाते हैं। अगर आपके लिए यह संभव न हो कि आप गंगा स्नान के लिए इस दिन गंगा तट पर जा सकें तो घर में ही स्नान के लिए जो जल हो उसमें गंगा जल मिलाकर स्नान करते हुए ॐ ह्रीं गंगाय्ये ॐ ह्रीं स्वाहा मंत्र जप करें तो घर में ही गंगा स्नान का पुण्य प्राप्त कर सकते हैं। प्रयाग में अगला महाकुंभ मेला 2025 में लगेगा। 

सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एकबार   
पूरे वर्ष में केवल एक दिन मकर संक्रांति के दिन ही गंगासागर में पुण्य महास्नान की परंपरा है। संभवतः इसीलिए कहा जाता है सारे तीर्थ बार-बार गंगा सागर एक बार। इस दिन गंगासागर महातीर्थ स्थल में बदल जाता है। देश के कोने-कोने से विभिन्न परंपराओं, भाषाओं, संस्कारों व संप्रदायों के लोग गंगासागर पहुंचते हैं। इनमें बिहार, मध्यप्रदेश, झारखंड, उत्तर प्रदेश के श्रद्धालुओं के साथ-साथ देश के सुदूर पश्चिम में स्थित राजस्थान व गुजरात के लोग भी शामिल होते है। झुंड में चल रहे गृहस्थों के अलग विभिन्न परंपराओं व संप्रदायों के साधु-संयासियों का जत्था भी होता है। इसमें मोबाइल बाबा, होंडा बाबा, लक्खड़ बाबा से लेकर नागा बाबाओं का झुंड शामिल होता है, जिनके अलग-अलग अनुशासन व पंत होते है, लेकिन विविध-विविध स्वरुप, रंग-रुप, भाषा और विश्वास के बावजूद सभी का एक ही उद्देश्य होता है, वह है पतित पावनी गंगासागर में मिलनस्थल का संगमस्थल मोक्षदायिनी गंगासागर में स्नान करना। गंगासागर प्राचीन काल से ही कपिलमुनि के साधनास्थल के रुप में विख्यात है। कपिलमुनि आश्रम एवं गंगासागर तीर्थस्थल को सन्यासियों एवं धार्मिक आस्था के लोगों के लिए महापीठ माना गया है। इस स्थल पर ही राजा सागर के 60 हजार पुत्र भस्मिभूत हुए थे। बाद में राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए कठोर तपस्या की। उन्हीं की तपस्या से प्रसंन होकर मां गंगा उनके पीछे-पीछे धरती पर अवतरित हुई। मां गंगा के निर्मल जल से ही सागर के 60 हजार पुत्रों को मोक्ष की प्राप्ति हुई। शास्त्रों में उल्लेख है कि गंगा देवी चर्तुदश भुवन को पवित्र कर सकती है। गंगा सभी तीर्थो की जननी है। सभी तीर्थ स्नान और तीर्थस्थल भ्रमण से जो पुण्य लाभ प्राप्त होता है वह सभी लाभ एकमात्र गंगासागर स्नान से ही प्राप्त इहो जाता है। गंगासागर द्वीप का प्रमुख आकर्षण महर्षि कपिलमुनि का मंदिर है। हालांक कपिलमुनि के आश्रम का जिक्र विभिन्न ऐतिहासिक व पौराणिक ग्रंथों में मिलता है लेकिन 197 में समुद्र से एक किमी दूर मंदिर के सेवायत श्रीमद पंच रामानंदी निर्वाणी अखाड़ा, हनुमानगढ़ी अयोध्या के महंतों द्वारा वर्तमान मंदिर का निर्माण कराया गया है। मंदिर में 6 शिलाओं पर 6 मूर्तियां है। ये मूर्तियां लक्ष्मी, घोड़े को पकड़े राजा इंद्र, गंगा, कपिलमुनि, राजा सागर और हनुमान जी की है। 

पूजन विधि 
मकर संक्रांति के दिन ब्रतामुहूर्त में नित्य कर्म से निवृत्त होकर शुद्ध स्थान पर कुशासन पर बैठें और पीले वस्त्र का आसन बिछा कर सवा किलो चावल और उड़द की दाल का मिश्रण कर पीले वस्त्र के आसन पर सम भाव से पांच ढेरी रखें। फिर दाहिने क्रम से पंचशक्तियों की मूर्ति, चित्र या यंत्र को ढेरी के ऊपर स्थापित कर सुगंधित धूप और दीपक प्रज्ज्वलित करें। इसके बाद एकाग्रचित हो एक-एक शक्ति का स्मरण कर चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, फल अर्पित कर पंचोकार विधि से पूजन सम्पन्न करें। आम की लकड़ी हवन कुंड में प्रज्ज्वलित कर शक्ति मंत्र की 108 आहुति अग्नि को समर्पित कर पुनः एक माला मंत्र जाप करें। वेद, पुराण के अनुसार यदि किसी भी देवी-देवता की साधना में उस शक्ति के गायत्री मंत्र का प्रयोग किया जाए तो सर्वाधिक फलित माना जाता है। इसलिए पंचशक्ति साधना में इसका प्रयोग करना चाहिए। श्री गणोश गायत्री मंत्र- ऊं तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ति प्रचोदयात्! श्री शिव गायत्री मंत्र- ऊं महादेवाय विद्महे रुद्रमूर्तये धीमहि तन्नो शिव प्रचोदयात! श्री विष्णु गायत्री मंत्र- ऊं श्री विष्णवे च विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुरू प्रचोदयात! महालक्ष्मी गायत्री मंत्र- ऊं महालक्ष्मयै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात! सूर्य गायत्री मंत्र- ऊं भास्कराय विद्महे महातेजाय धीमहि तन्नो सूर्य प्रचोदयात! मंत्र जाप समाप्त कर पंचशक्तियों की क्रमशः पंचज्योति के साथ आरती करें और पुष्पांजलि अर्पित कर तिल के लड्डू, फल, मिष्ठान्न, खिचड़ी, वस्त्र आदि का सामथ्र्य के अनुसार सुपात्र को दान दें। यदि दान की वस्तुओं की संख्या 14 हो तो विशेष शुभ माना जाता है। 

विभिन्न प्रांतों में है अलग-अलग मान्यताएं 
मकर संक्रांति उन गिने-चुने अवसरों में से एक है, जब पूरे देश में एक साथ पर्व-त्योहार अलग-अलग नाम से मनाएं जाते है। बिहार, झारखंड, बंगाल में संक्रांति, उत्तर प्रदेश में खिचड़ी, पंजाब में लोहड़ी, असम में बिहू तो दक्षिण भारत में पोंगल की धूम रहती है। झारखंड के कई इलाकों में टुसु व सोहराय पर्व का उत्साह चरम पर होता है। हमारा देश कृषि प्रधान रहा है। फसलों के पकने पर होली व दीवाली मनाएं जाते है, वहीं मकर संक्रांति के अवसर पर रबी की फसल को लहलहाता देख लोग उत्सवमय हो जाते हैं। धार्मिक महत्व के साथ-साथ मकर संक्रांति का भी लोक पक्ष भी बहुत सशक्त हैं। 

इस मंत्र का करें जाप 
श्री गणेश गायत्री मंत्र- ऊं तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ति प्रचोदयात्!
श्री शिव गायत्री मंत्र- ऊं महादेवाय विद्महे रुद्रमूर्तये धीमहि तन्नो शिव प्रचोदयात!
श्री विष्णु गायत्री मंत्र- ऊं श्री विष्णवे च विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुरू प्रचोदयात!
महालक्ष्मी गायत्री मंत्र- ऊं महालक्ष्मयै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात!
सूर्य गायत्री मंत्र- ऊं भास्कराय विद्महे महातेजाय धीमहि तन्नो सूर्य प्रचोदयात!




-- सुरेश गांधी --

कोई टिप्पणी नहीं: