आलेख : तनाव है तो होने दे, इसमें बुरा क्या है? - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 1 जनवरी 2020

आलेख : तनाव है तो होने दे, इसमें बुरा क्या है?

stress
स्ट्रेस यानी तनाव।  पहले इसके बारे में यदा कदा ही सुनने को मिलता था। लेकिन आज भारत समेत सम्पूर्ण विश्व के लगभग सभी देशों में यह किस कदर तेज़ी से फैलता जा रहा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज हर जगह स्ट्रेस मैनेजमेंट अर्थात तनाव प्रबंधन पर ना सिर्फ अनेक जानकारियाँ उपलब्ध हैं बल्कि इस विषय पर अनेक रिसर्च भी की जा रही हैं। कहा जा सकता है कि आज तनाव ने एक ऐसी  महामारी का रूप ले लिया है जो सीधे तौर पर भले ही जानलेवा ना हो लेकिन कालांतर में अनेक बीमारियों का कारण बनकर हमारे जीवन को जोखिम में अवश्य डाल देती है। हमारे बुजुर्गों ने भी कहा है, "चिंता चिता समान होती है"। लेकिन दिल थाम कर रखिए तनाव कितना भी बुरा हो लेकिन इस लेख के माध्यम से आपको तनाव के विषय में कुछ ऐसी रोचक जानकारियाँ दी जाएंगी जिससे तनाव के बारे में आपकी सोच ही बदल जाएगी और आप अगर तनाव को अच्छा नहीं कहेंगे तो यह तो जरूर कहेंगे कि "यार तनाव है तो होने दे, इसमें बुरा क्या है?" यकीन नहीं है ? तो हो जाईए तैयार क्योंकि अब पेश है, तनाव के विषय में लेटेस्ट रिसर्च जो निश्चित ही आपके तनाव को कम करने वाला है।

सबसे पहले तो हमारे लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि हमारा शरीर कुदरती रूप से तनाव झेलने के लिए बनाया गया है, जीवन में यकायक आने वाली मुश्किलों से लड़ने के लिए  ईश्वर द्वारा हमारे मस्तिष्क में कुछ डिफॉल्ट फंक्शन फीड किए गए हैं। इसे यूँ समझते हैं। कल्पना कीजिए आप जंगल में रास्ता भटक गए हैं और अचानक आपके सामने एक शेर आ जाता है, या फिर आप सुबह सुबह सैर के लिए निकलते हैं अचानक एक कुत्ता आपके पीछे पड़ जाता है। आपका दिल तेज़ी से धड़कने लगता है आपका रक्तचाप बढ़ जाता है आपको पसीना आने लगता है, आदि आदि। क्योंकि इस वक्त  हमारा शरीर अतिरिक्त ऊर्जा से भर जाता है जो अब हमारे लिए जीवनरक्षक सिद्ध होने वाली है।  आइए अब  इसके पीछे की वैज्ञानिक प्रक्रिया को समझने की कोशिश करते हैं। जैसे ही आपका मष्तिष्क किसी खतरे को भांपता है, तो मस्तिष्क में मौजूद हाइपोथैलेमस ग्रंथी द्वारा एक अलार्म बजा दिया जाता है और हमारा पूरा शरीर "हाई अलर्ट" मुद्रा में आ जाता है। हमारे ही शरीर में मौजूद एक दूसरी ग्रंथी एड्रीनल ग्लैंड से हॉर्मोन का स्राव होने लगता है। ये हॉर्मोन हैं एड्रीनलीन और कोर्टिसोल। एड्रीनलीन हमारे दिल की धड़कन को बढ़ाता है, हमारे रक्तचाप को बढ़ाता है और हमारे शरीर को ऐसे समय अतिरिक्त ऊर्जा उपलब्ध कराता है। जबकि कोर्टिसोल हमारे रक्त में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ाता है ताकि हमारे सेल्स को काम करते रहने की शक्ति मिले साथ ही रक्त में ऐसे पदार्थों की उपलब्धता भी निश्चित करता है जिससे घायल होने वाले ऊतकों की रिपेयरिंग की जा सके। इतना ही नहीं यह हमारे पाचन तंत्र की क्रियाशीलता कम कर देता है जिससे इन परिस्थितियों में हमारी भूख मर जाती है और हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा देता है। परिस्थिति सामान्य होते ही हमारा मष्तिष्क स्वयं इन ग्रंथियों के स्राव को रोक देता है और हमारे दिल की धड़कन रक्तचाप भूख, सभी क्रियाएँ सामान्य होने लगती  हैं। सोच कर देखिए अगर वाकई में आपका सामना एक शेर से हो जाए तो तनाव के उन क्षणों में हमारे शरीर में होने वाले ये परिवर्तन हमारे लिए वरदान हैं कि नहीं? तो अब आप क्या कहेंगे? तनाव अच्छा है या बुरा? तो आइए यह अच्छा है या बुरा इसका उत्तर देने से पहले हम इसके अच्छा होने से लेकर बुरा बन जाने तक के सफर को भी  समझ लेते हैं।

दरअसल जब धरती पर मानव जीवन की शुरुआत हुई थी तो वो जंगलों में जंगली जानवरों के बीच था। उस समय के तनाव ये ही होते थे कि किसी खूँखार जानवर से सामना हो गया। ऐसे समय में हमारे शरीर की यह प्रतिक्रियाएं वरदान साबित होती थीं लेकिन आज हमारे तनाव का रूप बदल गया है। आज हमारे सामने  आर्थिक दिक्कत, टूटते परिवारों के परिणाम स्वरूप भावनात्मक असुरक्षा की भावना, व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता, तरक्की अथवा स्टेटस की परवाह जैसे मानसिक तनाव के अनेक कारण उपलब्ध हैं। इस प्रकार के तनाव की स्थिति का कोई व्यक्ति कैसे सामना करता है यह उसके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। जैसे कोई ऐसी परिस्थितियों को एक चुनौती के रूप में स्वीकार कर सकता है तो कोई इन परिस्थितियों में अवसाद में चला जाता है। तनाव होने  की स्थिति में हमारी प्रतिक्रिया ही वो बारीक सी रेखा है जो तनाव के अच्छा या बुरा होने के बीच की दूरी तय करती है। यही इसके अच्छे होने से लेकर इसके बुरा बन जाने तक का सफर है।

दरअसल यू एस में आठ सालों तक 30,000 लोगों पर एक प्रयोग किया गया। इस प्रयोग में उन लोगों को शामिल किया गया जो अलग अलग कारणों से तनावग्रस्त जीवन जी रहे थे। उन्हें यह समझाया गया कि यह तनाव उनके लिए अच्छा है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिन लोगों ने इस विश्वास के साथ स्ट्रेस का सामना किया कि यह स्थिति उनके लिए अच्छी है उन्हें तनाव से कोई नुकसान नहीं पहुंचा लेकिन जिन लोगों ने तनाव का सामना तनाव के साथ किया उन्हें ना सिर्फ अनेक बीमारियाँ हुईं बल्कि उनमें मृत्यु की संभावना 43% बढ़ गई।  इस रिसर्च से यह बात सामने आई कि लोगों की मौत का कारण तनाव नहीं बल्कि तनाव के प्रति उनकी प्रतिक्रिया है। ये बिल्कुल वैसा ही था  जैसे कि अधिकांश लोग साँप के द्वारा डसे जाने पर उसके जहर से नहीं बल्कि शॉक से मरते हैं। तनाव के प्रति अपनी सोच को बदलकर हम अपने शरीर के उसके प्रति रेस्पॉन्स को बदल सकते हैं। क्योंकि इस रिसर्च में यह बात सामने आई कि जो लोग तनाव में थे स्वाभाविक रूप से उनकी ग्रंथियों से होने वाले हार्मोनल स्राव से उनका दिल तेज़ी से धड़कने लगा और शरीर के बाकी सेल्स को तीव्रता से रक्त पहुंचाने के लिए उनकी धमनियां सिकुड़ने लगीं। किन्तु जिन लोगों ने तनाव का कोई तनाव  नहीं लिया और यह विश्वास किया कि यह तनाव उनके लिए अच्छा है, दिल उनका भी तेजी से धड़क रहा था लेकिन उनकी धमनियाँ संकुचित नही रिलैक्स्ड थीं। यह सब बहुत कुछ वैसा था जैसा वो खुशी के माहौल में या वीरतापूर्ण कार्यों में हमारी धमनियों में रक्त का संचार तो सामान्य से अधिक गति से होता है लेकिन वे संकुचित नहीं होतीं। यह बायोलॉजिकल बदलाव कोई छोटा मोटा बदलाव नहीं था। तनाव के विषय में यह  नई खोज बताती है कि हम तनाव के विषय में  कैसा सोचते हैं बेहद महत्वपूर्ण है। अगर हम यह सोचते हैं कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसकी मदद से मेरा शरीर आने वाली चुनौती का सामना करने के लिए मुझे तैयार कर रहा है तो निश्चित ही हमें सकारात्मक परिणाम मिलते हैं। तो अब उम्मीद है की तनाव की स्थिति में हम यह कहेंगे ,डू नॉट वरी बी हैप्पी आल इस वेल



डॉ नीलम महेंद्र
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार है)

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