विशेष : गंगा दशहरा: ‘गंगा’ धरती पर ‘देवलोक’ का ‘महाप्रसाद’ - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 30 मई 2020

विशेष : गंगा दशहरा: ‘गंगा’ धरती पर ‘देवलोक’ का ‘महाप्रसाद’

पृथ्वी पर अवतार से पहले गंगा नदी स्वर्ग का हिस्सा थीं। इसीलिए गंगा हम धरतीवासियों को देवलोक का महाप्रसाद है। ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी अर्थात गंगा अवतरण की तिथि। एक जून को गंगा दशहरा पर सोमवार का संयोग मंगलकारी है। 31 मई को सूर्योदय से रात 10.30 बजे तक सर्वार्थ सिद्धि योग होगा। 1 जून को गंगा दशहरा पर भगवान शिव के अधिपत्य वाला दिन सोमवार का संयोग होना इस दिन को अबूझ मुहूर्त वाला दिवस माना जाएगा। दशमी तिथि आरंभ 31 मई को शाम 05.36 बजे से व समापन 1 जून को दोपहर 02.57 बजे तक है। इस व्रत से ऋषियों ने संदेश दिया है कि गंगा नदी की पूजा करनी चाहिए और जल की अहमियत समझनी चाहिए। कुछ ग्रंथों में गंगा नदी को ज्येष्ठ भी कहा गया है। क्योंकि ये अपने गुणों के कारण दूसरी नदियों से ज्यादा महत्वपूर्ण मानी गई हैं। इसलिए इसे ज्येष्ठ यानी दूसरी नदियों से बड़ा माना गया है

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कहते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के वंशज राजा भगीरथ के पुरखों को तारने गंगा इसी दिन धराधाम पर आई थीं। जब आईं तो एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बावजूद राजा भगीरथ स्वयं गंगा का पायलट बनकर रास्ते से सारे अवरोध हटाते आगे-आगे चले। गंगा को सम्राट से भी ऊंचा सम्मान दिया। धरती पुत्र-पुत्रियों ने गंगा की चरण वंदना की, उत्सव मनाया। परंपरा का सिरा पकड़कर हम हर साल गंगा उत्सव मनाते जरूर हैं, किंतु राजा भगीरथ ने जैसा सम्मान गंगा को दिया, वह देना हम भूल गए। उलटे हमने गंगा के मार्ग में अवरोध ही अवरोध खडे़ किए। अब इन अवरोधों को खत्म करने का जिम्मा हम सबका है। भगीरथ के कठोर तप के फलस्वरूप देवनदी गंगा धरती पर आने को प्रस्तुत हुईं और उनके वेग को संभालने का दायित्व लिया देवाधिदेव शिव ने। कहा गया है कि गंगा शिव की जटाओं से प्रवाहित ब्रह्मा द्वारा निर्मित बिंदुसर सरोवर में उतरीं। मान्यता है कि इस सरोवर की आकृति गाय के मुख के समान दिखने के कारण इस स्थल का नाम गोमुख भी पड़ गया। यहां से गंगा सात धाराओं में विभक्त होकर राजा भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर पृथ्वी लोक में प्रवाहित हुईं और कपिल मुनि के आश्रम में पहुंच महाराज सगर के साठ हजार पुत्रों को श्राप मुक्त किया। आदिकाल में ब्रह्मा जी ने सृष्टि की ’मूलप्रकृति’ से निवेदन किया कि हे पराशक्ति! आप संपूर्ण लोकों का आदि कारण बनें, मैं तुमसे ही संसार की सृष्टि आरंभ करूंगा। 

ब्रह्मा जी के निवेदन पर मूलप्रकृति- गायत्री, सरस्वती, लक्ष्मी, ब्रह्मविद्या उमा, शक्तिबीजा, तपस्विनी और धर्मद्रवा इन सात रूपों में अभिव्यक्त हुईं। इनमें सातवीं ’पराप्रकृति ’धर्मद्रवा’ को सभी धर्मों में प्रतिष्ठित देखकर ब्रह्मा जी ने उन्हें अपने कमण्डल में धारण कर लिया। वामन अवतार में बलि के यज्ञ के समय जब भगवान श्रीविष्णु का एक चरण आकाश एवं ब्रह्माण्ड को भेदकर ब्रह्मा जी के सामने स्थित हुआ तब ब्रह्मा ने अपने कमण्डल के जल से श्रीविष्णु के चरणों की पूजा की। पांव धुलते समय उस चरण का जल हेमकूट पर्वत पर गिरा, वहां से भगवान शंकर के पास पहुंचकर, वह जल गंगा के रूप मे उनकी जटा में स्थित हो गया। सातवीं प्रकृति गंगा बहुत काल तक भगवान शंकर की जटा में ही भ्रमण करती रहीं। इसके बाद सूर्यवंशी राजा दिलीप के पुत्र भागीरथ ने अपने पूर्वज राजा सगर की दूसरी पत्नी सुमति के साठ हज़ार पुत्रों का विष्णु के अंशावतार कपिल मुनि के श्राप से उद्धार करने के लिए शंकर की घोर तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर शंकर ने गंगा को पृथ्वी पर उतारा। शास्त्र कहते हैं कि ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को सूर्यवंशी राजा भगीरथ का कठोर तप सार्थक हुआ और स्वर्ग की नदी गंगा देवाधिदेव शिव की जटाओं से होती हुई धराधाम पर उतरीं। स्कंद पुराण में उल्लेख मिलता है कि जिस दिन धरती पर गंगावतरण हुआ उस दिन दस योग थे। ’ज्येष्ठ मासे सिते पक्षे दशमी हस्तसंयुता। हरते दश पापानि तस्माद् दसहरा स्मृता।। अर्थात ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, दशमी तिथि, बुध दिन, हस्त नक्षत्र, व्यतिपात, गर और आनंद योग तथा कन्या राशि में चंद्रमा तथा वृष राशि में सूर्य। उस समय गंगा तीन धाराओं में प्रकट होकर तीनों लोकों में गयीं और संसार में त्रिसोता के नाम से विख्यात हुईं।  इसी कारण इन दिन किया गया गंगास्नान दशहरा यानी दस पापों का हरण करने वाला माना जाता है। कहते है शिव, ब्रह्मा और विष्णु के संयोग से पवित्र होकर त्रिभुवन को पावन करती हुई, समस्त पापों-दुखों और शोकों से मुक्त करती हुई गंगा वर्तमान अट्ठाईसवें चतुर्युगीय में कलियुग के प्रथम चरण के आरंभ होते ही कुछ सहस्त्र वर्षों बाद जब माँ पृथ्वी के पाप का बोझ उठाना कठिन हो जाएगा तब गंगा पृथ्वी लोक त्यागकर अपने लोक चली जायेंगी। 

गंगा स्नान से मिलता है मोक्ष 
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गंगा ध्यान एवं स्नान से प्राणी दस प्रकार के दोषों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, ईष्र्या, ब्रह्महत्या, छल, कपट, परनिंदा जैसे पापों से मुक्त हो जाता है। इतना ही नहीं अवैध संबंध, अकारण जीवों को कष्ट पहुंचाने, असत्य बोलने व धोखा देने से जो पाप लगता है, वह पाप भी गंगा ’दसहरा’ के दिन गंगा स्नान से धुल जाता है। गंगा स्नान का महामंत्र है, ’विष्णु पादाघ्र्य सम्भूते गंगे त्रिपथगामिनी! धर्मद्रवीति विख्याते पापं मे हर जाह्नवी।’ गंगा में डुबकी लगाते समय श्रीहरि द्वारा बताए गए इस सर्व पापहारी मंत्र को जपने से व्यक्ति को तत्क्षण लाभ मिलता है ‘ओउम् नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नमः। 

गंगा का धार्मिक महत्‍व
भारतीय जनमानस के मन-प्राण में बसी गंगा एक मां की तरह हमारे सभी दुख और कष्ट हर लेती है। यदि हम अपनी गौरवशाली सभ्यता को बचाना चाहते हैं तो हमे गंगा को सुरक्षित करना होगा। हम भारतीयों का नदी प्रेम जगजाहिर है। फिर गंगा तो आस्थावान भारतीय जनमानस के मन-प्राण में बसी है। हम गंगा को मां का दर्जा देते हैं। मान्यता है कि गंगा पतितपावनी है। गंगा के निर्मल जल में स्नान से हमारे सारे पाप धुल जाते हैं। जीवन के अंतिम क्षणों में मुंह में गंगा-जल डाल दिया जाए तो बैकुंठ मिल जाता है। गंगा का जल इतना पवित्र होता है कि महीनों बाद भी उसका प्रयोग किया जा सकता है। गंगा का जहां से उद्गम हुआ है उस जगह चूने की पहाड़ियां हैं। देवदार सहित कई जड़ी बूटियों के पेड़ हैं जिनसे होकर गंगा बहती है। गंगा में स्‍नान करने से हर रोग से छुटकारा मिल जाता है।

गंगा किनारे हुआ सभ्‍यताओं का उदय
पावन गंगा के तटों पर ज्ञान, धर्म, अध्यात्म व सभ्यता-संस्कृति की ऐसी किरणें प्रस्फुटित हुईं। जिनसे न केवल भारत वरन समूचा संसार आलोकित हुआ। इसके किनारे रामायण और महाभारत कालीन सभ्यताओं का उद्भव और विलय हुआ। शतपथ, पंचविश व गोपथ ब्राह्मण, ऐतरेय, कौशितकी और सांख्यायन आरण्यक, वाजसनेयी संहिता एवं रामायण, महाभारत व पौराणिक ग्रंथों में वर्णित घटनाओं से उत्तर वैदिक कालीन गंगा घाटी उन्नत सभ्यता की विस्तृत जानकारी मिलती है। 

गंगा का वैज्ञानिक महत्‍व
प्रयोगशालाओं में साबित हो चुका है कि गंगाजल में पाया जाने वाला बैक्टीरियोफेज नामक जीवाणु इसे सड़ने नहीं देता। राष्ट्र की यह जीवनदायिनी आज अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। है न कितना विरोधाभासी तथ्य पर सच्चाई यही है। हमारे ऋषियों ने पर्यावरण संतुलन के सूत्रों के दृष्टिगत नदियों, पहाड़ों, जंगलों व पशु-पक्षियों सहित समूचे जीवजगत के साथ सहअस्तित्व की विशिष्ट अवधारणा विकसित की थी। मध्ययुग की बात करें, तो मौर्य और गुप्त वंश के राजाओं के शासनकाल में भारत का स्वर्ण युग गंगा घाटी में ही हुआ। आज भी देश के तकरीबन 40 करोड़ लोगों की आजीविका गंगा पर निर्भर है। कृषि, पर्यटन, साहसिक खेलों तथा उद्योगों के विकास में गंगा की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं। 

पौराणिक मान्यताएं 
भगवान श्रीराम का जन्म अयोध्या के सूर्यवंश में हुआ था। उनके एक पूर्वज थे महाराज सगर। महाराज सगर चक्रवर्ती सम्राट थे। उनकी केशिनी और सुमति नाम की दो रानियां थीं। केशिनी के पुत्र का नाम असमंजस था और सुमति के साठ हजार पुत्र थे। असमंजस के पुत्र का नाम अंशुमान था। राजा सगर के असमंजस सहित सभी पुत्र अत्यंत उद्दंड और दुष्ट प्रकृति के थे, परंतु अंशुमान धार्मिक और देव गुरुपूजक था। पुत्रों से दुखी होकर महाराज ने असमंजस को देश से निकाल दिया और अंशुमान को अपना उत्तराधिकारी बनाया। सगर के साठ हजार पुत्रों से देवता भी दुखी रहते थे। एक बार महाराज सगर ने अश्वमेघ यज्ञ किया और उसके लिए घोड़ा छोड़ा। इंद्र ने अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को चुराकर पाताल में ले जाकर कपिलमुनि के आश्रम में बांध दिया, परंतु ध्यानावस्था कपिल मुनि इस बात को जान न सके. सगर के साठ हजार अहंकारी पुत्रों ने पृथ्वी का कोना कोना छान मारा। किंतु वे लोग घोड़े को न पा सके. अंत में उन लोगों ने पृथ्वी से पाताल तक मार्ग खोद डाला और कपिल मुनि के आश्रम में जा पहुंचे। वहां घोड़ा देखकर क्रोधित हो शस्त्र उठा कर कपिल मुनि को मारने दौड़े। तपस्या में बाधा पड़ने पर मुनि ने अपनी आंखें खोली सगर के साठ हजार उद्दंड पुत्र तत्काल भस्म हो गए। गरुड़ के द्वारा इस  घटना की जानकारी मिलने पर अंशुमान कपिलमुनि के आश्रम में आए तथा उनकी स्तुति की। कपिलमुनि उनके विनय से प्रसन्न होकर बोले अंशुमान घोड़ा ले जाओ और अपने पितामह का यज्ञ पूरा कराओ। सागर पुत्र उद्दंड, अहंकारी और अधर्मी थे। इनकी मुक्ति तभी हो सकती है जब गंगाजल से इनकी राख का स्पर्श हो। अंशुमान ने घोड़ा ले जाकर अपने पिता पितामह राजा सगर का यज्ञ पूरा कराया। महाराज सगर के बाद अंशुमान राजा बने परंतु उन्हें अपने चाचाओं की मुक्ति की चिंता बनी रही। कुछ समय बाद अपने पुत्र दिलीप को राज्य का कार्यभार सौंप कर वन में चले गए तथा गंगा जी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या करने लगे और तपस्या में ही उनका अंत भी हो गया। महाराज दिलीप ने भी अपने पुत्र भगीरथ को राज्य सौप कर पिता के मार्ग का अनुसरण किया। उनका भी तपस्या में ही शरीर का अंत हुआ परंतु वह गंगा जी को पृथ्वी पर ना ला सके। महाराज दिलीप के बाद भगीरथ ने ब्रम्हाजी तथा देवाधिदेव महादेव शंकर की घोर तपस्या की। जिसके परिणाम स्वरुप भगीरथ गंगा को पृथ्वी पर लाने में सफल हुए। भगीरथ की तपस्या से अवतरित होने के कारण गंगा को ’भागीरथी’ भी कहा जाता है। गंगा जी इसके बाद पृथ्वी को हरा-भरा करते हुए कपिल मुनि के आश्रम में पहुंची जहां महाराज भगीरथ के साठ हजार पूर्वज भस्म की ढेरी बने हुए पड़े थे। गंगाजल के स्पर्श मात्र से सभी दिव्य रूपधारी हो दिव्य लोक को चले गए। 




-सुरेश गांधी-

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