वैदिक मतानुसार जिसे शब्दों में वर्णन किया जा सके, उसे पदार्थ कहा जाता है, और दिव्य गुण युक्त पदार्थ को देवता कहते हैं। वर्णन करने योग्य दिव्य ज्ञान युक्त पदार्थ व्यक्त अथवा अव्यक्त दोनों हो सकते हैं, क्योंकि परमात्मा से लेकर पृथ्वी पर्यंत सभी पदार्थ वर्णनीय हो सकते हैं, और यदि उसमें कोई दिव्य गुण हो तो वह देवता हो जाएगा। देवता शब्द दिव धातु से व्युत्पन्न है। दिव शब्द का अर्थ है दीप्ति अर्थात चमक युक्त अर्थात अपने गुणों से प्रकट होने वाला। दिव्य पदार्थ में अन्य गुण भी हो सकते हैं, परंतु कम से एक कम एक गुण विशेष होने से वह दिव्य होता अथवा देवता माना जाता है। वेद मंत्रों में ऐसे अनेक दिव्य पदार्थ पदार्थों के वर्णन हैं। वेद मंत्रों में उनमें से किसी दिव्य पदार्थ की स्थिति का वर्णन होने पर वह उस मंत्र का विषय अथवा देवता कहा जाता है। दिव्य गुण वाले पदार्थ मंत्र का विषय न होने पर भी कभी किसी विशेष प्रयोजन से मंत्र में प्रयुक्त होते हैं। ऐसे पदार्थ तो देवता ही हैं, और वहां पर वह अपने दिव्य गुणों से देवता होते हैं। उनका दिव्य होना तो उनके कर्म से जाना जाता है। और मंत्रों को जानने वाले स्तोताओं के द्वारा देवताओं के नाम से मंत्रों को जानने वाला होता है। इसी से कहा जाता है कि कर्म से ही नाम का ज्ञान होता है। वेद का वास्तविक अर्थ अथवा जो कुछ भी संबंधित बात है, वह इन नामों से ही जाना जाता है। इससे स्पष्ट है कि मंत्र में शब्दों अथवा देवताओं के नामों का अर्थ उनके कर्म से जाना जाता है, जो मंत्र में ही वर्णन किया होता है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के पहले सूक्त में अग्नि की स्तुति है और इसमें अग्नि का वर्णन किया गया है। इसका अर्थ है कि इस मंत्र का देवता अग्नि है। सृष्टि रचना के समय अग्नि सामने उपस्थित हो यज्ञ कर रही थी। वह होता है, और धनसंपदा देने वाली है। ऋग्वेद के इस पहले मंत्र में अग्नि के दिव्य गुणों की ओर संकेत किया गया है। इस कारण अग्नि इस मंत्र का देवता है। अग्नि की संज्ञा अर्थात नाम अग्रणी कर्म से पड़ा है। सबसे पहले रचना कार्य में यह यज्ञ करती है। जो पहले कर्म करे, वह अग्रणी अर्थात अग्नि है। अग्रे से अग्नि नाम पड़ा है। वेद मंत्रों में दिव्य गुण वाले पदार्थों की स्तुति की जाती है और उस स्तुति से ही देवता के नाम की सिद्धि होती है। इंद्र से संबंधित मंत्र ऋग्वेद 2/12/1 में इंद्र को प्रथम जातः बताते हुए कहा गया है कि जो मन के गुणों वाला पहले ही पैदा हुआ, जो संसार के देवताओं को अपने कर्म से, अपने कर्तव्य शक्ति से सुंदर उपकारी करता है, जिसके बल से पृथ्वी, आकाश पृथक- पृथक होते हैं और जिसके सामर्थ्य को महत्वपूर्ण कहा है, जिससे सब डरते हैं, जिससे धन अर्थात सामर्थ्य की महिमा है, वह इंद्र है। इससे स्पष्ट है कि इंद्र प्रथम जन्म लेने वाला है, और इसीलिए वेद में इंद्र को प्रथमः जात: कहा है। अग्नि को प्रथमः जातः नहीं कहा है, बल्कि समक्ष उपस्थित अर्थात पहले ही उपस्थित कहा है। इसका अर्थ है- अग्नि अर्थात आदिअग्नि पैदा नहीं हुई। इंद्र को सृष्टि की उत्पन्न होने वाली वस्तुओं में पहले उत्पन्न हुआ कहा है। जहां अग्नि के विषय में कहा है कि यह धन रत्नादि अर्थात जगत के सब पदार्थ देने वाली है, वही इंद्र के संबंध में कहा है कि उससे संसार के अन्य दिव्य गुण युक्त पदार्थों का निर्माण होता है और जिससे सब डरते हैं अर्थात पृथ्वी और आकाश पृथक -पृथक होते हैं, और जिसकी महान सामर्थ्य है। वेद मंत्रों में ही देवता को पहचानने के लक्षण वर्णन किए गए होते हैं। इंद्र के नाम की व्युत्पति के सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है-
स योSयं मध्ये प्राण:। एषSएवेंद्रस्तानेष प्राणान्मध्यत Sइन्द्रियेणेन्द्ध यदैन्द्ध तस्मादिन्धSइन्धो ह वै तमिन्द्र।
शतपथ ब्राह्मण 6-1- 1- 2
अर्थात-वह जो इस परमाणु के मध्य में प्राण शक्ति है, यह ही इंद्र है। अपने इंद्रिय अर्थात बल से इन्हें अर्थात प्राणों को दीप्त अर्थात प्रकाशित करता है। दीप्ति करने से ही यह ईन्द्ध अर्थात इंद्र कहा जाता है। ईन्द्ध अर्थात दीप्ति प्रकाशित करने से इसका नाम इंद्र पड़ा है। इससे स्पष्ट है कि कर्म देख कर ही यह नाम रखा गया है। इस प्रकार इंद्र देवता है। वह दिव्य गुण वाला पदार्थ जिसका नाम उसके गुण, कर्म, स्वभाव से रखा जाता है, जिससे गुण, कर्म, स्वभाव का वर्णन किया जाता है, वह उस मंत्र का देवता अर्थात विवेच्य विषय कहा जाता है। कभी -किसी अन्य प्रयोजन से भी किसी देवता का नाम मंत्र में आ जाता है, परंतु तब वह मंत्र का देवता नहीं होता। वेदार्थ करने का ढंग का ज्ञान देने वाले शास्त्र को निरुक्त कहते हैं। निरुक्तकार यास्क ने निरुक्त 7/1 में देवताओं का प्रकरण प्रारंभ करते हुए कहा है कि जो नाम प्रधान स्तुति अर्थात गुण, कर्म, स्वभाव का विशेष वर्णन वाले देवताओं के दिए हैं, वे देवता प्रकरण वाले हैं। अर्थात जिनका वर्णन वेद मंत्र में है, वे मंत्र के देवता होते हैं। अर्थात जब मंत्र में किसी का विशेष गुण, कर्म, स्वभाव वर्णन किया गया हो तो वह उस मंत्र का देवता होता है। इसलिए मंत्र में प्रयत्न से उसके वर्णित देवता अर्थात वर्णित विषय को जानना चाहिए। जो कोई मंत्र के देवता को जानता है, वही उसके अर्थ को समझ सकता है। वह व्यक्ति ही ठीक-ठीक सम्मति दे सकता है कि मंत्र करने का उद्देश्य क्या है? मंत्र के ऋषि पर प्रकट होने के समय मंत्र में निहित उद्देश्य को वही बता सकता है। मंत्र के देवता का ज्ञान नहीं रखने वाला व्यक्ति न तो उस मंत्र के अर्थ को समझता है और न ही उसमें कहे कर्म को करने में सफल होता है। मंत्र के देवताओं के संबंध में सूक्त अथवा मंत्र अथवा मंत्रांश पर ही बता दिया गया है कि उसमें किस देवता की स्तुति की गई है, अर्थात किसके गुण, कर्म, स्वभाव का वर्णन किया गया है? यह प्रायः उन ऋषियों ने ही कह दिए हैं, जिन पर मंत्रों का आविर्भाव हुआ है। इन मंत्रों के देवताओं का ज्ञान मंत्र के भाव से भी पता चल जाता है। मंत्रों में स्तुत्य देवता उस मंत्र अथवा सूक्त में मध्यम पुरुष के रूप में संबोधित किया हुआ होता है। यदि ऐसा न भी हो तो मंत्रार्थ करने से पता चल जाता है कि मंत्र किस के विषय में कहा गया है? कभी-कभी मंत्रार्थ से देवता सिद्ध नहीं होता, ऐसी स्थिति में बुद्धि से मंत्र का अर्थ लगाने के लिए स्वतंत्रता होती है, ताकि मंत्र में वर्णित विषय का ज्ञान प्राप्त किया जा सके। इसके लिए निरुक्त सृजक यास्काचार्य ने भी एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है। निरुक्त 13/11 के अनुसार यह मंत्र के अर्थ के लिए चिंता- विचार स्फूर्ति दिखाई है। कहा जाता है कि वेद का अर्थ तर्क से पता चलता है। पृथक -पृथक मंत्र का निर्वचन नहीं किया जाता, और न ही प्रकरण छोड़कर मंत्र का अर्थ किया जाता है। निरुक्ताचार्य के अनुसार निर्वचन अर्थात निश्चय से अर्थ करने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है- प्रथम- वेद में परस्पर विरोधी अर्थ नहीं हो सकते। वेद ज्ञान एक ज्ञानवान द्वारा कहा गया है, इस कारण इसमें एक स्थान का दूसरे स्थान से विरोध नहीं होना चाहिए। द्वितीय- तर्क से अर्थ सिद्ध होना चाहिए। तृतीय- प्रकरण जिस देवता का अर्थात विषय का वर्णन हो रहा है उसके अनुसार ही अर्थ होंगे।
शंकराचार्य आदि कुछ विद्वान तर्क को प्राथमिकता नहीं देते, लेकिन सांख्य, न्याय और ब्रह्मसूत्रों में तर्क को अर्थ सिद्ध करने में समर्थ माना गया है। तर्क आधार युक्त होना चाहिए अर्थात किसी प्रत्यक्ष घटना के आधार पर किया गया तर्क उतना ही विश्वसनीय होता है, जितना कि प्रत्यक्ष देखा हुआ होता है। प्रत्यक्ष देखे हुए तर्क के आधार पर तर्क का आशय है कि जब हम प्रत्यक्ष में बार-बार किन्ही दो वस्तुओं, घटनाओं अथवा विचारों का साथ साथ होना देखते हैं, तो एक के होने से दूसरे का होना भी तर्क से मान लिया जाता। जैसे- धुआं और आग को साथ- साथ देखा जाता है, इस कारण धुआं देखकर वहां अग्नि का होना तर्कसिद्ध है। प्रत्येक उत्पन्न होने वाले व्यक्ति को मरता देखकर किसी बालक के जन्म लेने के साथ ही तर्क के आधार पर उसके मृत्यु का अनुमान किया जाता है। तर्क का आधार प्रत्यक्ष हो तो इससे जो सत्य दर्शन होता है, वह सिद्ध ही है। निरुक्त 13/12 के अनुसार ऋषियों के अपने सुकृत लोगों को चले जाने पर मनुष्य देवताओं अर्थात विद्वानों से बोले- कौन हममें अब मंत्र दृष्टा ऋषि होगा? उनको कहा गया कि तर्क तुम्हारा मंत्र दृष्टा अर्थात ऋषि होगा। मंत्रार्थ में संगति को देखना चाहिए। जो पूर्वापर के अनुसार तर्क से सिद्ध हो, वही अर्थ होगा। अर्थात जहां मंत्र अथवा सूक्त पर उल्लिखित देवता पर संदेह हो, वहां तर्क द्वारा पूर्वापर और प्रकरण से देवता का निश्चय किया जा सकता है। देवता से मंत्र का विषय जाना जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि सूक्तों, मंत्रों अथवा मंत्रांशों पर लिखे गये देवता, मंत्र का विषय होते हैं और मंत्रार्थ करते समय उनका ध्यान रखा जाना चाहिए। जहां संदेह हो, वहां मंत्र के अर्थ से ही युक्ति द्वारा देवता का पता किया जाता है। देवताओं की गणना तथा उनके गुण, कर्म, स्वभाव के विषय को जानने के लिए देवताओं का ज्ञान ठीक- ठीक रखना आवश्यक है। देवताओं के गुण, कर्म, स्वभाव को वेद मंत्रों से ही जानने के लिए वेदार्थ करने पर विचार करना ही पड़ता है अन्यथा वेदार्थ अशुद्ध होंगे और मंत्रों में वर्णित देवताओं का भी ज्ञान ठीक से न हो सकेगा।
करमटोली , गुमला नगर पञ्चायत ,गुमला
पत्रालय व जिला – गुमला (झारखण्ड)
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