परिवार को बच्चों की प्राथमिक पाठशाला माना गया है।आमतौर पर बच्चे अपने माता-पिता को आदर्श मान कर उनका अनुकरण करने का प्रयास करते हैं। अनुकरण की इस प्रकृति को यह कश्मीरी कहावत लोकानुभव से बिंब ग्रहण कर यों साकार करती है- ‘मुर्गा कुरेदे, चूजा सीखे।’ यानी मुर्गा पंजों से जमीन कुरेदता है, तो चूजा भी उसकी नकल कर कुरेदने लग जाता है। हम प्रतिदिन जीवन में अपनी बातचीत में कई बार कहावतों और मुहावरों का प्रयोग करते हैं। कहावतें हमारे लोक-जीवन का प्रतिबिंब होती हैं और जीवन के सत्य को प्रकट करती हैं। इनमें सदाचार की प्रेरणाएं होती हैं। इन्हें हम असल में लोक-जीवन का नीतिशास्त्र भी कह सकते हैं। जैसे 'मन जीते तो जग जीते' यह कहावत इंद्रिय-दमन के सत्य को उजागर करती है। इंद्रिय-दमन से सुख अथवा दुख के वातावरण में एक समान भाव के साथ बने रहने की शिक्षा मिलती है। दुर्गुणों और दुर्व्यवसनों से सुरक्षित रहने के लिए 'दमन' अभेद्य कवच है। वश में किया गया मन मानव का मित्र है और इसके अभाव में मन ही मानव का शत्रु है। ऐसी ही एक अन्य कहावत है: 'सत्य की सदा जीत होती है' (सत्यमेव जयते) सच की महत्ता को स्थापित करने वाली इसी तरह की कुछ अन्य कहावतों और भी हैं, जैसे 'सांच को आंच नहीं', 'सच्चे का बोलबाला, झूठे का मुंह काला' आदि। स्वस्थ, सभ्य एवं सुसंस्कृत बनने के लिए शुद्धता की बहुत उपयोगिता है। 'प्रात:काल करो अस्नाना, रोग-दोष तुमको नहीं आना' इस कहावत में ब्रह्म-मुहूर्त में सोकर उठने और दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होने का वर्णन है। 'एक हवा, न सौ दवा' कहावत का अभिप्राय सिर्फ शुद्ध वायु सेवन ही नहीं है, बल्कि प्राचीनकाल में लोग इसके जरिए तुलसी, गुलाब के पौधे तथा बड़, पीपल और नीम के वृक्ष लगाने और उनकी रक्षा करने का परामर्श देते थे।
'मन चंगा तो कठौती में गंगा' कहावत से मानसिक शुद्धता की जरूरत दर्शाई गई है। आंतरिक शुद्धता से आत्मा का विकास होता है और विकसित आत्मा ही परम तत्व को पाने में सक्षम होती है। परोपकार एवं परहित की कहावतें भी कम नहीं हैं। 'कर भला हो भला, अंत भले का भला'- यह कहावत परमार्थ की सिद्धि होने में सभी की भलाई करने का सन्देश देती है। कहावतों में 'धैर्य' रूपी नैतिक मूल्य का बड़ा गुणगान किया गया है। इनके माध्यम से लोगों को धीर-गंभीर बनने के लिए उत्साहित किया गया है। 'धीरा सो गंभीरा, उतावला सो बावला' - जल्दी का काम सदा ही बिगड़ता है क्योंकि उतावलेपन में हमारी बुद्धि गहराई से सोचने में असमर्थ होती है। इसी सच को यह कहावत भी उजागर करती है- 'हड़बड़ का काम गड़बड़'। अपने मनोबल, उत्साह एवं साहस को बनाए रखना, विवेक शक्ति की दृढ़ता की स्थिरता ही धैर्य का दूसरा नाम है। फारसी की कहावत है 'हिम्मते मरदा, मददे खुदा', यह कहावत धैर्य बंधाती है। धैर्य तो असाध्य को भी साध्य बना देता है। इसी तरह 'चोरी का माल मोरी में' कहावत में यह रेकंकित करने का प्रयास किया गया है कि चुराए गई धन-संपत्ति का व्यय बुरे कामों व दुर्व्यसनों में ही होता है। 'क्षमा' के नैतिक मूल्य को भी कहावतों में सहजता से देखा जा सकता है। क्षमा का उद्देश्य है अपराधी को आत्म-परिष्कार का अवसर देना। 'क्षमा वीरों का आभूषण है', क्षमा के बल पर ही यह धरती टिकी है। अतः 'क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात' कहावत प्रचलित हो गई। 'अधजल गगरी छलकत जाए' और 'अपना पैसा खोटा तो परखैया को क्या दोष'- ये दोनों कहावतें अधूरे ज्ञान और दुर्गुणों, दोषों को दूर करने की प्रेरणा देती हैं। हमारे जीवन में ऐसी असंख्य कहावतें पग-पग पर नैतिकता का पाठ पढ़ा कर हमारा मार्गदर्शन कर सकती हैं और हम इन कहावतों से मिलने वाली सीख को अपनाकर अपना जीवन सुखमय बना सकते हैं।
कहावत के उद्भव-विकास की प्रक्रिया पर विचार करते समय इसके दो भेदों-साहित्यिक कहावतों और लौकिक कहावतों को जान लेना आवश्यक है। साहित्यिक कहावतों का निर्माण साहित्यिक-प्रक्रिया के अंतर्गत किसी प्रतिभाशाली लेखक द्वारा होता है। ऐसी कहावतों को शुरू करने वालों का पता लगाना अपेक्षाकृत सुगम कार्य है। लौकिक कहावत साधारण जन-जीवन के सहज अनुभवों से जन्म लेती है और मौखिक परंपरा के रूप में विकसित और प्रचलित होती है। यही कारण है कि साहित्यिक कहावतों में लौकिक कहावतों की अपेक्षा भाषा और भाव की दृष्टि से अधिक परिष्कार पाया जाता है। साहित्यिक कहावतों के रूप-निर्धारण में व्यक्तिगत संस्कार और प्रतिक्रिया का विशेष हाथ रहता है, लेकिन लौकिक कहावतों की उत्पत्ति मूलतः लोक-कल्पना को स्पंदित और प्रभावित करने वाले अनुभवों के फलस्वरूप होती है। ये कहावतें लोक-जीवन के साथ विकसित होती हैं और वहीं से भाव-सामग्री ग्रहण कर लोकप्रिय होती हैं। हालांकि लौकिक कहावतों की भाषा और भावधारा अपरिष्कृत होती है, लेकिन मूलरूप में शुद्ध कहावतें यही हैं। इनमें जन-मानस का सूक्ष्म अंकन रहता है। मानव के चिर-अनुभूत ज्ञान की सहज और सरल अभिव्यंजना और प्राचीन सभ्यता-संस्कृति की छाप इनमें साफ झलकती है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि कहावत एक ऐसा बिंदु है, जिसमें असंख्य अनुभवों की कड़ियां संयुक्त रहती हैं। कहावतों में मानव मन के उद्गारों, हर्ष-शोक, संकल्प-विकल्प आदि का मार्मिक और सजीव वर्णन मिलता है। सच कहें तो ये मानवता के अश्रु हैं।
—डा० शिबन कृष्ण रैणा—
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