निरंकुश हो जाना सत्ता का स्वभाव है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया के बहुत सारे देशों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकार किया लेकिन धीरे-धीरे सत्ता की उसी निरंकुशता ने वहां स्थापित लोकतंत्रीय व्यवस्था की मूल भावना को इतना नोच दिया कि लगभग सभी देशों में लोकतंत्र का सिर्फ कंकाल ही बच गया है।
हम सब देख / सुन रहे हैं कि वैश्विक महामारी कोरोना की भयावह उपस्थिति और उससे निजात पाने के क्रम में विश्व के अधिकतम देशों में अराजक सी स्थिति हो गयी है। आमलोग इतने परेशान हो गए हैं कि कब, किस देश में गृह युद्ध शुरू हो जाए? कहना मुश्किल है। हर देश के सत्ता शीर्ष बैठे लोगों को यह डर उल्लेखनीय ढंग से सता भी रहा है।
प्रायः सभी देश के शासकोंं द्वारा अपने अपने मिडिया तंत्रों पर यथायोग्य शिकंजा कसने के बावजूद यह आसानी से देखा और महसूस भी किया जा सकता है कि हर देश के आम नागरिक-जीवन में अपने अपने भविष्य की चिन्ता को लेकर एक आक्रोश भरा उथल-पुथल भी है और यह सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। पता नहीं इसका अंत क्या, कैसे और कब होगाॽ
किसी भी शासन व्यवस्था में जनता सर्वोपरि है। कोई भी शासन व्यवस्था तब तक ही टिक सकती है जब तक वो जन भावनाओं के अनुरूप कार्य करती हो। विगत सात / आठ दशकों में हर देश के लगभग सभी शासकों ने अपने अपने दलीय स्वार्थ के कारण लोक कल्याण की मूल भावना के साथ मनमानी किया है, खिलवाड़ किया है।
यही कारण है कि हर देश में परिवर्तन की आहट साफ साफ दिखाई और सुनाई दे रही है और वही द्वितीय विश्व युद्ध जैसी लगभग हर परिस्थिति हमारे सामने मुंह बाये खड़ी है जिसके कारण लोकतंत्र का यह कंकाल टूटकर नया स्वरूप धारण करने को तत्पर है। कहना तो और बहुत कुछ है पर लेख की लम्बाई कम हो इस बात का ध्यान रखते हुए अन्त में अपने एक मुक्तक से अपनी बात समाप्त करूँ कि -
जन सेवक ने लूटा देश
अन्दर अन्दर टूटा देश
प्रतिभा की भी पूछ नहीं
प्रतिभाओं का छूटा देश
सादर
श्यामल सुमन
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