पितृ पक्ष विशेष : पिण्डदान से व्यक्ति की 7 पीढ़ी और 100 कुल का होता है उद्धार - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 2 अक्टूबर 2023

पितृ पक्ष विशेष : पिण्डदान से व्यक्ति की 7 पीढ़ी और 100 कुल का होता है उद्धार

मानव जीवन का आकार पिंड से ही प्रारंभ होता है। मां के गर्भ में हम सूक्ष्म रुप के बाद पिंड रुप में आते हैं। यह पिंड पांच तत्वों से बना होता है। क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर से तैयार यह शरीर भी अंत में पिंड रुप में ही विलीन हो जाता है। इसी पिंड को व्यक्ति शहद, तिल, घी, शक्कर और जौ पांच तत्वों के साथ अपने पितरों को अर्पित करते हैं। मान्यता है कि जो देवताओं का प्रिय होता है, तिल बुरी शक्तियों को दूर करता है। कुश की जड़ में ब्रह्मा जी का वास होता है, उसके मध्य में नारायण और अग्र भाग में शंकर विराजमान रहते हैं। इसलिए पिंडदान में इन पांच तत्वों के साथ कुश का शामिल होना विशेष महत्व रखता हैं। गरूड़ पुराण में उल्लेख मिलता है कि पितृ पक्ष में पिण्डदान करने मात्र से व्यक्ति की 7 पीढ़ी और 100 कुल का उद्धार हो जाता है 

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अश्विन के श्राद्ध पक्ष के रूप में पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है जब वह अपने जीवनकाल में जीवित माता-पिता की सेवा करे। उनके मरणोपरांत उनकी बरसी और महालया (पितृपक्ष) में उनका विधिवत श्राद्ध करे। पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है। शास्त्रों में पितरों का स्थान सर्वोपरि है। उन्हें चंद्रमा से भी दूर और देवताओं से भी ऊंचे स्थान माना गया है। कहते हैं पितरों की श्रेणी में मृत पूर्वजों माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी समेत सभी पूर्वज शामिल हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों के श्रेणी में आते हैं। शास्त्रों के अनुसार सूर्य इस दौरान श्राद्ध तृप्त पितरों की आत्माओं को मुक्ति का मार्ग देता है। कहा जाता है कि इसीलिए पितर अपने दिवंगत होने की तिथि के दिन पुत्र-पौत्रों से उम्मीद रखते हैं कि कोई श्रद्धापूर्वक उनके उद्धार के लिए पिंडदान तर्पण और श्राद्ध करें। श्राद्ध के वक्त कुछ खास बातों का ख्याल रखना भी जरूरी है। जैसे श्राद्ध का समय तब होता है जब सूर्य की छाया पैरों पर पड़ने लगे। यानी दोपहर के बाद ही श्राद्ध करना चाहिए। सुबह-सुबह या 12 बजे से पहले किया गया श्राद्ध पितरों तक नहीं पहुंचता है। तैत्रीय संहिता के अनुसार पूर्वजों की पूजा हमेशा, दाएं कंधे में जनेऊ डालकर और दक्षिण दिशा की तरफ मुंह करके ही करनी चाहिए। माना जाता है कि सृष्टि की शुरुआत में दिशाएं देवताओं, मनुष्यों और रुद्रों में बंट गई थीं, इसमें दक्षिण दिशा पितरों के हिस्से में आई थी। मान्यता है कि सोमवार को श्राद्ध करने से सौभाग्य, मंगलवार को विजय, बुधवार को कामा सिद्धि, गुरुवार को धनलाभ और शनिवार के दिन पितृशांति करने से दीर्घायु की प्राप्ति होती है। मतलब साफ है समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुखी नहीं रहता। पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है। इस तरह पितृकार्य की महत्ता देवकार्य से भी बढ़कर मानी गई है।


पितरों के अलावा ब्रह्म, रुद्र, आश्विनी, सूर्य, अग्नि, वायु, विश्वेदेव भी होते है प्रसन्न

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ब्रह्मपुराण के अनुसार श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाला मनुष्य अपने पितरों के अलावा ब्रह्म, रुद्र, आश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, वायु, विश्वेदेव एवं मनुष्यगण को भी प्रसन्ना करता है। आत्मा की अमरता का सिद्धांत तो स्वयं भगवान श्री कृष्ण गीता में उपदेशित करते हैं। आत्मा जब तक परमात्मा से संयोग नहीं कर लेती, तब तक विभिन्ना योनियों में भटकती रहती है और इस दौरान उसे श्राद्ध कर्म में संतुष्टि मिलती है। यही कारण है कि पितरों का श्राद्ध करने का महत्व है। शास्त्रों के अनुसार मनुष्य अपने कर्म के अनुसार विभिन्न प्रकार के फलों का भोग करता है। इन्हीं कर्मों के अनुसार उसे मृत्यु के पश्चात कोई योनि प्राप्त होती है। कर्मफलों के अनुसार ही उसे स्वर्ग, नरक एवं पुनर्जन्म की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में वर्णित है कि श्राद्धकर्ता के तीन पीढ़ियों तक के पितरों को शीत, तपन, भूख एवं प्यास का अनुभव होता है पर स्वयं कर्म न कर सकने के कारण वे अपनी भूख-प्यास मिटा सकने में असमर्थ होते हैं। इसी कारण सृष्टि के आदि से ही श्राद्ध का विधान प्रचलन में है। श्राद्ध इसलिए जरुरी है क्योंकि पिता के जिस शुक्राणु के साथ जीव माता के गर्भ में जाता है, उसमें 84 अंश होते हैं। इनमें से 28 अंश तो पुरुष के स्वयं के भोजनादि से उपार्जित होते हैं और 56 अंश पूर्वजों के होते हैं। इन 56 अंशों का बंटवारा इस तरह होता है कि 21 अंश पिता के, 15 अंश पितामह के, 10 अंश प्रपितामह के, 6 अंश चतुर्थ पुरुष के, 3 पंचम पुरुष के और एक षष्ठ पुरुष के होते हैं। इस तरह सात पीढ़ियों तक वंश के सभी पूर्वजों के रक्त की एकता रहती है। अतः पिंडदान मुख्यतः तीन पीढ़ियों तक के पितरों को ही दिया जाता है। क्योंकि ऊपर वाले पितरों से जीव को दस से कम अंश मिलते हैं। हमारे भीतर प्रवाहित रक्त में हमारे पितरों के अंश हैं, जिसके कारण हम उनके ऋणी होते हैं। यह ऋण उतारने के लिए श्राद्ध करना जरूरी है। श्राद्ध दिवस को ब्राह्मण भोज से पहले पूर्वजों के हिस्से का भोजन कौआ को कराना फलदायी माना जाता है। लेकिन अगर कौआ नहीं दिखे तो गाय को पूर्वजों के हिस्से का भोजन दिया सकता हैं। बता दें, श्राद्ध के दिन तर्पण के बाद पूर्वजों के भाग का भोज कौआ, मछली, गाय, कन्या, कुत्ता और मांगने वाले को दे सकते हैं। लेकिन इसमें कौआ और गाय का विशेष महत्व है। पौराणिक मान्यता है कि श्राद्ध पक्ष में कौवे दिवंगत परिजनों के हिस्से का खाना खाते हैं, तो पितरों को शांति मिलती है और उनकी तृप्ति होती है। शास्त्रों में कहा गया है कि कौवा एक मात्र ऐसा पक्षी है जो पितृ-दूत कहलाता है। यदि दिवंगत परिजनों के लिए बनाए गए भोजन को यह पक्षी चख ले, तो पितृ तृप्त हो जाते हैं। कौवा सूरज निकलते ही घर की मुंडेर पर बैठकर यदि वह कांव- कांव की आवाज निकाल दे, तो घर शुद्ध हो जाता है। यदि श्राद्ध के सोलह दिनों में यह घर की छत का मेहमान बन जाए, तो इसे पितरों का प्रतीक और दिवंगत अतिथि स्वरुप माना गया है।


8 वसु, 11 रुद्र और 12 आदित्य से हुई है सृष्टि की रचना

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अग्नि पुराण के अनुसार, वसु, रुर्र एवं आदित्य श्राद्ध के देवता माने गए हैं इनका आह्वान कर किए गए श्राद्ध से पितर संतुष्ट होते हैं। कहते हैं 8 वसु, 11 रुद्र और 12 आदित्य हैं, इनसे ही सृष्टि की रचना हुई है। वैसे भी मनु स्मृति में मनुष्य के तीन पूर्वजों यथा पिता, पितामह एवं प्रपितामह इन सभी पितृ-देवों को वसुओं, रुद्रो एवं आदित्यों के समान माना गया है। श्राद्ध करते समय इन्हीं देवताओ को पूर्वजों का प्रतिनिधि मानना चाहिए और सच्चे मन से श्राद्ध की संपूर्ण क्रियाएं करना चाहिए। इससे समस्त पितरों को शांति मिलती हैं। पितृ पक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने, उनका स्मरण करने और उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्ति करने का महापर्व है। इस अवधि में पितृगण अपने परिजनों के समीप विविध रूपों में मंडराते हैं और अपने मोक्ष की कामना करते हैं। परिजनों से संतुष्ट होने पर पूर्वज आशीर्वाद देकर हमें अनिष्ट घटनाओं से बचाते हैं। ज्योतिष मान्यताओं के आधार पर सूर्य देव जब कन्या राशि में गोचर करते हैं, तब हमारे पितर अपने पुत्र-पौत्रों के यहां विचरण करते हैं। विशेष रूप से वे तर्पण की कामना करते हैं। श्राद्ध से पितृगण प्रसन्न होते हैं और श्राद्ध करने वालों को सुख-समृद्धि, सफलता, आरोग्य और संतान रूपी फल देते हैं। पितृ पक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्मवैवर्तपुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक पितृ पक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। वे उच्च शुद्ध कर्मों के कारण अपनी आत्मा के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध करने वाले सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।


पितरों के मोक्ष के लिए तर्पण...

जीवन के चार पुरुषार्थ हैं। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। इन चार पुरुषार्थो में मोक्ष प्राप्ति के लिए पितृपक्ष सबसे उत्तम माना गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विन अमावस्या तक का समय पितृ पर्व के रुप में मनाया जाता है। इसमें हम पितृ स्मरण करते है, जिसे श्राद्ध पर्व भी कहते हैं। इसमें पिंडदान और तर्पण का विधान सर्वोपरि है। कहते हैं तर्पण के जरिए ही पितृ मोक्ष प्राप्त करते हैं। अगर हर काम में आती है अड़चन। अगर संबंद्धों में होती है अनबन। कर्ज से जिंदगी हो गयी है दूभर। नहीं गूंजती घर-आंगन किलकारी तो इस बार अगर कर लिया श्रद्धा से पित्रों का तर्पण, तो हो जायेगी हर समस्याएं दूर। क्योंकि इस बार है विशेष संयोग। अमृत सिद्धि - सर्वार्थ सिद्धि जैसे संयोग होने से हो जायेंगी हर उलझन दूर। वैसे भी श्राद्धकर्म केवल कर्मकांड नहीं है। यह अपने पितरों के लिए हमारे मन की श्रद्धा, प्यार, कृतज्ञता का दरख्वाश है कि उन्होंने हमें जीवन दिया, हर प्रकार की उन्नति दी, धरती पर चलना-बोलना सिखाया। समाज की मुख्यधारा में चलने योग्य बनाया। ऐसे मातृ-पितृ ऋण को हम भला कैसे भूल सकते हैं।


‘ब्रह्म ज्ञान, गया श्राद्धं

गौगृह मरणं तथा

कुसांग वासांग कुरुक्षेत्रे

मुक्ति रेखा चतुर्थ विद्या‘


अर्थात मोक्ष प्राप्ति के लिए ये चार विद्याएं इन पंक्तियों में बताई गयी है, जिनमें गया श्राद्ध गृहस्थ जीवन के लिए सबसे सुलभ मार्ग हैं। इससे हम अपने पितरों को श्राद्ध कर्म के माध्यम से तृप्त करने की कामना करते हैं। इसी निमित्त मानव कालांतर से श्राद्ध कर्म करते हुए अपने पितरों को मुक्ति दिलाने का काम करता आया है। इसीलिए इसे श्रद्धा से करना चाहिए। कहते है पितृपक्ष पूर्वजों का ऋण यानी कर्ज उतारने का समय होता है। पितृपक्ष यानी महालया में कर्मकांड की विधियां और विधान अलग-अलग होते हैं। श्रद्धालु एक दिन, तीन दिन, सात दिन, पंद्रह दिन और सत्रह दिन का कर्मकांड करते हैं। शास्त्रों की मान्यता है कि पितृपक्ष में पूर्वजों को याद कर किया जाने वाला पिंडदान सीधे उनतक पहुंचता है और उन्हें सीधे स्वर्ग तक ले जाता है। माता-पिता और पुरखों की मृत्यु के बाद उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले इसी कर्मकांड को ‘पितृ श्राद्ध‘ कहा जाता है।


श्राद्ध से श्रेयस्कर कुछ नहीं

कहते है पितरों के कृत्यों से दीर्घ आयु, स्वर्ग, यश एवं पुष्टिकर्म (समृद्धि) की प्राप्ति होती है। श्राद्ध से यह लोक प्रतिष्ठित है और इससे योग (मोक्ष) का उदय होता है। श्राद्ध से बढ़कर श्रेयस्कर कुछ नहीं है। यदि कोई श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है तो वह ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र एवं अन्य देवों, ऋषियों, पक्षियों, मानवों, पशुओं, रेंगने वाले जीवों एवं पितरों के समुदाय तथा उन सभी को जो जीव कहे जाते हैं, एवं सम्पूर्ण विश्व को प्रसन्न करता है। यम ने कहा है कि पितृपूजन से आयु, पुत्र, यश, कीर्ति, पुष्टि (समृद्धि), बल, श्री, पशु, सौख्य, धन, धान्य की प्राप्ति होती है। विष्णुधर्मोत्तरपुराण में ऐसा कहा गया है कि प्रपितामह को दिया गया पिण्ड स्वयं वासुदेव घोषित है, पितामह को दिया गया पिण्ड संकर्षण तथा पिता को दिया गया पिण्ड प्रद्युम्न घोषित है और पिण्डकर्ता स्वयं अनिरुद्ध कहलाता है। विष्णु को तीनों पिण्डों में अवस्थित समझना चाहिए। अमावस्या के दिन पितर लोग वायव्य रूप धारण कर अपने पुराने निवास के द्वार पर आते हैं और देखते हैं कि उनके कुल के लोगों के द्वारा श्राद्ध किया जाता है कि नहीं। ऐसा वे सूर्यास्त तक देखते हैं। जब सूर्यास्त हो जाता है, वे भूख एवं प्यास से व्याकुल हो निराश हो जाते हैं, चिन्तित हो जाते हैं, बहुत देर तक दीर्घ श्वास छोड़ते हैं और अन्त में अपने वंशजों को कोसते (उनकी भर्त्सना करते हुए) चले जाते हैं। जो लोग अमावस्या को जल या शाक-भाजी से भी श्राद्ध नहीं करते उनके पितर उन्हें अभिशापित कर चले जाते हैं।






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सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार

वाराणसी

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