विशेष : पंचक्रोशी परिक्रमा से खुश रहते हैं 33 करोड़ देवी-देवता - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 31 जुलाई 2023

विशेष : पंचक्रोशी परिक्रमा से खुश रहते हैं 33 करोड़ देवी-देवता

सावन भगवान भोलेनाथ का महीना है। कहते है इस माह पंचक्रोशी परिक्रमा को पूर्ण करने वाले व्यक्ति को 33 करोड़ देवी देवताओं की पूजा-अर्चना का पुण्य लाभ मिलता है. पंचक्रोशी परिक्रमा में शामिल होने से अश्वमेध यज्ञ कराने जैसा लाभ मिलता है. तकरीबन 85 किमी लंबी इस पदयात्रा के पथ पर एक-दो नहीं कई मंदिर है, जहां भक्त इस यात्रा के दौरान बीच में पड़ने वाले पांच पड़ावों पर ही विश्राम करते है। इन पांच पड़ावों की परंपरागत विश्राम के साथ यात्रा पूर्ण होती है। भगवान भोलेनाथ का जलाभिषेक कर दर्शन करते हैं। जलाभिषेक साथ पूजा-अर्चना सिलसिला शाम तक जारी रहता है। पंचक्रोशी परिक्रमा की शुरुवात श्रीकाशी विश्वनाथ के प्राचीन मंदिर में स्थित ज्ञानवापी कूप के जल या फिर बाबा के दर्शन कर मणिकर्णिका घाट पहुंच कर चक्र पुष्करिणी कुंड के जल से संकल्प के साथ विभिन्न रास्तो से होते हुए बाबा के दर्शन-पूजन के बाद समापन करते है। कुछ लोग नंगे पैर तो कुछ व्रत कर इस यात्रा को शुरू करते हैं. मणिकर्णिका घाट से लेकर पूरे पंचकोशी मार्ग पर श्रद्धालुओं के हुजूम के कारण हर-हर महादेव, बोल बम और जय शंकर का घोष हर ओर गुंजायमान रहता है। कहते है त्रेता युग में भगवान राम ने पत्नी सीता और भाइयों के साथ अपने पिता दशरथ को श्रवण कुमार के श्राप से मुक्ति दिलाने के लिए पहली बार यह पवित्र परिक्रमा की थी। दूसरी बार जब भगवान राम ने रावण का संहार किया तब ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति के लिए सीता और लक्ष्मण के साथ पंचक्रोशी की यात्रा की। माना जाता है कि द्वापर युग में अज्ञातवास के समय पाण्डवों ने द्रौपदी के साथ यह यात्रा की थी। तभी से यह परंपरा चली आ रही है

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पुराणों में कहा गया है, ‘इदं मम प्रियंक्षेत्रं पंचकोशीपरीमितः यानी पांच कोस तक विस्तृत यह क्षेत्र (काशी) भगवान भोलेनाथ को अत्यंत प्रिय है। मान्यता है कि बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी की जो परिक्रमा कर लें तो 33 करोड़ देवी-देवताओं का आशीर्वाद मिलता है। इसी मान्यता के साथ लगभग 5 लाख श्रद्धालु पंचक्रोशी यात्रा करते है। ऐसा अनादिकाल से चला आ रहा है। पंचक्रोशी यात्रा में महिलाएं भी होती हैं। सभी लोग अपने साथ जरूरी सामान की गठरी बनाकर सिर पर रखते हैं। वैसे भी पंचक्रोश यानी मन के पांच विकारों : काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद से मुक्ति। कहते है पंचक्रोशी परिक्रमा से मन के यह पांचों विकार दूर होते हैं और मनुष्य सद्गुणों की ओर प्रवृत्त होता है। पदयात्रा से इसकी परिक्रमा का वैसे तो हर दिन महत्व है, लेकिन सावन, महाशिवरात्रि व चैत्रमाह के त्रयोदशी व आषाढ़ी पुर्णिमा के दिन इसका विशेष महत्व है. काशी में 33 कोटि देवी-देवताओं का वास है। मनुष्य के जीवन में संभव नहीं कि सभी के दर्शन कर ले। इस नगरी की परिक्रमा करने से सभी देवी देवताओं का आशीर्वाद मिल जाता है।


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स्कंदपुराण में भी पंचकोषी यात्रा का वर्णन किया गया है. ऐसी मान्यता है कि श्रद्धालुओं को मौनव्रत या भजन कीर्तन करते हुए यात्रा करनी चाहिये. हजारों साल पुरानी यह परंपरा आज भी चली आ रही है। पुरातात्विक साक्ष्यों के मुताबिक पंचक्रोशी परिक्रमा पथ करीब 3300 वर्ष पुराना है। जहां तक श्रीकाशी विश्वेश्वर और ज्ञानवापी का सवाल है तो भगवान ईशान ने एक बार विश्वेश्वर की पूजा करने को अपने त्रिशूल से गड्ढा खोदा, वही ज्ञानवापी तीर्थ हो गया। शिव का ही एक रूप ईशान है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के ’काशी रहस्य’ के अनुसार भगवान शिव का पंचक्रोशात्मक लिंग ही काशी है। ’शिव रहस्य’ के अनुसार काशी स्वयं में पंचक्रोश का ज्योतिर्मय शिवलिंग है। लिंग पुराण में भी कहा गया है कि प्राचीन विश्ववेश्वर मंदिर के दक्षिण भाग में जो वापी है, उसका पानी पीने से जन्म-मरण से मुक्ति मिलती है। मत्स्यपुराण के अनुसार काशी में बाबा विश्वनाथ के अलावा 5 प्रमुख तीर्थ हैं : दशाश्वमेध, लोलार्क (काशी में कई सूर्य-तीर्थ हैं, जिनमें एक लोलार्क भी है), केशव, बिन्दुमाधव एवं मणिकर्णिका। असि एवं गंगा का संगम, दशाश्वमेध घाट, मणिकर्णिका, पंचगंगा घाट तथा वरणा एवं गंगा का संगम।


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मणिकर्णिका को मुक्तिक्षेत्र भी कहा जाता है। यह वाराणसी के धार्मिक जीवन का केंद्र है और वहां के सभी तीर्थों में इसे सर्वोच्च माना जाता है। एक बार शिव जी का कर्णाभूषण यहां गिर पड़ा और इसी से इसका नाम  मणिकर्णिका पड़ा। ऐसे ही पंचगंगा घाट का नाम इसलिए विख्यात हुआ कि यहां 5 नदियों के मिलने की कथा है। यथा - किरणा, धूतपापा, गंगा, यमुना एवं सरस्वती, जिनमें चार गुप्त हैं। इस पंचगंगा घाट पर स्वामी रामानंदाचार्य का श्रीमठ है। कुछ कारणों से काशी ‘श्मशान’ या ‘महाश्मशान’ भी कही जाती है। गंगा के तट पर  मणिकर्णिका घाट पर सदा शव जलाए जाते हैं। श्मशान को अपवित्र माना जाता है किंतु हजारों वर्षों से श्मशानघाट होने पर भी यह गंगा का परम पवित्र तट माना जाता है। स्कंदपुराण में कहा गया है कि ‘श्म’ का अर्थ है ‘शव’ और ‘शान’ का है सोना (शयन) या पृथ्वी पर पड़ जाना। जब प्रलय आती है तो महान तत्व शवों के समान यहां पड़ जाते हैं, अतः यह स्थान ‘श्मशान’ कहलाता है। जैसे सूर्यदेव एक जगह स्थित होने पर भी सब को दिखाई देते हैं, वैसे ही संपूर्ण काशी में सर्वत्र बाबा विश्वनाथ का ही दर्शन होता है। पुराणों में ऐसा आया है कि काशी के पद-पद पर तीर्थ हैं, एक तिल भी स्थल ऐसा नहीं है, जहां शिव नहीं हों। काशी की महिमा विभिन्न धर्म ग्रंथों में गाई गई है। काशी शब्द का अर्थ है, प्रकाश देने वाली नगरी। जिस स्थान से ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलता है, उसे काशी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि काशी-क्षेत्र में देहांत होने पर जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है। काशी-क्षेत्र की सीमा निर्धारित करने के लिए पुराने समय में पंचक्रोशी (पंचकोसी) मार्ग का निर्माण किया गया था। जिस वर्ष अधिमास (अधिक मास) लगता है, उस वर्ष इस महीने में पंचक्रोशी यात्रा की जाती है। पंचक्रोशी यात्रा करके भक्तगण भगवान शिव और उनकी नगरी काशी के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हैं। अधिमास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। लोक-भाषा में इसे मलमास कहा जाता है।


यात्रा में आने वाले पड़ाव और मंदिर

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पंचक्रोशी (पंचकोसी) परिक्रमा के दौरान बीच में पड़ने वाले पांच पड़ावों पर ही विश्राम की परंपरा है। इन पांच पड़ावों की परंपरागत विश्राम के साथ यात्रा पूर्ण होती है। पंचकोशी परिक्रमा करने वाले परंपरानुसार इन पड़ावों पर विश्राम कर आगे बढ़ते हैं। प्रमुख उन्मत्त भैरव का मंदिर पंचक्रोशी मार्ग के देऊरा गांव में स्थित है। काशी के पंचकोशी मार्ग, देऊरा गांव में स्थित उन्मत्त भैरवनाथ का शरीर सिन्धुर रंग का है। इन भैरव की दिशा पश्चिम है। विशाल दूधिया तालाब से सट्टा हुआ इनका मंदिर है। तालाब पर ही सैकड़ों साल पुराना एक विशाल पीपल का वृक्ष आज भी मौजूद है। ऐसी मान्यता है कि पंचकोशी परिक्रमा यात्रा के दौरान इनकी पूजा, प्रार्थना या अर्चना करने से व्यक्ति के अंदर के सभी तरह के नकारात्मक विचार या भाव तिरोहित हो जाते हैं और वह सुखी एवं शांतिपूर्वक जीवन यापन करता है। इनकी पूजा करने से नौकरी, प्रमोशन, धन आदि की प्राप्ति होती है और साथ ही घर परिवार में प्रसन्नता का वातावरण निर्मित होता है। लहसुन, प्याज आदि त्यागकर शुद्ध सात्विक रूप से इनकी आराधना करने से ये जल्दी प्रसन्न होते हैं। प्रमुख तौर पर उन्मत्त भैरव मंदिर में विदेशी श्रद्धालुओं का जमघट रहता है। यहां से आखिरी पड़ाव कपिलधारा होता है जहां से माथा टेक भक्त वापस मणिकर्णिका जाते हैं। पूरी यात्रा 85 किमी की होती है। कहते है पांचो पांडवों ने एक दिन में पूरी पंचकोशी परिक्रमा यात्रा को किया था। पंचकोशी मार्ग पर स्थित एक मंदिर में द्रोपति के साथ पांच पांडवों की मूर्ति भी स्थापित है। कहा जाता है कि यहां के कुंड के अंदर सीढ़ियां भी थी जो अब विलुप्त हो गई है। मणिकर्णिका से कर्दमेश्वर की दूरी तीन कोस, कर्दमेश्वर से भीम चंडी पांच कोस, भीम चंडी से रामेश्वर सात कोस, रामेश्वर से शिवपुर चार कोस, शिवपुर से कपिलधारा तीन कोस, कपिलधारा से मणिकर्णिका तीन कोस है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी चलने की क्षमता के अनुसार यह यात्रा 1, 3 या 5 दिनों में पूरी करता है। रास्ते में 5 पड़ावों से गुजरते हुए जाना है, जो 50 मील या करीब-करीब 85 किमी के मार्ग पर स्थित है। पंचक्रोशी यात्रा का यह मार्ग, तीर्थ यात्रा का बहुत ही प्राचीन मार्ग है। इस मार्ग पर आपको अनेकों सूचना पट्ट दिखेंगे जो इस पूरी यात्रा में आपका मार्गदर्शन करेंगे और आपको इन पड़ावों के बारे में सूचित भी करेंगे। ये 5 पड़ाव असल में 5 मंदिर हैं, जो इस यात्रा के महत्वपूर्ण स्थल हैं। यहां पर धर्मशालाओं की भी व्यवस्था है, जहां पर यात्री विश्राम करने के लिए ठहर सकते हैं। ये धर्मशालाएँ लगभग 25,000 लोगों को अपनी छत्रछाया प्रदान करने में सक्षम है। ये स्थान तीर्थ यात्रियों के लिए मुफ्त में उपलब्ध है। आपको सिर्फ अपने खाने का बंदोबस्त करना पड़ता है। द्वापर युग में पांडवों ने यह यात्रा द्रौपदी के साथ की थी। इनके द्वारा स्थापित किए गए शिवलिंग शिवपुरी के पांडव मंदिर में पाये जाते हैं। इस मंदिर के पास में ही एक जलकुंड है, जिसे द्रौपदी कुंड के नाम से जाना जाता है। पांडवों ने यह यात्रा अपने निर्वासन काल या अज्ञात वास के दौरान की थी। कपिल धारा मंदिर कपिल मुनि द्वारा स्थापित महादेव मंदिर है। पंचक्रोशी यात्रा का आखिरी पड़ाव है जौं गणेश मंदिर जो छोटा सा है पर बहुत सुंदर है। इसमें गणेशजी की बहुत  ही सुंदर मूर्ति स्थापित है। यहां से आप गंगा और वरुणा का संगम को देख सकते हैं। यह मंदिर आदि केशव घाट, जो वाराणसी के उत्तरी भाग में बसा हुआ है, के पास ही स्थित है। लोग इस मंदिर से जौं के छोटे-छोटे पौधे ले जाकर गंगा में लगाते हैं। कहा जाता है कि गंगा में जौं लगाना यानि बहुत बड़ा कार्य पूरा करना है। स्थानीय बोली में कहे तो ‘गंगा जी में जौं बो दिये’ यानि आपने बहुत बड़ी चीज प्राप्त कर ली है।



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सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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