विशेष आलेख : इंटरनेट को मौलिक अधिकार नहीं,दायित्व मानें - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 13 जनवरी 2020

विशेष आलेख : इंटरनेट को मौलिक अधिकार नहीं,दायित्व मानें

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सर्वोच्च न्यायालय  ने इंटरनेट के इस्तेमाल को मौलिक अधिकार माना है और जम्मू-कश्मीर  में  इंटरनेट पर लगी पाबंदियों की समीक्षा करनेे का निर्देश दिया है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला निश्चित रूप से बेहद दूरगामी और असरकारी है। इसमें संदेह नहीं कि इंटरनेट ने हमारी मुश्किलें आसान की है,इससे व्यापार सुगमता बढ़ी है ।  चीजों को जानने-समझने में आसानी हुई है,अध्ययन और अध्यापन में सहूलियत बढ़ी है लेकिन उसी क्रम में इंटरनेट का दुरुपयोग भी बढ़ा है।इंटरनेट से व्यक्ति शार्ट कट  अपनाने लगा है । अपराध बढ़ाने में,लोगों को उकसाने और भड़काने में भी इंटरनेट की बड़ी भूमिका है।अगर यह कहा जाए कि दुरुपयोग का स्तर सदुपयोग से कहीं अधिक है तो यह कदाचित गलत नहीं होगा। सोशल मीडिया  तो कोढ़ में खाज की भूमिका अदा  कर रही है। इस पर क्या-क्या लिखा जा रहा है,यह किसी से छिपा नहीं है।फेसबुक और व्हाट्सएप के कर्ता-धर्ता भी आपत्ति जनक वस्तुओं का अपलोड रोक पाने में अपनी विवशता जाहिर कर चुके हैं।ऐसे समय में इंटरनेट को मौलिक अधिकार करार देना कितना जायज है। अपने निर्णय पर एक बार विद्वान न्यायाधीश खुद चिंतन करें तो इससे देश का बड़ा भला होगा। वैसे सर्वोच्च न्यायालय ने खुद कहा है कि देश बहुत कठिन दौर से गुजर रहा है लेकिन उसे यह भी स्वीकारना होगा कि इस देश को नुकसान पहुंचाने वाले बाहरी काम, अपने लोग ज्यादा हैं। देश में सरकार के स्तर पर कुछ बड़े और कड़े फैसले भी हुए हैं।इन फैसलों पर  देश में सहमति और असहमति के स्वर भी तेज हुए हैं। क्रिया और प्रतिक्रिया भी हुई है। अदालतों में बहुत सारे  मामले इसी तरह के पहुंच रहे हैं।सोशल मीडिया की निरंकुशता पर तो अदालतें भी अपनी चिंता जाहिर कर चुकी हैं। अगर इंटरनेट का इस्तेमाल मौलिक अधिकार है तो उस पर चिंता तो होनी ही नहीं चाहिए । कश्मीर में धारा 370खत्म करने के बाद वहां  धारा 144 लागू करना और  इंटरनेट पर रोक लगाना वक्ती जरूरत थी।स्थानीय नेता और यहां तक कि देश के प्रमुख विरोधी दल भी जिस तरह के विरोधाभासी बयान दे रहे थे,ऐसे में सरकार के पास यही एक विकल्प बचता है ।सरकार अगर ऐसा न करती तो इस निर्णय के बाद कितने उपद्रव होते,कितनी जानें जातीं,यह किसी से छिपा नहीं है । यह सच है कि जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त 2019 से इंटरनेट पर प्रतिबंध लगा है।निषेधाज्ञा लागू है लेकिन सरकार ने बीच-बीच में निषेधाज्ञा भी हटाई है और इंटरनेट को भी प्रतिबंध मुक्त किया है लेकिन कुछ लोग चाहते ही नहीं कि  धरा के इस स्वर्ग पर अमन-चैन का राज हो।सरकार जनता की है।वह चाहकर भी जनता के खिलाफ नहीं जा सकती।लोकतंत्र में ऐसा कर पाना मुमकिन भी नहीं है। 5अगस्त 2019 के बाद ऐसे अनेक अवसर आए हैं जब सरकार ने कश्मीर घाटी के राजनीतिक कार्यकर्ताओं को रिहा किया है।मेल,फोन,मैसेजिंग आदि पर से प्रतिबंध हटाए हैं लेकिन पत्थरबाजों और उपद्रवियों की शरारतों ने घाटी  का सुख चैन छीन लिया  ।ऐसा नहीं कि सरकार को जनता की असुविधाओं का ध्यान नहीं है लेकिन  जो लोग कश्मीर हितों के हिमायती बनते हैं,वे चाहते ही नहीं कि कश्मीर में हालात सुधरें।

सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय में दम है कि दर 144 को लंबे समय तक जारी नहीं रखा जा सकता। उसने तुरंत प्रतिबंध हटाने को इसलिए नहीं कहा क्योंकि न्यायालय को भी पता है कि इस तरह के आदेश देने के नफा और नुकसान क्या हैं। अलबत्ते उसने  मीडिया के लिए  इंटरनेट से प्रतिबंध हटाने की मांग की है।हाल ही में जम्मू-कश्मीर में दो दर्जन से अधिक लोगो के ऊपर से जान सुरक्षा कानून हटाया गया है।कांग्रेस का आरोप है कि घाटी में भाजपा के नेताओं पर कोई पाबंदी नहीं है,सारी पाबंदी विपक्ष के लिए है।इस तरह के निराधार आरोपण से किसका और कितना भला होता है,विचार तो इस पर भी होना चाहिए। विपक्ष सर्वोच्च न्यालय के इस निर्णय में अपनी जीत और भाजपा की हार देख रहा है।नागरिकता संशोधन कानून पर उसके आरोप उद्वेलित करने वाले हैं।देश में कई जगह हिंसाएं भी हुईं।इंटरनेट पर रोक भी लगानी पड़ी।उत्तर प्रदेश में तो कई उपद्रवी पकड़े भी गए।अब विपक्षी नेता उनके घरों की दौड़ लगा रहे हैं।उनके लिए देश प्रथम नहीं,राजनीति प्रथम है। अपना हित मायने रखता है।भले ही सर्वोच्च न्यायालय ने इंटरनेट को मौलिक अधिकार कहा हो लेकिन  इसके  प्रभाव के साथ ही इससे उत्पन्न खतरों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।यह सच है कि इंटरनेट पर पाबंदी लगाने से पूर्व उचित कारण बताना होगा। किसी भी तरह की पाबंदी लगाने से पूर्व उसका औचित्य तो बताना ही चाहिए । सर्वोच्च न्यायालय का 130 पेज का यह फैसला इसलिए भी अहम है कि उसमें कहा गया है कि संविधान के 19ए और 19जी के तहतअभिव्यक्ति की आजादी और इंटरनेट के जरिए रोजगार को संवैधानिक अधिकार कहा गया है। मौलिक अधिकारों पर पाबंदी भी संविधान के अनुच्छेद 192 और 6 के तहत ही लगाई जानी चाहिए और उसे अनिश्चितकालीन बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए।धारा 370 की समाप्ति के बाद कश्मीर में कुछ पाबंदियां लगाई गई थी जिसके खिलाफ कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद,पत्रकार अनुराधा भसीन और अन्य के द्वारा जारी याचिकाओं की सुनवाई के क्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त निर्णय दिया है। अच्छा होता कि पक्ष और विपक्ष उसकी अहमियत को समझ नहीं पता।इंटरनेट,मोबाइल आज की जरूरत है लेकिन इसके लिए जरूरी है कि हम उसका सही इस्तेमाल करें।अगर इसके जरिए हम अपने कारोबार को इंटरनेट के जरिये बढ़ाएं।सरकार भी डिजिटल भारत की ओर बढ़ रही है ।इंटरनेट पर प्रतिबंध से उसके सपने भी टूटते हैं।इंटरनेट जन-जन की जरूरत है लेकिन हर जरूरत की अपनी मर्यादा होती है।हर अधिकार कुछ कर्तव्यों की भी डिमांड करते हैं ।अधिकारों की मांग कर कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।काश,इस देश में ऐसा कुछ हो पाता।



-सियाराम पांडेय 'शांत'-

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