विशेष : 65 साल से अपने अधिकारों की जंग लड़ती दिल्ली - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 6 मई 2021

विशेष : 65 साल से अपने अधिकारों की जंग लड़ती दिल्ली

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दिल्ली देश  का दिल  है और इस दिल पर वहां के  उपराज्यपाल का वर्चस्व कायम  हो गया है।  जनता की चुनी हुई सरकार को कोई भी निर्णय लेने से  पहले अब उप राज्यपाल की अनुमति लेनी पड़ेगी।  ऐसा राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम-2021 के  लागू होने की वजह से हुआ है। हालांकि संसद के  पिछले सत्र में  राज्यसभा और लोकसभा उक्त कानून पास कर चुकी है।  तब  कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों ने े इसे अरविंद केजरीवाल सरकार को पंगु बनाने का  प्रयास बताया था जबकि केंद्र सरकार ने दलील दी थी कि ऐसा उसने दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के अधिकारों को परिभाषित करने के लिहाज से किया है।  इसे लेकर कई तरह की बातें कही जा सकती हैं लेकिन सच तो यह है कि इस कानून से दिल्ली की निर्वाचित  सरकार कमजोर हुई है। अरविंद केजरीवाल जिस तरह अपनी कार्यशैली से केंद्र सरकार को चुनौती दे रहे थे,उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि इस कानून को लागू कर केंद्र ने उनके पर कतर दिए हैं।  पिछल्ले कोरोनास काल में तो उन्होंने बाहरी और भीतरी का राग भी अलापना आरंभ कर दिया था। यह सच है कि  केजरीवाल की राजनीतिक  महत्वाकांक्षा उनके मुख्यमंत्री बनने के दिन से ही जोर पकड़ने लगी थी। संवैधानिक  व्यवस्था को चुनौती  देते हुए वे  अपने साथियों के साथ धरने तक पर बैठ गए थे। उन्होंने इस बात का भी विचार नहीं किया था  कि एक मुख्यमंत्री के रूप में उनके इस आंदोलन पर लोग क्या सोचेंगे?  दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए वे सत्ता प्राप्ति के पहले दिन से ही सक्रिय हो गए थे। यह जानते हुए भी कि दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश है।  अरविंद केजरीवाल सरकार की  अराजक कार्यपद्धति का ही असर  था कि कुछ साल पहले  भी  संसद में दिल्ली के उप राज्यपाल के अधिकारों को लेकर एक विधेयक पारित हो चुका है। इसमें दिल्ली के उप राज्यपाल के अधिकार पहले से कहीं अधिक स्पष्ट किए गए थे। यह और बात है कि  समय-समय पर दिल्ली को और अधिकार देने अथवा उसे पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग  अरविंद केजरीवाल सरकार से पहले भी होती रही है और  इस तरह की मांग करने वाले दलों में भाजपा और कांग्रेस भी शामिल रही है लेकिन अब दोनों ही दल नहीं चाहते कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिले। देश की राजधानी होने के कारण केंद्र  सरकार में जो भी दल रहा, उसने  हमेशा ही दिल्ली के अधिकार सीमित रखे। उप राज्यपाल को अधिक अधिकार प्रदान कर एक तरह से उनके जरिये ही दिल्ली का राजपाट संभालने की कोशिश की गई।  यह बात इस देश को बखूबी पता है कि  वर्ष 1952 से 1956 तक दिल्ली का अपना रुतबा हुआ करता था।  उसकी अपनी विधानसभा भी  हुआ करती थी और अपना मुख्यमंत्री भी  लेकिन 1956 में दिल्ली को केंद्र शासित राज्य घोषित कर  दिल्ली विधानसभा भंग कर दी गई।   35 साल बाद 1991 में दिल्ली को फिर विधानसभा मिली। 1993 में पुन: विधानसभा चुनाव हुए और भाजपा के मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री बने। इसके बाद  भी केंद्र में कांग्रेस की भी सरकार बनी और भाजपा की भी  लेकिन किसी ने भी  दिल्ली की जनता द्वारा चुनी गई सरकारों को पर्याप्त अधिकार देने में  रुचि नहीं दिखाई।    इसकी एक वजह यह भी थी कि  दिल्ली में  पदस्थ केंद्र सरकार के अधिकारी दिल्ली पर शासन करने के अपने व्यामोह से उबर नहीं पा रहे थे।  वे नहीं चाहते थे कि उनकी चरित्र पंजिका पर  प्रतिकूल प्रविष्टि का अधिकार दि ल्ली सरकार को मिले।

  

कुछ साल पहले  और पिछले संसदीय सत्र में  दिल्ली के उप राज्यपाल के अधिकारों संबंधी जो विधेयक संसद से पारित हुआ, उसका आधार उच्चतम न्यायालय का एक निर्णय भी है।  यह निर्णय दिल्ली सरकार और उप राज्यपाल में अधिकारों के टकराव को दूर करने को लेकर दायर एक याचिका के संदर्भ में दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि दिल्ली में जमीन, पुलिस या लोक व्यवस्था से जुड़े फैसलों के अलावा राज्य सरकार को उप राज्यपाल की मंजूरी लेने की जरूरत नहीं। इस फैसले के बाद दिल्ली सरकार ने अपने निर्णयों से पहले संबंधित फाइल उप राज्यपाल के पास भेजना ही बंद कर  दिया और केवल उन्हेंं सूचित करना प्रारंभ कर दिया।  असल में विवाद तो यहां से जन्मा।   केंद्र  की नरेंद्र मोदी सरकार के अनुसार इसी विवाद को खत्म करने और उप राज्यपाल के अधिकारों को और स्पष्ट करने के लिए उक्त विधेयक लाया गया था। लेकिन अगर हम जरा पीछे जाएं  तो  वर्ष  2013 के  दिल्ली  विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने को अपने घोषणापत्र में प्रमुखता से रखा था। तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष डॉ.  हर्षवर्धन  जो अब  केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हैं , ने 2013 में विधानसभा चुनाव के दौरान दिल्ली को पूर्ण राज्य दिए जाने की मांग की थी।  मई 2014 में लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद   डॉ. हर्षवर्धन ने  बतौर दिल्ली भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ,यह बयान दिया था कि वे प्रधानमंत्री  से मिलकर  दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग करेंगे ।  दिल्ली में पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रहे विजय गोयल ने भी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग कई बार दोहराई। थी। 21 सितंबर 2006 को दिल्ली में चल रही सीलिंग के दौरान तत्कालीन भाजपा प्रदेश अध्यक्ष  डॉ. हर्षवर्धन ने  कहा था कि  जब केंद्र में एनडीए की सरकार थी तब दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने संसद की ओर मार्च करते हुए दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग की थी। तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने को लेकर एक मसौदा संसद में पेश किया था  जिसे प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाली समिति के पास विचार करने के लिए भेजा गया था। वर्ष 2006 में  भाजपा के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष द्वारा जारी एक बयान में कहा गया था कि जब दिल्ली और केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार है  तो दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा  देने में क्या परेशानी है?   वहीं 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान नवंबर में तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने दिल्ली के लिए कांग्रेस का घोषणापत्र जारी करते हुए दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग की थी। चुनावी घोषणा पत्र  लांच करते हुए  शीला दीक्षित ने कहा था कि अगर दिल्ली पूर्ण राज्य होता तो विकास बेहतर तरीके से हो पाता।  सवाल यह उठता है कि केजरीवाल राजनीतिक को शिकस्त देने के लिए क्या मोदी सरकार ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने संबंधी अपने महत्वपूर्ण वादे से मुंह मोड़ लिया है।

  

गौरतलब है कि  वर्ष  1998 में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग सबसे पहले उठी थी. लेकिन साल 2003 में दिल्ली को पूरे अधिकार दिए जाने का प्रस्ताव पहली बार संसद में आया था।  अप्रैल 2006 में बीजेपी के पूर्व मुख्यमंत्री और तत्कालीन दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष मदन लाल खुराना ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर बिल लाने की मांग की थी। साल 2003 में केंद्र में बैठी भाजपा सरकार में उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने संसद में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने का कानून पेश किया था।  यह और बात है कि  उस समय इस बिल के प्रावधानों का  दिल्ली की  तत्कालीन  मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने  विरोध किया था  और  उसे राजनीतिक कदम करार दिया था। सवाल यह नहीं कि  इस कानून के जरिए अरविंद केजरीवाल को सियासी पटखनी दे दी गई है। सवाल यह है कि  जब केंद्र और दिल्ली में भाजपा की डबल इंजन की सरकार नहीं होगी अथवा कांग्रेस या अन्य दल की डबल इंजन की सरकार नहीं होगी तब दिल्ली की हालत क्या होगा।  65 साल से दिल्ली अपने अधिकार पाने को बेताब है । तीस साल पहले उसे अपना  मुख्यमंत्री और विधानसभा तो मिल गई लेकिन वह भी अधिकार विहीन। एंटी करप्शन विभाग, नगर निगम दिल्ली के पास था भी, वर्ष 2016 में मोदी सरकार ने वह भी दिल्ली  के हाथ से छीन लिया है और अब तो नए कानून के 27 अप्रैल से अमल में आ जाने के बाद दिल्ली  सरकार केवल सफेद हाथी ही बनकर रह गई है जो कोई निर्णय नहीं कर सकती। दिल्ली अब उप राज्यपाल की है, वही इसके भले-बुरे का निर्णय करेंगे। सरकार के इस तर्क में दम हैं कि दिल्ली में राष्ट्रपति भवन हैं, प्रधानमंत्री निवास है, विभिन्न देशों के दूतावास हैं। सुरक्षा का सवाल है लेकिन दिल् ली के विकास का भी तो सवाल है।  अगर सारे विभा उपराज्यपाल के ही पास रहेंगे तो दिल्ली की चुनी हुई सरकार क्या करेगी, यह भी तो तय होना चाहिए और अगर उन पर कोई काम नहीं है तो इस सरकार पर आम जनता के गाढ़े-खून -पसीने की कमाई क्यों खर्च की जानी चाहिए?




--सियाराम  पांडेय 'शांत'--

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