15वीं व 16वीं शताब्दी में आदिम जाति पहाड़िया का इतिहास प्रमाणित रूप से सामने आया, जब संथाल परगना के राजमहल, मनिहारी, लकड़ागढ़, हंडवा, गिद्धौर, तेलियागढ़ी, महेशपुर राज, पाकुड़ व सनकारा में जमींदारियाँ व स्वतंत्र सत्ता के अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त हुए। 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले सरदार रमना आहड़ी (धसनिया, दुमका) चेंगरू सांवरिया (तारगाछी पहाड़, राजमहल) पांचगे डोम्बा पहाड़िया (मातभंगा पहाड़, महराजपुर) नायब सूरजा पहाड़िया (गढ़ीपहाड़, मिर्जाचैकी) वगैरह सेनानियों की महान उपलब्धियों की स्मृति में पहाड़िया समुदाय द्वारा प्रति वर्ष लोक गीतों के माध्यम से शहीद पर्व का मनाया जाना साक्ष्यों को और भी अधिक पुख्ता और प्रमाणित करता है।
दिल्ली की गंगोत्राी से निकलेन वाली विकास गंगा आज तक पहाड़ों के ऊपर और जंगलों के मध्य नहीं पहुँच पायी है। अविभाजित बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डा. श्रीकृष्ण सिंह द्वारा वर्ष 1954 में शुरू की गई विशेष पहाड़िया कल्याण योजना भी पहाड़िया समाज का कल्याण नहीं कर पायी। यह आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्रता की लड़ाई में जिस जाति का हजारों वर्ष पुराना अतीत रहा हो, आज वह हाशिये पर आ पहुँची है। संथाल परगना प्रमण्डल जिसके अंतर्गत उप राजधानी दुमका सहित देवघर, गोड्डा, पाकुड़, साहेबगंज और जामताड़ा ज़िले आते हैं, इन क्षेत्रों में निवास कर रही आदिम जनजाति पहाड़िया कुल तीन उपजातियों में बंटी हुई है, जिसमें माल पहाड़िया, सांवरिया या सौरिया पहाड़िया और कुमार भाग पहाड़िया आदि हैं। अमड़ापाड़ा (पाकुड़) सेगुजरने वाली बाॅसलोई नदी की पूर्वी दिशा में स्थित दुमका जिला के गोपीकान्दर, काठीकुण्ड, रामगढ़, शिकारीपाड़ा, दुमका, जामा मसलिया, सरैयाहाट तथा जामताड़ा (हालिया बना जिला) और देवघर के कुछ प्रखण्डों में माल पहाड़िया जाति के लोग निवास करते है। जबकि राजमहल की उत्तरी दिशा में सांवरिया अथवा सौरिया पहाड़िया और पाकुड़ जिले के पाढरकोला व आसपास के इलाकों में कुमार भाग पहाड़िया जाति निवास करती है।
आदिम जनजाति पहाड़िया की लगातार घट रही आबादी के पीछे मुख्य कारण भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा, पेयजल, सरकारी सहायता और रोज़गार की महत्त्वपूर्ण कमी है। पूर्ववर्ती झारखंड सरकार ने पहाड़िया समुदाय को ससम्मान जीवन जीने के लिये पहाड़िया बटालियन की स्थापना की और इन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का काफी हद तक प्रयास भी किया। वर्तमान समय में कई युवक सरकारी नौकरियों का लाभ प्राप्त कर अपनी आर्थिक स्थिति सुधार पाने में कामयाब हुए हैं। कोदो, घंघरा, गरंडी, बाजरा, सुनरी, कुदरूम, बोड़ा, खेसारी और जंगली फल-फूल व कन्द-मूल जहाँ एक ओर इनका प्रिय भोज्य पदार्थ है, वहीं जंगली घास, बाँस एवं पत्तों से निर्मित इनके आवास हुआ करते है।
चिंताजनक स्वास्थ्य व चिकित्सीय व्यवस्था की वजह से इनकी संख्या में एक बड़ी कमी देखी जा रही है। डायरिया, मलेरिया, ब्रेनमलेरिया, कालाजार, टीबी, कुष्ठ और फाइलेरिया की वजह से इस समुदाय में मृत्यु दर अधिक है। स्वास्थ्य, चिकित्सा एवं परिवार कल्याण विभाग द्वारा अभी तक इस क्षेत्र में सैकड़े-हजारों कार्यक्रमों को मूर्त रूप प्रदान किया गया, लेकिन इसके बावजूद इस समुदाय के लोगों को बहुत अधिक लाभ नहीं हुआ। इस समुदाय की महिलाओं के स्वास्थ्य व चिकित्सा की स्थिति तो और भी भयावह एवं चिंताजनक है। प्रसव पूर्व तथा प्रसव के दौरान उचित स्वास्थ्य व्यवस्था की अनुलब्धता अजन्मे शिशुओं की मौत का इस समुदाय में एक बड़ा कारण है।
अविभाजित बिहार और झारखंड की स्थापना के बाद भी राज्य सरकार ने इस समुदाय की शिक्षा व्यवस्था पर अब तक करोड़ों रूपये खर्च कर दिया है। इसके बावजूद इनमें साक्षरता दर के निराशाजनक आंकड़ें सरकार के प्रयासों पर गंभीर प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं। वहीं इस समुदाय के लिए शुरू किये गए कल्याणकारी योजनाओं जैसे आवास योजना, कृषि संबंधी उपकरण, खाद-बीज, मधुमक्खी व मछली पालन, पेयजलापूर्ति एवं सिंचाई पर भी करोड़ों रूपये खर्च किये जा चुके हैं। लेकिन इन क्षेत्रों में भी समुदाय की स्थिति निराशाजनक ही है। संविधान की धारा 275 के अंतर्गत केन्द्र सरकार भी इनके कल्याणार्थ राशियां आवंटित करती रही हैं।
बहरहाल दुर्लभ और विलुप्त प्राय पहाड़िया समाज के अस्तित्व की रक्षा वर्तमान समय में एक महत्त्वपूर्ण जरूरत बन गई है। यह समुदाय न केवल हमारी धरोहर हैं बल्कि जल, जंगल और ज़मीन के सबसे बड़े रक्षकों में से एक हैं। जंगल को ही जीवनदायनी मानने वाले इस समाज के कारण ही न केवल जंगल की रक्षा संभव है बल्कि पर्यावरण संतुलन में भी इनकी भूमिका रचनात्मक होती है। ऐसे में राज्य और केंद्र सरकार को इस समुदाय की रक्षा और इनके विकास के लिए विशेष कदम उठाने की आवश्यकता है। ताकि इस आधुनिक और वैज्ञानिक युग में भी पहाड़िया जनजाति समाज की महत्ता बरक़रार रहे।
अमरेन्द्र सुमन
दुमका, झारखंड
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