आलेख : ‘‘कर्म ही पूजा‘‘ के सजीव स्वरूप हैं देव शिल्पी विश्वकर्मा - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 17 सितंबर 2023

आलेख : ‘‘कर्म ही पूजा‘‘ के सजीव स्वरूप हैं देव शिल्पी विश्वकर्मा

कर्म प्रधान विश्व करि राखा यानी परिणाम तो कर्म का ही श्रेष्ठ है, अकर्म का नहीं। फिर विश्वकर्म अर्थात संर्पूणता में कर्म, वैश्विक कर्म, सर्वजन हिताय कर्म और कर्म के लिए सर्वस्व का न्योछावर। अर्थात विश्व में कर्म की प्रधानता को सार्थक रूप से स्पष्ट करने वाले देव हैं देव शिल्पी विश्वकर्मा. संपूर्ण चराचर जगत में जो भी निर्माण, सृजन, विकास आदि होता दिख रहा है, प्रेरक रूप में इसके पीछे विश्वकर्मा की ही प्रेरणा है. गीता के सार में भगवान कृष्ण ने जो कर्म ही पूजा है कि सिद्धांत दिया है, विश्वकर्मा इसी सिद्धांत के आकार, सजीव और मूर्त स्वरूप हैं. उन्होंने सार्वदेशिक शोध आधारित सृजन की पृष्ठभूमि ही नहीं तैयार की, बल्कि सबके लिए उपादेय वस्तुओं का निर्माण किया। गीता में कृष्ण ने कर्म की सतत प्रेरणा दी है। निष्काम कर्म आज भी वही सफल है, जो कर्म को तकनीक आधारित अर्थात कौशल युक्त कर्म करता हुआ आगे आता है। विश्वकर्मा उसी कर्मजीवी समाज के प्रेरक देवता हैं

Bhagwan-vishwakarma
वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य भगवान विश्वकर्मा की जयंती देशभर में प्रत्येक वर्ष भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि 17 सितंबर को मनाया जाता है। लेकिन कुछ भागों में इसे दीपावली के दूसरे दिन भी मनाया जाता है। इस दिन देश के विभिन्न राज्यों में, खासकर औद्योगिक क्षेत्रों, फैक्ट्रियों, लोहे की दुकान, वाहन शोरूम, सर्विस सेंटर आदि में देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा की पूजा की जाती है. इस मौके पर मशीनों, औजारों की सफाई एवं रंगरोगन किया जाता है। इस दिन ज्यादातर कल-कारखाने बंद रहते हैं और लोग हर्षोल्लास के साथ भगवान विश्वकर्मा की पूजा करते है। इसके साथ ही इस दिन भगवान शिव व विष्णु की आराधना तथा पितृ कर्म करने से उनकी विशेष अनुकंपा की प्राप्ति भी होती है। प्रत्येक व्यक्ति को प्राकृतिक ऊर्जा मिलता है। कामकाज में आने वाली समस्त बाधाओं को दूर होती है। मान्यता के अनुसार इस योग में भगवान विश्वकर्मा की पूजा करने से व्यापार में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि होती है। विश्वकर्मा को देवताओं के वास्तुकार यानी देव शिल्पी के रूप में पूजा जाता है। “विश्वं कृत्यस्नं वयापारो वा यस्य सः“ अर्थात् जिसकी सम्यक सृष्टि व्यापार है, वहीं विश्वकर्मा है. प्राचीन काल से ब्रम्हा-विष्णु और महेश के साथ विश्कर्मा की पूजा-आराधना का प्रावधान हमारे ऋषियों-मुनियों ने किया हैं. धार्मिक ग्रंथो के अनुसार इस दिन भगवान विश्वकर्मा सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के आर्शीवाद से धर्मपुत्र के रूप में अवतरित हुए और सारे विश्व को ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल तथा सभ्यता का बोध कराया।


‘बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी, प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च। विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः।। महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी, वह अष्टम वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे संपूर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। उस दिन कन्या संक्रांति थी. इसे भाद्र संक्रांति भी कहते हैं.  सूर्य के पारगमन के आधार पर कन्या संक्रांति की तिथि निश्चित की जाती है. इसी दिन भगवान विश्वकर्मा की पूजा की जाती है. देखा जाएं तो गांवों के देश भारत में कार्य की विशिष्ट सहभागी संस्कृति है। यद्यपि आधुनिकीकरण, मशीनीकरण से ग्रामीण कौशल में कमी आयी है, पर आज भी बढ़ई, लोहार, कुंभकार, दर्जी, शिल्पी, राज मिस्त्री, सोनार अपने कौशल को बचाये हुए हैं। ये विश्वकर्मा पुत्र हमारी समृद्धि के कभी आधार थे। आज विश्वकर्मा जयंती के अवसर पर इनकी कला को समृद्ध बनाने के संकल्प की जरूरत है। ग्रामीण ढांचागत विकास, गांव की अर्थव्यवस्था, जीविका के आधार, क्षमता वृद्धि, अर्थोपाय सबके बीच विश्वकर्मण के मूल्यों, आदर्शों की देश को जरूरत है। विश्वकर्मा जयंती के माध्यम से यदि वैश्विक इकोनोमी के इस दौर में भारतीय देशज हुनर, तकनीक को समर्थन, प्रोत्साहन मिला तो मौलिक रूप से देश उत्पादक होगा, समृद्ध होगा, सभी के पास उत्पादन का लाभ पहुंचेगा। विश्वकर्मा पुत्र निहाल होंगे और भारत उत्पादकता में पुनर्प्रतिष्ठित होगा। पंचांग के अनुसार विश्वकर्मा जयंती 17 सितंबर को मनाई जाएगी. पूजा के लिए शुभ मुहूर्त 17 सितंबर की सुबह 10 बजकर 15 मिनट से लेकर दोपहर 12 बजकर 26 मिनट तक रहेगा. इस मुहूर्त में पूजा करने से शुभ फल की प्राप्ति होगी। पौराणिक कथा के अनुसार, सृष्टि को संवारने की जिम्मेदारी ब्रह्मा जी ने भगवान विश्वकर्मा को सौंपी। ब्रह्मा जी को अपने वंशज और भगवान विश्वकर्मा की कला पर पूर्ण विश्वास था। जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया तो वह एक विशालकाय अंडे के आकार की थी। उस अंडे से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई। कहते हैं कि बाद में ब्रह्माजी ने इसे शेषनाग की जीभ पर रख दिया। शेषनाग के हिलने से सृष्टि को नुकसान होता था। इस बात से परेशान होकर ब्रह्माजी ने भगवान विश्वकर्मा से इसका उपाय पूछा। भगवान विश्वकर्मा ने मेरू पर्वत को जल में रखवा कर सृष्टि को स्थिर कर दिया। भगवान विश्वकर्मा की निर्माण क्षमता और शिल्पकला से ब्रह्माजी बेहद प्रभावित हुए। तभी से भगवान विश्वकर्मा को दुनिया का पहला इंजीनियर और वास्तुकार मनाते हैं। भगवान विश्वकर्मा की छोटी से छोटी दुकानों में भी पूजा की जाती है।


हिंदू धर्म ग्रंथों में यांत्रिक, वास्तुकला, धातुकर्म, प्रक्षेपास्त्र विद्या, वैमानिकी विद्या आदि का जो प्रसंग मिलता है, इन सबके अधिष्ठाता विश्वकर्मा ही माने जाते हैं। विश्वकर्मा ने मानव को सुख-सुविधाएं प्रदान करने के लिए अनेक यंत्रों व शक्ति संपन्न भौतिक साधनों का निर्माण किया। इन्हीं साधनों द्वारा मानव समाज भौतिक सुख प्राप्त करता रहा है। विश्वकर्मा का व्यक्तित्व एवं सृष्टि के लिए किये गये कार्यों को बहुआयामी अर्थों में लिया जाता है। आज के वैश्विक सामाजिक-आर्थिक चिंतन में विश्वकर्मा को बड़े ही व्यापक रूप में देखने की जरूरत हैं, कर्म ही पूजा है, आराधना है। इसी के फलस्वरूप समस्त निधियां अर्थात ऋद्धि- सिद्धि प्राप्त होती हैं। कर्म अर्थात योग, कर्मषु कौशलम् योग का आधार कौशल युक्त कर्म, क्वालिटी फंक्सनिंग है। बाह्य और आंतरिक ऊर्जा के साथ गुणवत्ता पूर्ण कार्य की संस्कृति है। कहते हैं की भगवान विश्वकर्मा की ज्योति से नूर बरसता हैं। जिसे मिल जाएं उसके दिल को शुकून मिलता हैं। जो भी लेता हैं भगवान विश्वकर्मा का नाम उसको कुछ न कुछ जरूर मिलता हैं। इनके दरबार से कोई भी खाली हाथ नहीं जाता हैं। विश्वकर्मा पूजा जन कल्याणकारी है। इसीलिए प्रत्येक व्यक्तियों को सृष्टिकर्ता, शिल्प कलाधिपति, तकनीकी ओर विज्ञान के जनक भगवान विशवकर्मा जी की पुजा-अर्चना अपनी व राष्टीय उन्नति के लिए अवश्य करनी चाहिए।


पौराणिक मान्यताएं

पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान विश्वकर्मा को सृष्टि का पहला इंजीनियर कहा जाता है. देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने ही पूरी सृष्टि का निर्माण किया है. इसीलिए भगवान विश्वकर्मा सृजन के देवता माने जाते हैं। संपूर्ण सृष्टि में जो भी चीजें सृजनात्मक हैं, जिनसे जीवन संचालित होता है वह सब भगवान विश्वकर्मा की देन है। उनमें भगवान विश्वकर्मा विद्यमान है। या यूं कहे भगवान विश्वकर्मा ही दुनिया के पहले शिल्पकार, वास्तुकार और इंजीनियर थे। भगवान विश्वकर्मा ने ही सतयुग में स्वर्ग लोक, त्रेता युग में लंका, द्वापर युग में द्वारिका, हस्तिनापुर व सुदामापुरी का निर्माण किया था। इसके अलावा श्रीहरि भगवान विष्णु के लिए सुदर्शन चक्र, शिव जी का त्रिशूल, पुष्पक विमान, इंद्र का व्रज को भी भगवान विश्वकर्मा ने ही बनाया था। पुष्पक विमान का निर्माण इनकी एक बहुत महत्वपूर्ण रचना मानी जाती है। सभी देवों के भवन और उनके उपयोग में आने वाली अस्त्र शस्त्रों का निर्माण भी विश्वकर्मा जी द्वारा की गई है। कर्ण का कवच या कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र हो या फिर भगवान शिव का त्रिशूल हो, ये सभी चीजें भगवान विश्वकर्मा के निर्माण का प्रभाव है। यमराज का कालदण्ड हो या इंद्र के शस्त्र इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भी विश्वकर्मा ने ही किया है। शिव का त्रिशूल, लंका महल, द्वारका आदि देवी-देवताओं के अस्त्र-शस्त्र और भवन का निर्माण भगवान विश्कर्मा की ही देन है. चारों वेदों में भगवान विश्वकर्मा की महिमा का वर्णन है। अर्थवेद को शिल्प वेद भी कहा गया है। ऋग्वेद पदम्पुराण, विष्णुपुराण तथा महाभारत में भगवान विश्वकर्मा तथा उनके वंशजों का वर्णन उल्लेखित है। मान्यता है कि इस दिन सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी के सातवें पुत्र भगवान विश्वकर्मा का जन्म हुआ था। कहा जाता है कि जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की तो उसे सजाने-संवारने का काम विश्वकर्मा जी ने किया था। इसी श्रद्धा भाव से किसी कार्य के निर्माण और सृजन से जुड़े हुए लोग विश्वकर्मा जयंती के दिन भगवान विश्वकर्मा की पूजा-अर्चना करते हैं। कारीगर, फर्नीचर बनाने वाले, मशीनरी और कारखानों से जुड़े लोग भगवान विश्कर्मा की जयंती धूमधाम से मनाते हैं.


भगवान विश्वकर्मा की उत्पत्ति

पौराणिक मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम ’नारायण’ अर्थात साक्षात विष्णु भगवान सागर में शेषशय्या पर प्रकट हुए। उनके नाभि-कमल से चर्तुमुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे। ब्रह्मा के पुत्र ’धर्म’ तथा धर्म के पुत्र ’वास्तुदेव’ हुए। कहा जाता है कि धर्म की ’वस्तु’ नामक स्त्री से उत्पन्न ’वास्तु’ सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे। उन्हीं वास्तुदेव की ’अंगिरसी’ नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए। पिता की भांति विश्वकर्मा भी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने। मान्यता है कि भगवान भोलेनाथ की नगरी काशी में धार्मिक व्यवहार से चलने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था। अपने कार्य में निपुण था, परंतु विभिन्न जगहों पर घूम-घूम कर प्रयत्न करने पर भी भोजन से अधिक धन नहीं प्राप्त कर पाता था। पति की तरह पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी। पुत्र प्राप्ति के लिए वे साधु-संतों के यहां जाते थे, लेकिन यह इच्छा उसकी पूरी न हो सकी। तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा कि तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ, तुम्हारी इच्छा पूरी होगी और अमावस्या तिथि को व्रत कर भगवान विश्वकर्मा महात्म्य को सुनो। इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे। उत्तर भारत में इस पूजा का काफी महत्व है। 


कई रूप

भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं- दो बाहु वाले, चार बाहु एवं दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख एवं पंचमुख वाले। उनके मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ नामक पांच पुत्र हैं। ये पांचों वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार किया। इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है।


वेद-पुराणों में भी है पूजन की गाथा

प्राचीन ग्रंथो, उपनिषद एवं पुराण आदि में भी आदि काल से ही विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित है। माना जाता है कि पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोग में होने वाली वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है। कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशूल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है। हमारे धर्मशास्त्रों और ग्रथों में विश्वकर्मा के पांच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन है। विराट विश्वकर्मा, धर्मवंशी विश्वकर्मा, अंगिरावंशी विश्वकर्मा, सुधन्वा विश्वकर्म और भृंगुवंशी विश्वकर्मा। भगवान विश्वकर्मा के सबसे बडे पुत्र मनु ऋषि थे। इनका विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ हुआ था। इन्होंने मानव सृष्टि का निर्माण किया है। इनके कुल में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि ऋषि उत्पन्न हुये है.। विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में मान्य हैं, किंतु उनका पौराणिक स्वरूप अलग प्रतीत होता है। आरंभिक काल से ही विश्वकर्मा के प्रति सम्मान का भाव रहा है। उनको गृहस्थ जैसी संस्था के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक माना गया है। वह सृष्टि के प्रथम सूत्रधार कहे गए हैं। विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का देव-बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है। यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं। स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है। कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे। विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं। विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या बल्कि रथादि वाहन और रत्नों पर विमर्श है। ‘विश्वकर्माप्रकाश’ विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। विश्वकर्माप्रकाश को वास्तुतंत्र भी कहा जाता है। इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। विश्वकर्मा पूजा के दिन उद्योगों, फैक्ट्रियों और हर तरह की मशीन की पूजा की जाती है। विश्वकर्मा देव को दुनिया का सबसे पहला इंजीनियर माना जाता है। यही वजह है कि कलाकार, शिल्पकार और व्यापारियों के लिए यह पूजा बहुत महत्वपूर्ण है। हिंदू धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक हर साल कन्या संक्रांति को विश्वकर्मा पूजा होती है। इस दिन विश्वकर्मा का जन्म हुआ था। इस बार 16 सितंबर को विश्वकर्मा पूजा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि भगवान विश्वकर्मा ने ही देवताओं के लिए अस्त्रों, शस्त्रों, भवनों और मंदिरों का निर्माण किया था। पौराणिक कथाओं में यह भी कहा गया है कि विश्वकर्मा ने सृष्टि की रचना में भगवान ब्रह्मा की सहायता की थी।


पूजा विधि

इस दिन सभी तरह के औजारों या सामान की पूजा करनी चाहिए। पूजा के लिए सर्वप्रथम पूजा स्थान पर कलश स्थापना करनी चाहिए। भगवान विश्वकर्मा की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करनी चाहिए। इस दिन यज्ञ इत्यादि का भी आयोजन किया जाता है। पूजन में श्री विष्णु भगवान का ध्यान करना उत्तम माना गया है। इस दिन पुष्प, अक्षत लेकर मंत्र पढ़ें और चारों ओर अक्षत छिड़कें। इसके बाद हाथ में और सभी मशीनों पर रक्षा सूत्र बांधें। फिर भगवान विश्वकर्मा का ध्यान करते हुए दीप जलाएं और पुष्प एवं सुपारी अर्पित करें। विधि विधान से पूजा करने पर पूजा के पश्चात भगवान विश्वकर्मा की आरती करें। भोग स्वरूप प्रसाद अर्पित करें, जिस भी स्थान पर पूजा कर रहे हों उस पूरे परिसर में आरती घुमाएं। पूजा के पश्चात विश्वकर्मा जी से अपने कार्यों में सफलता की कामना करें। विश्वकर्मा पूजा के दिन भगवान विश्वकर्मा की पूजा करने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। साथ ही व्यापार में तरक्की और उन्नति प्राप्त होती है। इनकी पूजा करने से व्यक्ति में नई ऊर्जा का संचार होता है और व्यापार या निर्माण आदि जैसे कार्यों में आने वाली सभी समस्याएं और रुकावटें दूर होती हैं। शिल्पकला का विकास होता है. कारोबार में बढ़ोत्तरी होती है साथ ही धन-धान्य और सुख-समृद्धि का आगमन होता है.





Suresh-gandhi


सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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