जनऔषधि दिवस : महंगी दवाइयों से आज़ादी मतलब जनऔषधि - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 7 मार्च 2021

जनऔषधि दिवस : महंगी दवाइयों से आज़ादी मतलब जनऔषधि

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देश तीसरा जनऔषधि दिवस मना रहा है। जनऔषधि को जन-जन तक पहुंचाने एवं इसके फायदे के बारे में आम जन को बताने के लिए पीएम मोदी की पहल पर पहली बार जनऔषधि दिवस 7 मार्च 2019 को मनाया गया था। मुझे याद है उस दिन मैं सिलीगुड़ी में स्वस्थ भारत यात्रा-2 की अगुवाई कर रहा था और वहीं से इस दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लिया था। जन औषधि को जन-जन तक पहुंचाने के उद्देश्य से मुझे दो बार स्वस्थ भारत यात्रा का नेतृत्व करने का मौका मिला है। लाखों लोगों से प्रत्यक्ष रूप से संवाद करने का अवसर प्राप्त हुआ है। इन तमाम अनुभवों के आधार पर यह कह सकता हूं कि आज देश के प्रत्येक दवा दुकान को जन-औषधि केन्द्र में बदलने की जरूरत है। ताकि देश की गरीब जनता को महंगी दवाइयों से आजादी मिल सके। ध्यान देने वाली बात यह है कि अपने स्थापना काल से ही इस जनऔषधि परियोजना को बहुत उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ा है। नवंबर 2008 में लोगों को सस्ती दवाइयां उपलब्ध कराने के लिए भारत सरकार ने जनऔषधि योजना को शुरू किया था। 2013 आते-आते इस योजना के अंतर्गत पूरे देश में महज 157 केन्द्र ही खुल सके थे। हालांकि उस समय तत्कालिन यूपीए सरकार ने इन केन्द्रों को 630 जिलों में खोलने का वादा किया था। खैर, वादा है वादो का क्या? हद तो यह है कि जो खुले वो भी दवा-अनुपलब्धता एवं सही समन्वय न होने के कारण लगभग बंदी के कगार पर चले गए। पांच वर्षों तक यह योजना कागजों पर ही चलती रही या यूं कहें कि रेंगती रही। इस योजना को लेकर जो सपना देखा गया था, वह सफलीभूत नहीं हो पाया। इसके पीछे जो भी कारण रहे हों लेकिन एक कारण यह तो रहा कि तत्कालिन सरकार इस योजना को चलाने के लिए उतनी दृढ़ इच्छा-शक्ति नहीं दिखा पाई, जितने की जरूरत थी।


फार्मा जानकारों का मानना है कि सरकार बड़े फार्मा घरानों को नाखुश नहीं करना चाहती थी। क्योंकि अगर जनऔषधि योजना चलती तो बड़े घरानों को बाजार में ‘सस्ती दवा बनाम महंगी दवा’ के रूप में प्रतियोगिता करना पड़ता। इस बात में कितनी सच्चाई है, यह तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन यह बात तो साफ है कि 2008 से 2013-14 तक जनऔषधि योजना कागजों की ही शोभा बढ़ाती रही। जब टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ में आमीर खान ने जेनरिक दवाइयों का मुद्दा जोर-शोर से रखा था। देश भर के स्वास्थ्य कार्यकर्ता इस मसले को जनता के बीच में ले जाने का काम कर रहे थे। खुद मैं उन दिनों ‘जेनरिक लाइए पैसा बचाइए’ कैंपेन के अंतर्गत मुंबई में आम लोगों को जेनरिक दवाइयों के फायदे के बारे में जागरूक कर रहा था। सोशल मीडिया में जेनरिक के पक्ष में आवाज उठने लगी थी। मेन स्ट्रीम मीडिया में ‘कंट्रोल मेडिसिन मैक्सिमम रिटेल प्राइस’ एवं ‘जेनरिक लाइए पैसा बचाइए कैंपेन’ की गुंज उठने लगी थी। यह कैंपेन सोशल मीडिया के साथी पत्रकार मिलकर चला रहे थे। इसका असर यूपीए सरकार पर तो नहीं पड़ा लेकिन 2014 में चुनकर आई नई सरकार ने इस कैंपेन के माध्यम से उठाए गए सवालों का जवाब देने का संकल्प लिया। 2015 के वो दिन मुझे अच्छी तरह याद हैं, जब भारत सरकार के स्वास्थ्य मामलों की समिति ने देश में 3000 जनऔषधि केन्द्र खोलने का सुझाव दिया था। इस सुझाव को संज्ञान में लेते हुए सरकार ने 2015-16 के बजट में इस सुझाव को शामिल किया और सस्ती दवाई की दुकान खोलने की राह प्रशस्त हुई। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जनऔषधि योजना का नाम बदलकर प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना कर दिया गया। इस परियोजना की चर्चा पीएम अपने संबोधनों में करने लगे। यह प्रधानमंत्री की एक महत्वकांक्षी परियोजना में सुमार हो गई। इसका सकारात्मक असर यह हुआ कि मंत्री से लेकर संत्री तक सबके सब इस योजना को सफल बनाने में जी-जान से जुट गए। इस योजना में जितनी भी खामियां थी उस पर चर्चाएं शुरू हुई। समाधान की दिशा में कदम आगे बढ़े।


समाधान इतना आसान नहीं था। बहुत सी समस्याएं मुंह बाएं खड़ी थी। मसलन-दवाइयों की आपूर्ति समय पर नहीं होना,दुकानदारों को समय पर इंसेटिव नहीं मिलना, दुकानदार एवं मार्केटिंग अधिकारियों के बीच आपसी तालमेल का अभाव,योजना क्रियान्वयन में बिचौलियों की घुसपैठ और दवाइयों की गुणवत्ता को लेकर भ्रामक प्रचार। उपरोक्त समस्याओं से जुझ रहे प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना को ठीक स्थापित होने के लिए अपनी कार्य पद्धति, डिलेवरी सिस्टम एवं अपने प्रबंधन को बड़े पैमाने पर स्कैन करने की जरूरत थी। यही कारण है कि विगत 5 वर्षों में सरकार ने बड़े पैमाने पर इस योजना को धरातल पर लागू करने के लिए नीतिगत बदलाव किए हैं। संस्थागत रूप से तमाम कमियों को दूर करने का काम बीपीपीआई जोर-शोर से कर रही है। 16 अक्तूबर 2018 का का वह दिन मुझे ठीक से याद है जब रसायन एवं उर्वरक राज्य मंत्री मनसुख भाई मांडविया ने गुरुग्राम के बिलासपुर स्थित सेंट्रल वेयर हाउस का उद्घाटन करने के बाद अपने कर्मचारियों को संबोधित करते हुए कहा था कि ‘यहां पर वे कर्मचारी ही काम करें, जो इसे अभियान मोड में कर सकते हैं, जो अपनी जिम्मेदारी को पूरी ईमानदारी से निर्वहन करना जानते हैं।‘  सच ही कहा गया है कि किसी भी विभाग का मुखिया जब अपने काम को लेकर सहज, सतर्क एवं सकारात्मक होता है तो लक्ष्य प्राप्ति तक पहुंचना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है। और यह बात प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना पर पूरी तरह से सटीक बैठती है।


जनऔषधि के 13 वर्षों के इतिहास को देखा जाए तो जहां इसके शुरू के पांच वर्ष को अंधकार वर्ष के रूप में देखा जाएगा वहीं बाद के 7 वर्ष को प्रकाश-वर्ष के रूप में देखा जाना चाहिए। अगले सात वर्षों में जेएवाई से पीएमबीजेपी के नाम के साथ सामने आई यह योजना 2014 तक देश को महज 99 चलित जनऔषधि केन्द्र दे पाई थी, जबकि फरवरी-2021 तक के आंकड़ों के हिसाब से देश में इस समय 7400 से ज्यादा जनऔषधि केन्द्र हैं। देश भर के कुल जनऔषधि केन्द्रों पर 2015-16 में जहां 9.35 करोड़ की बिक्री (एमआरपी पर) हुई थी वहीं 2017-18 में इसकी बिक्री का ग्राफ लगभग 15 गुणा बढ़कर 140.84 (एमआरपी पर) करोड़ का हो गया। 2018-19 का ग्राफ देखें तो 315.70  करोड़ का व्यापार जनऔषधि करने में सफल रही। वहीं 2019-20 में 433.61 करोड़ एवं 2020-21 (28.02.21 तक) 586.50 करोड़ रुपये का व्यापार जनऔषधि कर चुकी है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि जनऔषधि के बढ़ते व्यापार से 2019-20 में जहां आम लोगों को 2500 करोड़ रुपये की बचत हुई वहीं 2020-21 में अभी तक लगभग 3500 करोड़ रुपये की बचत हो चुकी है। शायद यही कारण है कि बड़ी कंपनियों को जनऔषधि की कार्यप्रणाली पर शोध करने की जरूरत पड़ रही है और उन्हें यह समझ में आने लगा है कि ‘सस्ती दवाई बनाम महंगी दवाई’ की जो प्रतियोगिता शुरू हुई है उसमें पीएमबीजेपी आने वाले समय में उनको कहीं पछाड़ न दे। सच कहा जाए तो भारत शुभ-लाभ का देश रहा है। यहां पर व्यवसायिक रूप से वही लंबे समय तक टीक सकता है जो अपने व्यवसाय को शुभ-लाभ के सिद्धांतों के अनुकूल चलाता है। भारत के मूल में शुभ-लाभ है। इसी अवधारणा को प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना ने अपनाया है,अंगीकृत किया है। इसका प्रतिफल यह हो रहा है कि इस योजना से जुड़े सभी लोगों को शुभ-लाभ तो हो ही रहा है साथ ही गरीब लोगों से दुवाएं भी मिल रही हैं। दरअसल, आज महंगी दवाइयों से निजात पाने का पर्याय जनऔषधि बन चुकी है। गरीबों के दर्द को कम करने वाली इस योजना को मिल रही ये दुवाएं इसकी सफलता की नई इबारत लिखेगी।


 


 

आशुतोष कुमार सिंह

लेखक स्वस्थ भारत अभियान के राष्ट्रीय संयोजक एवं जेनरिकोनॉमिक्स पुस्तक के लेखक हैं।

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