कोरोना प्राकृतिक वायरस है या नफरत का वायरस है,यह समझना किसी के लिए भी कठिन है। पूरी दुनिया यह कह रही है कि यह वायरस चीन में फैलाया है। भारत में कुछ और बात हो रही है। कुछ लोग कह रहे हैं कि इसे पूरे देश में फैलाने का काम तब्लीगी जमात के लोगों और उनके समर्थक आश्रयदाताओं ने किया है। थोड़ा राजनीतिक प्रतिक्रियाओं पर विचार करें तो सोनिया गांधी कह रही हैं कि भाजपा देश में नफरत का वायरस फैला रही है। चिकित्सकों, नर्सों और पुलिसकर्मियों पर देश के कई राज्यों में हमले हो चुके हैं। हॉट स्पॉट घोषित इलाकों में सफाई करना भी, इलाके को सेनेटाइज करना भी स्वच्छताकर्मियों को भारी पड़ रहा है। उन पर पत्थर फेंके जा रहे हैं। यह हमले एक खास वर्ग की छतों से होते हैं। लोग घरों से हाथ में पत्थर लेकर निकल आते हैं। लाठी—डंडे और धारदार हथियारों का इस्तेमाल करते हैं। अब तक देश में अनेक कोरोना योद्धा घायल हो चुके हैं। एक ओर देश उनके जज्बे को सलाम करता है। उनके सम्मान में ताली—थाली, घंटे और घड़ियाल बजाता है। वहीं दूसरी ओर कुछ लोग पुराना हिसाब चुकता करने के नाम पर लोगों को भड़काते नजर आते हैं। प्रधानमंत्री तो पहले ही अपनी दो विदेशी यात्राएं निरस्त कर चुके हैं। आगे और कितनी होगी, यह कोरोना के प्रभाव पर निर्भर करता है।
विडंबना इस बात की है कि विपक्ष को यह सब नजर नहीं आता। उसे केवल इतना दिखता है कि सत्तारूढ़ दल नफरत का वायरस फैला रहा है। उसे इता ही समझ में आता है कि समाचार पत्रों का विज्ञापन रोक देना चाहिए। विदेशी दौरे स्थगित कर दिए जाने चाहिए। इस कोरोना काल में विदेश जाना कौन चाहता है? जो विदेशी लॉकडाउन के चलते भारत में फंसे हैं, वे तो अपने देश जा नहीं रहे। कह रहे हैं कि जब तक कोरोना काल है, वे भारत में ही भले हैं। वह तो भारतीय नेताओं को ही मुगालता है कि दुनिया के देशों में चिकित्सा सुविधा यहां से अच्छी है। कोरोना ने सबकी पोल खोल दी है। कौन कितने पानी में है, पता चल गया है। तभी तो विदेशी नागरिक भी भारतीय डॉक्टरों को अच्छा मानते हैं। विदेश में किसी डॉक्टर और नर्स पर थूक कर कोई देख ले, उसकी पिटाई कर देख ले, वह इलाज नहीं पा सकता। यह तो भारत ही है जहां डॉक्टर सारे अपमान झेलने के बाद भी रोगी की बात का बुरा नहीं मानता। बल्कि उसके भले की ही सोचता है। उसे ठीक करके ही घर भेजने की यथासंभव कोशिश करता है।
सोनिया गांधी क्या इसे नफरत का वायरस मानती हैं? कोई भारतीय इस कठिन समय में विदेश में रहना नहीं चाहता। बस साधन नहीं है उसके पास। विदेशियों को भारत सरकार अपने खर्च से उनके देश भेजना चाहती है लेकिन वे जाना नहीं चाहते। भारत भूमि नफरत की भूमि कभी नहीं रही। इस देश के कण—कण में प्यार की सुगंध है। इस कोरोना काल में सभी राजनीतिक दलों को एकजुट होकर सरकार का साथ देना चाहिए। सरकार यथासंभव लोगों को मदद दे भी रही है। वह हर स्थिति पर पैनी नजर रखे हुए हैं। कौन चाहता है कि देश लॉकडाउन में पड़ा रहे लेकिन जब कोरोना की कोई दवा ही नहीं बनी है। कोई वैक्सीन नहीं बनी है तब तो 'आंधी आवै, बैठ गंवावै' जैसी रीति—नीति अपनाने में ही भलाई है लेकिन यह भी सच है कि इस देश में कुछ लोग बेहद गैर जिम्मेदाराना हरकत कर रहे हैं। उन्हें यह पता है कि वे संक्रमित हैं लेकिन इसके बावजूद वे घूम रहे हैं। लॉकडाउन में घूमने का अपना शौक पूरा कर रहे हैं। जिन जगहों से भी जमाती पकड़े गए, उनमें से बहुत कम ने ही चिकित्सकों, नर्सों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों का सम्मान—सहयोग किया। उलटे उन पर थूका, उनके साथ अभद्र व्यवहार किया। अस्पताल से भगने की कोशिश की। सरकार ने कुछ लोगों पर रासुका भी लगाई लेकिन यह सब भय कायम रखने के लिए था। कोरोना योद्धाओं का मनोबल बढ़ाए रखने के लिए था लेकिन इसके बाद भी कोरोना योद्धाओं पर हमले कम नहीं हुए हैं। कोरोना वीरों पर हमले का मामला इतना पेंचीदा हो गया है कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को खुद मोर्चा संभालना पड़ा है।
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने डॉक्टरों और नर्सों पर हमले को संज्ञेय और गैरजमानती बनाने वाले केंद्र सरकार के महामारी रोग संशोधन अधिनियम को मंजूरी दे दी है। यह अधिनियम महामारी रोग अधिनियम 1897 में संशोधन कर उनके समक्ष पेश किया गया था। इस अधिनियम के तहत डॉक्टरों, नर्सों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों पर हमला करने वालों को सात साल की जेल की सजा और पांच लाख तक का उन पर जुर्माना लग सकता है। रासुका का प्रावधान भी कम कड़ा नहीं था लेकिन इन सबके बावजूद अगर कुछ लोग इस देश की विधि व्यवस्था को चुनौती देने को ही आमादा हों, तो ऐसे लोगों से और सख्ती से निपटा जाना चाहिए लेकिन तब क्या इस देश का विपक्ष इस सख्ती को यथायोग्य स्वीकार कर लेगा। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ के भुजपुरा में बाजार बंद कराने गए पुलिसकर्मियों पर भीड़ के हमले और उनके वाहन में तोड़—फोड़ को आखिर किस नजरिये से देखा जाना चाहिए। मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के कई जिलों में चिकित्साकर्मियों पर हमले से प्रदेश भर के डॉक्टर उद्वेलित हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने तो इस घटना के विरोध में देशव्यापी सांकेतिक विरोध प्रदर्शन की चेतावनी दे दी थी लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय और स्वास्थ्य मंत्रालय ने पहल कर फिलहाल चिकित्सकों के आक्रोश को फिलहाल थम लिया है लेकिन जिस तरीके से डॉक्टरों और नर्सों पर हमले हो रहे हैं, उसे बहुत मुफीद नहीं कहा जा सकता। यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। आप उनकी सेवाओं के लिए उनका धन्यवाद नहीं कर सकते। उनका स्वागत नहीं कर सकते, न करें लेकिन उनका अपमान तक न करें।
प्रधानमंत्री इस राय को जानें कितनी बात दोहरा चुके हैं। अस्पताल से ठीक होने वालों को चिकित्सक नर्स और पुलिसकर्मी फूल देकर विदा कर रहे हैं। जिसका स्वागत करना चाहिए, वे खुद स्वागत कर रहे हैं। काश, इस बात को यह देश समझ पाता लेकिन इसके लिए हमें अपना नजरिया बदलना होगा। यह सोचना होगा कि अपनी जान जोखिम में डालकर चिकित्सक और पुलिसकर्मी, स्वच्छताकर्मी हमारा ही तो हित कर रहे हैं। ऐसे में हमें तो उनका कृतज्ञ होना चाहिए लेकिन हम क्या कर रहे हैं? उन्हीं पर हम हमले कर रहे हैं। भले ही इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का आंदोलन रुक गया हो लेकिन अगर एक वर्ग विशेष के लोगों ने अपना नजरिया नहीं बदला तो वह दिन दूर नहीं जब देश भर के डॉक्टर हड़ताल पर चले जाएं और अगर ऐसा होता है तो इसके लिए जिम्मेदार भी तंग सोच वाले ही होंगे।
भारत में एक बात बहुत पहले से कह जाती रही है। रोग से घृणा करो, रोगी से नहीं। सरकार ने चिकित्सकों को भरोसा दिलाया है कि वह उन्हें असुरक्षित नहीं रहने देगी। हमेशा उनके साथ खड़ी रहेगी। सरकार का भरोसा भी बड़ी चीज होता है। इस बात को समझने की जरूरत है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने सुस्पष्ट किया है कि कार्यस्थलों पर डॉक्टरों की रक्षा और प्रतिष्ठा से समझौता बर्दाश्त हमें नहीं है। हर समय उनके लिए अनुकूल माहौल सुनिश्चित करना हम भारतवासियों की सामूहिक जिम्मेदारी है। मोदी सरकार उनकी हिफाजत के लिए प्रतिबद्ध है । गौरतलब है कि भारत में कोरोना संक्रमितों की संख्या जिस तरह बढ़ रही है और मुंबई में जिस तरह इस संख्या में बेतहासा वृद्धि के कयास लगाए जा रहे हैं, उसे बहुत हल्के में नहीं लिया जा सकता। भारत में कोरोना संक्रमण के 21,393 मामलों की पुष्टि हो चुकी है,जिनमें 681 मौत शामिल है। सरकार की सोच यह है कि एक भी कोरोना मरीज अपरीक्षित न रहे। अमेरिका कह रहा है कि नवंबर में उसके यहां फिर कोरोना कहर बरपा सकता है। यह स्थिति भारत में न आए, इसलिए यहां के हर नागरिक को स्वत: सावधान रहना चाहिए। उन्हें अपने संक्रमण की जांच भी करानी चाहिए, इसमें उन्हीं का हित है। बीमारी बताने से ठीक होती है और छिपाने से बढ़ती है। लोगों को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना ही अच्छा है। कानून कितना भी सख्त हो जाए, अगर लोग उसका पालन ही न करें तो उसका कोई मोल नहीं है। देश में जितने भी कानून हैं, अगर उन्हीं का जिम्मेदारी से पालन हो जाए तो नए और कड़े कानून बनाने की जरूरत ही न पड़े। एक आतंकी जमाती की अपने पिता से हुई बातचीत को अगर सच माना जाए तो पाकिस्तान की योजना कश्मीर में संक्रमित आतंकियों की जमाती के तौर पर प्रवेश कराना चाहिए। संक्रमित व्यक्ति से दूरी बनाए रहने में ही सबकी भलाई है। जब डॉक्टर, नर्स और पुलिसकर्मी तक इलाज के दौरान संक्रमित हो रहे हैं तो आम आदमी का क्या होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। वे खुद कोरेंटाइन हो रहे हैं। कोरेंटाइन होने में बुराई नहीं है। लोग अगर सामाजिक दूरी के सिद्धात का पालन नहींं करते, देशबंदी व्यवस्था की अवज्ञा करते हैं तो देश को लंबे समय तक लॉकडाउन का सामना करना पड़ सकता है। यह स्थिति बहुत मुफीद नहीं है।
अब भी समय है कि हम कोरोना से बचने के लिए, उसे शिकस्त देने के लिए लॉकडाउन की अवज्ञा न करें। स्वास्थ्यकर्मी, स्वच्छताकर्मी और पुलिस वाले भी हमारे दुश्मन नहीं हैं। वे अगर हमें समझा रहे हैं तो इसमें हमारा ही हित है। उन पर हमले करके, पत्थर बरसाकर क्या हम उसी डाल को नहीं काट रहे, जिस पर हम खुद बैठे हैं। अब भी समय है कि हमें विचार करना चाहिए कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं , वह देश, काल और परिस्थिति के कितने अनुरूप है। बबूल बोकर क्या आम का फल खाया जा सकता है। एक हाथ से ताली क्या बजाई जा सकती है। चिकित्सकों, नर्सों और स्वच्छताकर्मियों पर हमले कर हम देश को आखिर संदेश क्या दे रहे हैं। चिकित्सकों का दिल जीतिए, यकीन मानिए, हार जाएगा कोरोना।
-सियाराम पांडेय 'शांत'-
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