ख़बरपालिका की मानिंद आज विधायिका भी सूचना तथा मनोरंजन का साधन मात्र हो गयी है। यह व्यक्ति, समाज तथा अन्य संस्था के बीच बढ़ती संवादहीनता की खाई को पाटने में यह कोई भूमिका निभाने की बजाय गैरज़िम्मेदार लोगों के झुंड से घिरी हुई है। लिमये की कुशाग्र बहस को याद करते हुए संसद से यह सहज अपेक्षा बंधने लगती है कि यह सामूहिक संवाद के स्तर को ऊँचा करे, राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को तेज़ करे, यथास्थिति को तोड़े, मज़बूत लोगों का बयान होने की बजाय बेज़बानों की ज़बान बनी रहे एवं लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत करे। संसदीय प्रणाली के नियमों के तहत जन आकांक्षाओं के अनुरूप मुद्दों को इतने सशक्त रूप से रखा या उठाया जा सकता है, वास्तव में देश को इसका ज्ञान मधु जी के संसद के कार्यों के द्वारा ही हो सका था। उन्होंने भी शायद विशेषाधिकार नियमों का उपयोग कर देश को चमत्कृत किया था। सोशलिस्ट पार्टी के उस समय संसद में बहुत कम सदस्य थे, इसके बावजूद उस दौरान मधु जी ने तत्कालीन सरकार को अनेक बार कटघरे में खड़ा किया और निरुत्तर किया।लोहिया जी के निधन के बाद मधु जी प्रथम पंक्ति के समाजवादी नेताओं में अग्रणी थे। कहना चाहिए कि समाजवादी सिद्धांतों और कार्यक्रमों के वो ही मुख्य व्याख्याता थे। सिद्धांत, नीति, कार्यक्रम, रणनीति आदि के विषय में मधु जी का भाषण स्पष्ट और सटीक होता था। 1977 में गैर–कांग्रेस वाद को रणनीति के अंतर्गत केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार बनवाने की मुहिम में मधु जी की भूमिका अग्रणी रही थी, किंतु 1977 में बनी गैर कांग्रेसी सरकार में उन्होंने मंत्रिपरिषद में शामिल होना स्वीकार नहीं किया। सत्ता से अलग रहकर संगठन में अधिक महत्वपूर्ण और ज्यादा लोकोपयोगी कार्यों का वर्णन उनको अधिक श्रेयस्कर लगता था। साथ ही यह उनकी पदों से दूर सादगी के जीवन के गति का घोतक भी था।
लिमये सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव (1949-52), प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव (1953 के इलाहाबाद सम्मेलन में निर्वाचित), सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष (58-59), संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष (67-68), चौथी लोकसभा में सोशलिस्ट ग्रुप के नेता (67), जनता पार्टी के महासचिव (1 मई 77-79), जनता पार्टी (एस) एवं लोकदल के महासचिव (79-82) रहे। लोकदल (के) के गठन के बाद सक्रिय राजनीति को अलविदा कहा। दो बार बंबई से चुनाव हारने के बाद लोगों के आग्रह पर वे 64 के उपचुनाव में मुंगेर से लड़े व अपने मज़दूर नेता की सच्ची छवि के बल पर जीते, दोबारा 67 के आम चुनाव में प्रचार के दौरान तौफीक दियारा में उन्हें पीट पीट कर बुरी तरह से घायल कर दिया गया, वो सदर अस्पताल में भर्ती हुए जहां भेंट करने वालों का तांता लगा हुआ था। सहानुभूति की लहर व अपने व्यक्तित्व के बूते वे फिर जीते। पर, तीसरी दफे वे कॉलेज में डिमोंस्ट्रेटर रहे कांग्रेस प्रत्याशी डी पी यादव से त्रिकोणीय मुक़ाबले में हार गये। यह भी चकित करने वाला ही है कि तमाम प्रमुख नाम मोरारजी की कैबिनेट में थे, पर मधु लिमये का नाम नदारद था। मोरारजी चाहते थे कि आला दर्जे के तीनों बहसबाज जार्ज, मधु व राज नारायण कैबिनेट में शामिल हों। वो अपने वित्त मंत्री के कार्यकाल में लिमये के सवालों से छलनी होने का दर्द भोग चुके थे पर, लिमये ने रायपुर से सांसद और मध्य प्रदेश के वरिष्ठ समाजवादी नेता पुरुषोत्तम कौशिक को मंत्री बनवाया।
संसोपा के संसदीय दल के नेता का पद छोड़ा
1967 में राममनोहर लोहिया की मृत्यु के बाद मधु लिमये संसोपा संसदीय दल के नेता चुने गए. लेकिन तब तक संसोपा पर पिछड़ावाद हावी हो चुका था. पार्टी के कई लोगों को मलाल था कि जो पार्टी ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’ का नारा देती है, उस पार्टी और उसके वर्चस्व वाली सरकारों में महत्वपूर्ण पदों पर अगड़े वर्ग के लोग क्यों काबिज हैं. इसी विवाद में 1968 में बिहार की महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार चली गई थी. 1969 में यही सवाल संसोपा संसदीय दल की बैठक में भी उठा कि पिछड़ों की पार्टी के संसदीय दल के नेता पद पर ब्राह्मण समुदाय के मधु लिमये क्यों काबिज हैं? लेकिन सवाल उठने के बाद मधु लिमये ने एक मिनट की भी देर नहीं लगाई. अपने पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद पार्टी के कई नेताओं ने उनको मनाने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं माने. आखिरकार उनकी जगह उत्तर प्रदेश के सोशलिस्ट नेता और बाराबंकी के सांसद रामसेवक यादव को संसोपा संसदीय दल का नेता चुना गया. उनके बारे में एक तथ्य और बताते चलें कि 1990 में मंडल कमीशन का बवाल खड़ा होने के बाद जब सुप्रीम कोर्ट में इस विवाद पर इंद्रा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस की सुनवाई शुरू हुई, तब क्रीमी लेयर का मामला लेकर मधु लिमये भी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए थे और खुद इस केस में एक पार्टी बन गए. सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने जजमेंट में उनके इस तर्क को माना कि पिछड़े वर्ग में क्रीमी लेयर यानी संपन्न तबकों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए आज उसी मर्यादा, सलीक़े व सदाशयी लोकव्यवहार का संसदीय राजनीति में सर्वथा अभाव दिखता है। हम अगर विचार विनिमय, बहस व विमर्श की चिरस्थापित स्वस्थ परंपरा को फिर से ज़िंदा कर पाए, तो जम्हूरियत की नासाज रूह की थोड़ी तीमारदारी हो जाएगी और यही होगी लिमये जी के प्रति सच्ची भावांजलि।
रामस्वरूप मंत्री
( लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार एवं सोशलिस्ट पार्टी मध्य प्रदेश के अध्यक्ष हैं)
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