सामाजिक संस्था वाग्धारा द्वारा किये गए सार्थक व अनुकरणीय प्रयास - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 13 अक्तूबर 2022

सामाजिक संस्था वाग्धारा द्वारा किये गए सार्थक व अनुकरणीय प्रयास

  • बाँसवाड़ा के कुशलगढ़ क्षेत्र की रागी, कोदो, चीणा एवं कांग के जर्मप्लाज्म ‘राष्ट्रीय पादप आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो,’ नई दिल्ली (NBPGR) द्वारा पंजीकृत कर  जीन बैंक में राष्ट्रीय संपत्ति के रूप में संरक्षित – विशिष्ठ पहचान संख्या  (IC number) आवंटित 

Wagdhara-support
विगत 30 वर्षों से पारंपरिक कृषि पद्धतियों पर आदिवासी समुदाय के साथ कार्यरत, वाग्धारा ने विलुप्ति के कगार पर खड़ी छोटे अनाज की फसलें यथा रागी, कांगनी, कोदो एवं चीना की कुशलगढ़, बांसवाड़ा की स्थानीय किस्मों को “राष्ट्रीय पादप अनुवांशिकी संसाधन ब्यूरो , नयी दिल्ली, जो कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् ( आई सी ए आर ) का हिस्सा है, में राष्ट्रीय स्तर के जीन बैंक में प्रजाति संरक्षण हेतु राष्ट्रीय संपत्ति के रूप में संरक्षित करवाया है! आदिवासी क्षेत्र की परंपरागत खेती को संरक्षित करने के उद्देश्य से  राष्ट्रीय स्तर के जीन बैंक में राष्ट्रीय संपत्ति के रूप में संरक्षित करवाना वाग्धारा की एक सार्थक पहल और अनुकरणीय कार्य है। इस सन्दर्भ में वाग्धारा के सचिव जयेश जोशी ने बताया कि आदिवासी कृषक अपने जल, जंगल, जमीन, जानवर और बीज से सह-जीवन रखते हैं . उनकी पारम्परिक पद्धतियों से उक्त जुडी हुई सम्पदा को संरक्षित  व सतत खेती करने के प्रयासों में बीजों का संरक्षण बहुत महत्वपूर्ण कार्य है . वर्तमान में कृषि क्षेत्र  में नवीन अनुसंधानों और पद्धतियों के चलते खेती की लागत काफी ज्यादा हुई है , जिस कारण से आदिवासी  क्षेत्रों में किसान अपने एवं अपने परिवार के भरण – पोषण हेतु पलायन कर कई समस्याओं से घिर जाता है . संस्था उनके पारंपरिक विधियों में कम लागत से अधिक उपज के तरीकों पर कृषि वैज्ञानिकों से सलाह कर टिकाउ खेती की  तकनीक  से अवगत करवा कर उनके जीवन यापन में सहयोग कर ‘सच्ची खेती’ की परिकल्पना को मूर्तरूप देने का प्रयास कर रहा है . संस्था से सम्बद्ध कृषि वैज्ञानिक एवं पूर्व प्रोफेसर डॉ प्रमोद रोकड़िया ने बताया कि फसल प्रजाति के संरक्षण हेतु राष्ट्रीय जीन बैंक में स्थानीय किस्मों के संरक्षण कर किस्मों का सदैव के लिए बचाया जा सकता है। जनजातीय समुदायों द्वारा पारंपरिक फसलों के देसी किस्मों की खेती पूर्वकाल से वर्तमान तक क्षेत्र विशेष में देखने को मिलती रही है परन्तु बदलते परिवेश और कृषि नीतियों के चलते  इन फसलों की खेती बहुत सीमित मात्रा में हो रही है . आदिवासी क्षेत्र में कुपोषण का प्रसार अधिक है,  इसलिये इन पौष्टीक छोटे अनाज की स्थानीय किस्मों को बचाये रखना अति आवश्यक है . इसी बात को ध्यान में रख कर अपनी संस्कृति और विरासत को बचाने में लगे कुछ ही कृषक इन फसलों को विपरीत पारिस्थितिक तंत्र का सामना करते हुए इसकी खेती कर रहे हैं .  इन परिस्थितियों के मद्देनज़र कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी यदि कुछ वर्षों में ये फसल  खेती के सन्दर्भ में पूरी तरह लुप्त अथवा नष्ट हो जाये . इसी प्रकार रागी, कांगनी, कोदो एवं चीना जैसी फसलें भी धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर हैं . कम पानी में आसानी से उगने वाली और पोषण से भरपूर ये फसलें विपरीत मौसम में भी अपने आप को बचाने की ताक़त  रखती हैं। ऐसी फसलों को बचाना और उनका संवर्द्धन करना यद्यपि सरकारी स्तर पर कृषि विश्वविद्यालय द्वारा किया जाता  है, किन्तु किसी सामाजिक संस्था द्वारा किया गया  यह कार्य राष्ट्रीय संपत्ति के संरक्षण के अंतर्गत जीन संवर्द्धन का एक अनूठा प्रयास है। आगामी वर्ष 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष के रूप में भी मनाया जा रहा है.   इसी क्रम में  मक्का एवं धान की फसलों की  8 अन्य किस्मों के सैंपल राष्ट्रीय जीन बैंक में भेजे जा चुके हैं , जो उसकी  प्रक्रिया प्रणाली में हैं . संस्था द्वारा पारंपरिक फसलों की किस्मों एवं बीजों का भी डाटा बैंक स्वयं के द्वारा बना कर संरक्षण कार्य बड़े स्तर  पर किया जा रहा है .

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