लेकिन सवाल यह है कि जिन सवर्णों के वोट से पिछले 15 वर्षों से नीतीश कुमार राज कर रहे हैं, उन सवर्णों के लिए क्या किया? सत्ता, संगठन से लेकर विकास योजनाओं में सवर्णों को कितनी हिस्सेदारी मिल रही है। नीतीश गैंग की प्रमुख पार्टी जदयू और भाजपा के प्रादेशिक संगठन में सवर्णों की कितनी हिस्सेदारी है। संगठन के सभी प्रमुख पद पिछड़ों को सौंप दिये गये। जदयू के सभी प्रमुख पदों पर कुर्मी काबिज हैं। यही हाल भाजपा का है। भाजपा में भी सभी पदों पर पिछड़ों ने कब्जा कर रखा है। मुख्यमंत्री कुर्मी और उपमुख्यमंत्री बनिया। सभी मालदार विभाग पिछड़ों और दलितों को। सवर्णों के जिम्मे न संगठन में काम का मौका है और न प्रशासनिक लूट में हिस्सेदारी का चांस।
नीतीश कुमार ने राजनीतिक हिस्सेदारी में यादवों का प्रभाव कम करने के लिए पंचायती राज व्यवस्था में अतिपिछड़ी जातियों को 20 फीसदी आरक्षण दिया। यह एक ऐतिहासिक काम था। लालू यादव के शासन काल में सामाजिक बदलाव की जो धारा शुरू हुई थी, उसे आर्थिक मोर्चे पर व्यापक आधार मिला। इससे सामाजिक बदलाव की धारा तेज हुई। लेकिन इससे सबसे ज्यादा नुकसान सवर्णों को उठाना पड़ा। अतिपिछड़ा आरक्षण के बाद भी पंचायत राज और नगर निकायों में 20 से 25 प्रतिशत सीट यादव जीत ही लेते हैं। इसका खामियाजा सवर्णों को भुगतना पड़ रहा है। क्योंकि नीतीश कुमार ने आरक्षण के माध्यम से सवर्णों के लिए अवसर सीमित कर दिये।
यह बिहार का दुर्भाग्य है कि पिछले 15 वर्षों से नीतीश सवर्णों की संभावनाओं की जड़ में मट्ठा डाल रहे हैं और सवर्ण समाज विरोध में एक स्वर बोलने को तैयार नहीं है। सवर्ण समाज ‘लालू फोबिया’ में इतना मस्त है कि स्वाभिमान पर हो रहे हमले का उसे आभास नहीं हो रहा है। सवर्ण बुद्धिजीवियों को नीतीश कुमार से यह पूछना चाहिए कि सरकार ने 15 वर्षों में सवर्णों के लिए क्या किया? जब सत्ता की रेवड़ी जाति के नाम ही बांटी जा रही है तो सवर्णों का ‘कटोरा’ खाली क्यों है? सवर्ण भले ही चुप रहें, हम तो सवर्णों के सवाल उठाते रहेंगे।
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