आलेख : सादा जीवन उच्च विचार के परिचायक लालबहादुर शास्त्री - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 11 अक्तूबर 2020

आलेख : सादा जीवन उच्च विचार के परिचायक लालबहादुर शास्त्री

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भारत विभाजन के पश्चात भारतीय राजनीतिक इतिहास में सादा जीवन उच्च विचार के परिचायक देश के द्वितीय प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री पड़ोसी दुश्मन देश पाकिस्तान को युद्ध में न केवल धुल चटाने के लिए स्मरण किये जाते हैं, बल्कि अपने जीवन में कभी भी अपने सिद्धांतों औए उसूलों से समझौता नहीं करने के लिए भी जाने जाते हैं। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि भारत में खाद्यान्न की कमी होने पर देश वासियों से सप्ताह में एक दिन उपवास करने की अपील उनके द्वारा किये जाने पर देश की जनता ने उनके अपील को सहर्ष स्वीकार किया और देशहित के लिए धन संग्रह करने में उन्हें भरपूर सहयोग दिया। उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित किया गया। सादगी के अनूठे मिसाल भारत के दूसरे प्रधानमन्त्री और राजनीतिक आदर्श लालबहादुर शास्त्री का जन्म दो अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी में मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव के घर में हुआ। लालबहादुर शास्त्री के माता का नाम रामदुलारी देवी था। मुंशी शारदा प्रसाद जी आरम्भ में एक अध्यापक थे, परन्तु बाद में वे ब्रिटिश शासन में राजस्व विभाग में किरानी बन गए। परिवार में सबसे छोटा होने के कारण बालक लालबहादुर को परिवार वाले प्यार से नन्हें कहकर बुलाया करते थे। नन्हें लगभग अठारह महीने के थे, तो दुर्भाग्य से पिता का निधन हो गया। उनकी माँ रामदुलारी अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्ज़ापुर चली गयीं। कुछ समय बाद उसके नाना भी नहीं रहे। पितारहित बालक नन्हें की परवरिश करने में उसके मौसा रघुनाथ प्रसाद ने उनकी माँ का बहुत सहयोग किया। ननिहाल में रहते हुए उन्होंने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलने के बाद उन्होंने जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा- हमेशा के लिये अपने नाम से हटा दिया और अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया। इसके पश्चात शास्त्री शब्द लालबहादुर के नाम का पर्याय ही बन गया। लाल बहादुर शास्त्री की शादी चौबीस वर्ष की आयु में 1927 में मिर्जापुर निवासी गणेशप्रसाद की पुत्री ललिता से हुई थी, जिससे उनको चार पुत्र तथा दो पुत्रियाँ थी। बचपन से ही उन्हें राजनीति और भारतीय स्वाधीनता संग्राम के आंदोलनों से विशेष लगाव था, और मोहनदास करमचंद गाँधी से अत्यंत प्रभावित लाल बहादुर शास्त्री अपने शिक्षा काल से ही भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ गए थे । 1920 ईस्वी में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के आरोप में उन्हें जेल भेज दिया गया। लाल बहादुर शास्त्री आरम्भ में भारत संघ से जुड़े और देशप्रेम का शपथ लेकर देश सेवा में लग गए।1928 ईस्वी में गाँधीजी से प्रभावित होकर वे कॉंग्रेस में शामिल हो गए। गाँधी के विचारों से प्रभावित होकर ही उन्होंने आजीवन सादगी पूर्ण जीवन धारण किया। निजी जीवन में इनकी धर्मपत्नी शारदा देवी ने उनका भरपूर साथ दिया। कई आंदोलनों में भाग लेने और जेल भी जाने के कारण धीरे-धीरे लालबहादुर शास्त्री कांग्रेस में काफी लोकप्रिय होने लगे और जवाहर लाल नेहरू के अत्यंत नजदीकी बन गए । भारत विभाजन के पश्चात लाल बहादुर शास्त्री को उत्तर प्रदेश का संसदीय सचिव बना कर भेजा गया। बाद में उन्हें उत्तर प्रदेश का पुलिस और परिवहन मंत्रालय का मंत्री बनाया गया। स्वाधीनता आंदोलन की यज्ञकुण्ड से तपकर निकले शास्त्री जी ने पुलिस मंत्रालय मिलते ही पुलिस को प्रर्दशनकारियों पर लाठीचार्ज के बदले पानी की बौझार करने का फरमान सुनाया। परिवहन मंत्री के रूप में देश में उन्होंने पहली बार महिला संवाहक अर्थात कंडक्टर की नियुक्ति की। भारत विभाजन के बाद बनी भारतीय सरकार की पहले मंत्रिमंडल में उन्हें रेलमंत्री बनाया गया। रेलमंत्री के रूप में वे अपने कर्तव्यों का कुशलता से निर्वहन कर देश में रेलवे को जन- जन की प्रिय बनाने में लगे हुए थे, कि एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रेल मंत्री के पद से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। लेकिन नेहरू के अत्यंत करीबी शास्त्रीजी को कुछ दिनों बाद फिर से रेल मंत्रालय की जिम्मेदारी दे दी गई। ऐसे समय में जब विरोधी दल देश में कांग्रेस की नकरात्मक छवि बनाने में काफी कामयाब हो रहे थे, तब नेहरू ने शास्त्रीजी को कांग्रेस को चुनाव में विजय श्री दिलवाने और देश में कांग्रेस पार्टी की छवि बेहतर बनाने के कार्य में लगा दिया। अपनी कार्य कुशलता और बेहतर चुनाव प्रबन्धन से लाल बहादुर शास्त्री ने कांग्रेस को दूसरे तथा तीसरे लोक सभा चुनाव में विजयी  बनाया। 

लाल बहादुर शास्त्री की कार्यकुशलता से प्रभावित होकर उन्हें चार अप्रैल 1961 को भारत का गृह मंत्री बनाया गया। कई परेशानियों से गुजर रहे भारत में उनके गृह मंत्रित्व काल में ही चीन द्वारा देश पर हमला और भारत की पराजय हुई तथा कांग्रेस के कर्णधार समझे जाने वाले जवाहर लाल की मृत्यु हो गई। देश सहित अस्त- व्यस्त हो चुकी कांग्रेस के अंदर नेहरु की मृत्यु के बाद पूर्ण व स्पष्ट रूप से फुट पड़ती नजर आने लगी। ऐसे समय में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष के० कामराज को कांग्रेस का नेता तथा भारत के प्रधानमंत्री के चुनाव की जिम्मेदारी सौंपी गई। नेहरू की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए लालायित अनेक कांग्रेसियों के मध्य लाल बहादुर शास्त्री की कार्यकुशलता और सादगी भरी जीवन को देखते हुए उन्हें नेहरू के उत्तराधिकारी के रूप में सर्वसहमति से चुन लिया गया, और नौ जून 1964 को भारत के द्वितीय प्रधानमन्त्री के रूप में उन्हें शपथ दिलाई गई। परन्तु के० कामराज ने यहाँ शास्त्रीजी से धोखा किया और प्रधानमत्री के पद की गरिमा व प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से प्रधानमत्री की भूमिका अर्थात कार्य को कांग्रेस वर्किंग कमेटी के अधीन कर दिया। ऐसी स्थिति मेंशास्त्रीजी कोई भी बड़ा फैसला कमेटी से पूछे बिना नहीं कर सकते थे। प्रधानमन्त्री बनते ही पहली संवाददाता सम्मेलन में ही लाल बहादुर शास्त्री ने अपनी पहली प्राथमिकता खाद्य प्रदार्थों के बढ़ते मूल्यों को रोकना बतलाई और अन्य दूसरे चीजों के लिए उन्होंने समय माँगा। पत्रकारों का लाल बहादुर शास्त्री के प्रति रवैया काफी गैरजिम्मेराना था, और पत्रकारों ने एक किरानी अर्थात क्लर्क की भांति प्रधानमंत्री से व्यवहार किया जिससे नाराज होकर शास्त्रीजी ने कभी भी प्रेस कॉन्फ्रेन्स न करने फैसला लिया। 

वर्ष 1964 ईस्वी में जब देश आर्थिक, सामाजिक और विदेशी विधर्मी शक्ति आदि कई प्रकार के संकट से गुजर रहा था, तब  विरोधी दल ने तीन महीने के अंदर ही संसद शास्त्रीजी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ले आई। वर्ष 1964-65 में अनाज की कमी और महँगाई से गुजर रहे देश को इस समस्या से त्राण दिलाने के लिए शास्त्री जी ने देश को एक नारा दिया -सप्ताह में एक दिन उपवास, जिसे भारतवासियों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। शास्त्री जी ने शहर के मकानों में खाली पड़े जमीनों में अनाज उगाने का आवाहन किया और प्रधानमन्त्री आवास में खाली पड़े जमीन पर बैलों से जुताई कर उसमें अनाज की बुआई की। इससे पूरे भारतवर्ष में यह सन्देश गया और लोग खेती की ओर ललचाई दृष्टि से देखने लगे। गम्भीर अन्न संकट से गुजर रहे स्थिति का लाभ उठाते हुए पाकिस्तान ने गुस्ताखी करते हुए 1965 ईस्वी के मई- जून के माह में भारत - पाक के सीमा विवाद से बाहर के क्षेत्र गुजरात स्थित कच्छ पर हमला बोल दिया और कच्छ के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया। जून 1965 में अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण भारत को पाकिस्तान से समझौता करना पड़ा, और समझौते के तहत पचहत्तर स्क्वायर मील जमीन पाकिस्तान को देनी पड़ी। वित्तीय संकट के गम्भीर दौर से गुजर रहे देश को युद्ध की स्थिति से त्राण दिलाने के उद्देश्य से किए गए शास्त्री जी के इस समझौते की पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह तीखी आलोचना होने लगी। देश की इस स्थिति में राष्ट्र को युद्ध में झोंकने की शास्त्री जी की इच्छा न थी, इसलिए उन्होंने यह फैसला लिया था, लेकिन उनका यह फैसला क्षणभंगुर ही सिद्ध हुआ। 

1962 में हुई चीन से भारत की हार से भारत को कमजोर समझने की भूल कर पाक के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान व विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने भारत के जम्मू- कश्मीर पर हमला बोल देने का निर्णय लिया और इस ओपरेशन को ग्रैंड स्लैम का नाम देते हुए एक सितम्बर 1965 को  पाकिस्तान ने भारत पर हमला बोल दिया पाक सेना ने अपनी तोपों से कश्मीर पर जबरदस्त हमला किया। उनका लक्ष्य अर्थात टारगेट कश्मीर का क्षम था। कश्मीर की क्षम पर कब्ज़ा का मतलब था कश्मीर का भारत से कट जाना। इसीलिए शास्त्री जी ने पाकिस्तानी सेना पर हवाई हमला करने का निर्णय लिया। लड़ाई में भारतीय वायु सेना की अभूतपूर्व कौशल और निशाने पर अचूक मार ने  पाकिस्तानी सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। लेकिन खतरा अभी टला नहीं था, और स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रधानमन्त्री शास्त्री ने सेना अध्यक्षों की अर्द्धरात्रि में आपात बैठक बुलाई। बैठक में फैसला लेते हुए शास्त्रीजी ने आदेश दिया कि सेना युद्ध में कश्मीर के अतिरिक्त अन्य दूसरे मोर्चे का भी उपयोग करे। पंजाब और गुजरात की सीमा से युद्ध को बढ़ाते हुए लाहौर पर कब्ज़ा करें। इस फैसले से भारत पहली बार अंतर्राष्ट्रीय सीमा का अतिक्रमण करने जा रहा था। प्रधानमन्त्री की स्वीकृति मिलते ही सेना ने तीनों मोर्चे पर एक साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। भारतीय सेना के भयानक युद्ध कौशल से समूचे पाकिस्तान में हड़कंप मच गई, और भारतीय भूमि पर कब्ज़ा जमाने के इच्छुक पाकिस्तान को लाहौर भी हाथ से जाता दिखाई देने लगा। ऐसे समय में पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने संयुक्त राष्ट्र में जाकर भारत को युद्ध रोकने की गुहार लगाई। 22 सितम्बर को भारत ने पाकिस्तान पर विजय की घोषणा कर दी गई। बाद में प्रधानमन्त्री शास्त्रीजी ने पाकिस्तान को भीख में लाहौर देकर उनको बख्श दिया तथा सेना को पीछे हटने का निर्देश दे दिया। पाकिस्तान पर भारत की इस विजय से शास्त्रीजी का कद भारत में काफी बढ़ गया, और वे उस समय देश के सबसे लोकप्रिय नेता बन गए। फिर भी भारत - पाक सीमा पर तनाव कम नहीं हुए थे, और छिटपुट गोला बारूद की घटना दोनों तरफ से हो रही थी। भयभीत पाकिस्तान को अब भी लाहौर हाथ से जाने का डर सताता रहता था, इसलिए इस भय से मुक्ति पाने के लिए उसके राष्ट्रपति ने समझौता और आश्वासन के लिए सोवियत संघ से सहयोग मांगी ।  सोवियत संघ के हस्तक्षेप के बाद लाल बहादुर शास्त्री सम्मलेन में भाग लेने के लिए चार जनवरी 1966 को ताशकन्द गए। अमेरिका और रूस भारत पर जीती हुई भूमि वापस कर देने के लिए दवाब बनाने की कोशिश करने लगे, लेकिन शास्त्री जी किसी के दवाब के आगे झुकने को तैयार नहीं थे। लेकिन अमेरिका के भारी दबाब और पाकिस्तान के द्वारा भविष्य में ऐसी गुस्ताखी पुनः न करने के आश्वासन के बाद शास्त्रीजी ने ताशकन्द समझौता पर हस्ताक्षर कर दिए।  ताशकन्द समझौते की रात ही 11 जनवरी 1966 को लाल बहादुर शास्त्री अपने कमरे में रहस्मयी ढंग से मृत पाए गए, और वहां के डॉक्टरों ने उन्हें मृत बतलाते हुए उनके मृत्यु का कारण हृदयाघात अर्थात हार्ट अटैक बताया। भारतवासी आज भी लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु को संदेहास्पद मानते हैं, लेकिन खेदजनक बात यह है कि आज तक इस गुत्थी को सुलझाने के लिए भारत की किसी सरकार ने कोई पहल नहीं की । 

 

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अशोक “प्रवृद्ध”

करमटोली , गुमला नगर पञ्चायत ,गुमला 

पत्रालय व जिला – गुमला (झारखण्ड)

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