आलेख : जननायक टंट्या भील की जीवनी - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 6 अगस्त 2022

आलेख : जननायक टंट्या भील की जीवनी

टंट्या भील
टंट्या भील (टंट्या या टंट्या मामा) (1842 - 4 दिसंबर 1889) 1878 और 1889 के बीच भारत में सक्रिय एक जननायक (आदिवासी नायक) थे। वे भारतीय "रॉबिन हुड" के रूप में ख्‍यात हैं। टंट्या आदिवासी भील समुदाय के सदस्य थे उनका वास्तविक नाम टंड्रा था , उनसे सरकारी अफसर या धनिक लोग ही भयभीत थे , आम जनता उसे ' टंटिया मामा ' कहकर उसका आदर करती थी । टंट्या भील का जन्म सेंट्रल प्राविंस प्रांत के पूर्व निमाड़ खंडवा जिले की प्रधाना तहसील के ग्राम बड़दा में 1842 में हुआ था। एक नए शोध के अनुसार उन्होंने 1857 में हुए पहले स्‍वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों द्वारा किये गए दमन के बाद अपने जीवन के तरीके को अपनाया। टंट्या को पहली बार 1874 के आसपास "खराब आजीविका" के लिए गिरफ्तार किया गया थाफ एक साल की सजा काटने के बाद उनके जुर्म को चोरी और अपहरण के गंभीर अपराधों में बदल दिया गया। सन 1878 में दूसरी बार उन्‍हें हाजी नसरुल्ला खान यूसुफजई द्वारा गिरफ्तार किया गया था। मात्र तीन दिनों बाद वे खंडवा जेल से भाग गए और एक विद्रोही के रूप में शेष जीवन जिया। इंदौर की सेना के एक अधिकारी ने टंट्या को क्षमा करने का वादा किया था, लेकिन घात लगाकर उन्‍हें जबलपुर ले जाया गया, जहाँ उन पर मुकदमा चलाया गया और 4 दिसंबर 1889 को उसे फांसी दे दी गई।


स्वतंत्रता के लिए भारत को बड़ा लंबा संघर्ष करना पड़ा है। इस संघर्ष यात्र में भारत माता के अनगिनत सपूतों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर शौर्य की एक स्वर्णिम गाथा लिखी। उनमें से कई का नाम इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखा गया, परंतु तमाम ऐसे भी रहे, जिनके साथ इतिहास ने पर्याप्त न्याय नहीं किया। टंट्या भील ऐसे ही एक सिपाही थी, जिन्हें इतिहास ने अपेक्षित स्थान नहीं दिया। हालांकि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी वर्गो में उनकी पूजा की जाती है। उन्होंने अंग्रेजों की शोषण नीति के विरुद्ध आवाज उठाई और गरीब आदिवासियों के लिए मसीहा बनकर उभरे। वह केवल वीरता के लिए ही नहीं, बल्कि सामाजिक कार्यो में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के लिए जाने जाते थे। टंट्या भील को उनके तेजतर्रार तेवरों के चलते कम समय में ही बड़ी पहचान मिल गई थी। उनके विषय में तमाम किंवदंतियां प्रचलित हैं। टंट्या भील से प्रभावित होकर तात्या टोपे ने उन्हें गुरिल्ला युद्ध में पारंगत बनाया। अंग्रेज उन्हें ‘इंडियन राबिन हुड’ कहते थे। वह भील जनजाति के ऐसे योद्धा थे, जो अंग्रेजों को लूटकर गरीबों की भूख मिटाने का काम करते थे।


आदिवासियों के विद्रोहों की शुरुआत प्लासी युद्ध से हुई 

उल्लेखनीय है कि आदिवासियों के विद्रोहों की शुरुआत प्लासी युद्ध (1757) के ठीक बाद ही आरंभ हो गई थी और उनका यह संघर्ष 20वीं सदी के आरंभ तक चलता रहा। टंट्या भील संघर्ष की इसी मशाल को थामे हुए थे। वर्ष 1857 से लेकर 1889 तक टंट्या भील ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। वह अपनी गुरिल्ला युद्ध नीति के तहत अंग्रेजों पर हमला करके किसी परिंदे की तरह ओझल हो जाते थे।


आलौलिक शक्तियों के धनी थे भील

टंट्या भील के बारे में कहा जाता है कि उन्हें आलौकिक शक्तियां प्राप्त थीं। इन्हीं शक्तियों के सहारे टंट्या एक ही समय में एक साथ सैकड़ों गांवों में सभाएं करते थे। टंट्या की इन शक्तियों के कारण अंग्रेजों के दो हजार सैनिक भी उन्हें पकड़ नहीं पाते थे। देखते ही देखते वह अंग्रेजों की आंखों के सामने से ओझल हो जाते। आखिरकार अपने ही बीच के कुछ लोगों की मिलीभगत के कारण वह अंग्रेजों की पकड़ में आ गए और चार दिसंबर 1889 को उन्हें फांसी दे दी गई। फांसी के बाद अंग्रेजों ने उनके शव को इंदौर के निकट खंडवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी रेलवे स्टेशन के पास फेंक दिया। इसी जगह को टंट्या की समाधि स्थल माना जाता है। आज भी रेलवे के तमाम लोको पायलट पातालपानी स्टेशन से गुजरते हुए टंट्या को याद करते हैं। इतिहास को भी उन्हें याद करना चाहिए।

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