विशेष : मुंडा, संथाल, हो, खड़िया आदिवासियों में सबसे ज्यादा प्रचलित है पत्थरगड़ी - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2020

विशेष : मुंडा, संथाल, हो, खड़िया आदिवासियों में सबसे ज्यादा प्रचलित है पत्थरगड़ी

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झारखंड। संविधान की “पांचवी अनुसूची” भारत कीअनुसूचित जनजातियों के लिये किसी “धर्मग्रंथ” से कम नहीं है। ... भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची(Fifth Schedule) का मूल प्रारूप 'अनुसूचित जनजाति' की सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषायी एवं आर्थिक अस्तित्व की सुरक्षा का अति महत्वपूर्ण प्रावधान है।गांव और जमीन का सीमांकन के लिए, मृत व्यक्ति की याद में, किसी की शहादत की याद में, खास घटनाओं को याद रखने के लिए पत्थर गाड़ते हैं। वे इसे जमीन की रजिस्ट्री के पेपर से भी ज्यादा अहम मानते हैं। इसके साथ ही किसी खास निर्णय को सार्वजनिक करना, सामूहिक मान्यताओं को सार्वजनिक करने के लिए भी पत्थलगड़ी किया जाता है। यह मुंडा, संथाल, हो, खड़िया आदिवासियों में सबसे ज्यादा प्रचलित है।  पत्थलगड़ी आदिवासी बहुल इलाकों में तेजी से फैल रहा है। आदिवासी महासभा नामक संगठन के बैनर तले ग्रामीण गांव के प्रवेश द्वार पर इस आशय की सूचना पत्थर पर खुदवा रहे हैं कि यहां ग्रामसभा का शासन है और यह भी कि सरकारी आदेशों और सरकारी संस्थानों की यहां कोई मान्यता नहीं है। इसे ही पत्थलगड़ी नाम दिया गया है। इसके समर्थकों का कहना है कि वही देश के असली मालिक हैं, उन पर कोई शासन नहीं कर सकता। भारत सरकार उनसे है, न कि वह भारत सरकार से। उनका नारा है: न लोकसभा न विधानसभा, सबसे ऊपर ग्रामसभा। और इसके लिए वे संविधान के अनुच्छेद 13 (3) क का हवाला दे रहे हैं। पत्थलगड़ी चर्चा में तब आया जब पिछले साल अगस्त में रांची से 40 किमी दूर खूंटी जिले के कुछ गांवों में स्थानीय शासन पर जोर देने की सूचनावाले पत्थर गाड़े गए। ग्रामीणों ने कहा कि अब इन इलाकों में दीकू यानी किसी गैर आदिवासी को बिना अनुमति घुसने नहीं दिया जाएगा, सरकारी मुलाजिमों को तो कतई नहीं। इस आंदोलन के समर्थक इन इलाकों में सरकारी सुविधाओं जैसे राशन कार्ड, आधार कार्ड, इलेक्शन कार्ड, सरकारी स्कूल, अस्पताल आदि का बहिष्कार करने पर जोर दे रहे हैं। जाहिर है, नक्सल प्रभावित इन इलाकों में सरकार के खिलाफ इस तरह के विद्रोह ने देश की सुरक्षा एजेंसियों, केंद्रीय गृह मंत्रालयों और राज्य सरकारों की नींद उड़ा दी है। 

क्या है पत्थलगड़ी 

पत्थलगड़ी का चलन आदिवासियों में सदियों से रहा है। वे गांव और जमीन का सीमांकन के लिए, मृत व्यक्ति की याद में, किसी की शहादत की याद में, खास घटनाओं को याद रखने के लिए पत्थर गाड़ते हैं। वे इसे जमीन की रजिस्ट्री के पेपर से भी ज्यादा अहम मानते हैं। इसके साथ ही किसी खास निर्णय को सार्वजनिक करना, सामूहिक मान्यताओं को सार्वजनिक करने के लिए भी पत्थलगड़ी किया जाता है। यह मुंडा, संथाल, हो, खड़िया आदिवासियों में सबसे ज्यादा प्रचलित है। 

झारखंड में बना मुद्दा

बीते साल अगस्त माह में खूंटी जिले में पत्थलगड़ी की सूचना पाकर कुछ पुलिसकर्मी वहां पहुंचे। वहां ग्रामीणों ने बैरिकेडिंग कर रखी थी। थानेदार जब कुछ पुलिसबल के साथ वहां पहुंचे तो उन्हें बंधक बना लिया गया। सूचना पाकर जिले के एसपी अश्विनी कुमार लगभग 300 पुलिसकर्मियों को लेकर उन्हें छुड़ाने पहुंचे तो उन्हें भी वहां बंधक बना लिया गया। लगभग रातभर उन्हें बिठाए रखा, सुबह जब खूंटी के जिलाधिकारी वहां पहुंचे तब लंबी बातचीत के बाद गांववालों ने उन्हें छोड़ा। इसके बाद यह मामला तूल पकड़ता गया। 

गुजरात कनेक्शन 

देशभर में चल रहे पत्थलगड़ी का केंद्र गुजरात के तापी जिला का कटास्वान नामक जगह है। यह गुजरात और महाराष्ट्र के बॉर्डर का भील आदिवासी बहुत इलाका है। यहां के निवासी रहे कुंवर केसरी सिंह को पत्थलगड़ी का प्रेरणास्त्रोत माना जा रहा है। वह एक वकील थे। उन्होंने आदिवासियों के स्वशासन की मांग की थी। उनकी कार पर नंबर प्लेट की जगह 'आवर लाइट, हेवेन्स गाइड’ लिखा रहता था। उन्होंने देश में विभिन्न जगहों पर काम कर रही आदिवासी स्वशासन की संस्थाओं को भारत सरकार घोषित किया। फिर इन कथित ‘भारत सरकारों का संघ भारत सरकार कुटुंब परिवार’ नाम से बनाकर खुद को इसका मुखिया घोषित किया। अब उनकी जगह उनका बेटा राजेंद्र केसरी इसे नियंत्रित कर रहा है। 

किन जगहों पर पत्थलगड़ी 

झारखंड: झारखंड के 90 से ज्यादा गांवों में पत्थलगड़ी हो चुका है और यह लगातार जारी है। इन इलाकों में सरकारी अधिकारियों का घुसना वर्जित है। यहां इस आंदोलन का नेतृत्व युसूफ पुर्ती कर रहे हैं। 

छत्तीसगढ़: यहां इसका नेतृत्व बलदेव सिंह धुड़बे कर रहे हैं। यहां बीते साल नवंबर में पत्थलगड़ी शुरू हुआ। यही नहीं, दुर्ग जिले के बालोद जिले में कंगलामांझी सरकार आज भी चल रही है। इनके पास अपनी सेना है, वे परेड करते हैं, साल में एक बार राजसभा का आयोजन होता है। देशभर के कई आदिवासी नेता इसमें शामिल होते हैं। ये भी भारत सरकार को नहीं मानते। 

गुजरात: कुंवर केसरी सिंह के बेटे राजेंद्र केसरी इसका संचालन कर रहे हैं। 

ओडिशा: यहां इसका नेतृत्व बीरमित्रापुर के एमएलए जॉर्ज तिर्की कर रहे हैं। उनका नारा है न हिन्दुस्तान न पाकिस्तान, हमें चाहिए आदिवासिस्तान। वह एक ट्राइबल कॉरिडोर बनाने की मंशा भी रखते हैं। 

अब तक क्या हुआ

- अब तक 50 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। साथ ही नेतृत्वकर्ताओं में एक कृष्णा हांसदा, बबीता कच्छप सहित लगभग 1500 लोगों पर एफआईआर किया गया है। इन पर आरोप है कि इन्होंने लोगों को संविधान के खिलाफ भड़काया है। 

- 3 जून को खूंटी जिले के उदबुरू गांव में समानांतर सरकार की नींव रखी गई। इसके तहत आंदोलकारियों ने शिक्षा, स्वास्थ्य और रक्षा मंत्रालय खोलने का दावा किया है। बैंक ऑफ ग्रामसभा की स्थापना की गई है। लोग खाता खुलवा रहे हैं। पारंपरिक हथियार जैसे तीर, धनुष, भाला से लैस नौजवानों को सुरक्षा व्यवस्था में लगाया गया है। 

- जितनी उग्रता के साथ झारखंड में यह सब हो रहा है, उतनी उग्रता से बाकी राज्यों में नहीं हो रहा। वहां सिर्फ पत्थलगड़ी चल रहा है, सरकार या सरकारी सेवाओं का बहिष्कार नहीं।

क्या है कानूनी पक्ष

आंदोलन के नेताओं का कहना है कि आदिवासी इलाके अनुसूचित क्षेत्र हैं। यहां संसद या विधानमंडल से पारित कानूनों को सीधे लागू नहीं किया जा सकता। उनका कहना है कि संविधान अनुच्छेद 13(3) के तहत रूढ़ि और प्रथा ही विधि का बल है और आदिवासी समाज रूढ़ि और प्रथा के हिसाब से ही चलता है। वैसे हकीकत यह है कि किस प्रथा को नियम माना जाए, इसकी व्याख्या संविधान के अनुसार होती है। हर प्रथा को कानूनी मान्यता नहीं दी जा सकती। वन अधिकार कानून 2006 और नियमगिरी के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहता है कि ग्रामसभा को गांव की संस्कृति, परंपरा, रूढ़ि, विश्वास, प्राकृतिक संसाधन आदि की सुरक्षा का संपूर्ण अधिकार है। इसका अर्थ है कि अगर ग्रामसभा को लगता है कि बाहरी लोगों के प्रवेश से उसके इन चीजों को खतरा है तो वह उनके प्रवेश पर रोक लगा सकती है।  आंदोलनकर्ताओं का तर्क यह भी है कि सरकारी ऑफिसों से लेकर शहरों के अपार्टमेंट में यह साफ लिखा रहता है कि बिना प्रवेश अनुमति वर्जित है, भला ग्रामसभा ऐसा कर रही है तो किसी को आपत्ति क्यों हो रही है? आंदोलन कर रहे लोगों की मांग है कि गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 को लागू किया जाए। इसके मुताबिक, अधिसूचित क्षेत्र में मानकी मुंडा ही टैक्स वसूलेंगे, नियम बनाएंगे, सरकार चलाएंगे। आदिवासी अंग्रेजी राज के इस कानून को फिर से इसे लागू करने की मांग कर रहे हैं, जबकि सरकार का कहना है कि भारत का संविधान बनने के साथ ही अंग्रेजों के बनाए कानून खुद-ब-खुद निरस्त हो चुके हैं। लेकिन झारखंड के आदिवासी बुद्धिजीवी मंच के अध्यक्ष प्रेमचंद मुर्मू कहते हैं, 'पत्थलगड़ी झारखंडी परंपरा है, लेकिन इन दिनों जिस तरह से इसकी व्याख्या की जा रही है, वह गलत है। अगर पांचवीं अनुसूची के तहत पेसा कानून को लागू कर दिया जाता तो शायद ये परिस्थितियां नहीं बनतीं और नक्सली समस्याओं से भी नहीं जूझना पड़ता।' पेसा (पंचायती राज एक्सटेंशन टु शेड्यूल एरिया एक्ट, 1996) के मुताबिक, हर जिले में जिला स्वायत्तशासी परिषद बनेगा। यह अनुसूचित क्षेत्रों के विकास का काम देखेगा। किसी सरकारी या औद्योगिक परियोजना के लिए जमीन का अधिग्रहण ग्रामसभा की अनुमति के बगैर नहीं होगा। बालू, पत्थर समेत लघु खनिजों का पट्टा ग्रामसभा ही देगी। वन उत्पाद पर पूरा नियंत्रण ग्रामसभा का होगा। पारंपरिक ग्रामसभा और उसके ग्राम प्रधान ही शासन संभालेंगे। 

क्या सोच रही है सरकार 

झारखंड में सीएम रघुवर दास, पूर्व सीएम हेमंत सोरेन और छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह पत्थलगड़ी का खुलकर विरोध कर रहे हैं। रघुवर दास का मानना है कि इसके पीछे नक्सलियों, ईसाई मिशनरियों का हाथ है और यह आदिवासियों को विकास से दूर करने, इन इलाकों के खनिजों पर कब्जा करने के लिए हो रहा है। वह चेतावनी दे चुके हैं कि कानून को हाथ में लेनेवालों को कुचल दिया जाएगा। दूसरी ओर, छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह का कहना है कि उनके राज्य में पत्थलगड़ी नहीं, विकासगड़ी ही चलेगी। वहीं मध्यप्रदेश, ओडिशा और तेलंगाना में विपक्षी पार्टियां पत्थलगड़ी का इस्तेमाल सत्तापक्ष पर हमला करने के लिए कर रही है। 

क्या कहते हैं आंदोलनकारी नेता 

यूनिसेफ में काम कर चुके और हिंदी प्रोफेसर रहे युसूफ पूर्ति इस आंदोलन को गलत ठहरानेवालों को ही गलत बता रहे हैं। उनका कहना है कि भारत आदिवासियों का देश है। वह भी इस देश के हिस्सा हैं। इन इलाकों में जो बैंक स्थापित हुए हैं, वे बिना ग्राम पंचायत के आदेश के हैं। राज्यपाल का आदेश भी उनके पास नहीं है। ऐसे में ये बैंक अवैध हैं। हमें चुनाव से लेना देना नहीं है। नागरिकों का कर्तव्य है कि वे वोट दें। आम आदमी तय करेगा पीएम, सीएम कौन बनेगा। हम तो मालिक हैं इस देश के। हमें हमारा अधिकार सरकार नहीं दे रही है। ऐसे में हम नहीं, वे देशद्रोही हैं। 

अब आगे क्या?

आनेवाले चुनावों में आदिवासी इलाकों में पक्ष और विपक्ष, दोनों ही इस मुद्दे को भुनाने की भरपूर कोशिश करेगी। सरकार इसलिए भी निश्चिंत है कि एक तरह से ये लोग व्यवस्था और सरकार से नाराज हैं और वे वोट नहीं भी करते हैं तो उन्हें किसी तरह का नुकसान नहीं होगा। जिन इलाकों में पत्थलगड़ी हो रहे हैं, वे सब खनिज प्रधान इलाके हैं। खूंटी में अवैध रूप से अफीम की खेती भी जोरों पर है। ऐसे में यह उद्योगपतियों, सरकार और आंदोलनकारियों तीनों के लिए यह हॉट केक है। हालांकि अब सवाल पूछे जा रहे हैं कि आखिर राज्य सरकारें इस आंदोलन के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रही है? बहरहाल, डर बस इस बात का है कि नाराज आदिवासियों का यह आंदोलन कहीं नक्सलवाद की तरह बड़ा रूप न ले ले। 

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