- जमीन की मिल्कियत के आंकड़े के बिना सामाजिक-आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट आधी-अधूरी
- शिक्षा व रोजगार में दलित-अत्यंत पिछड़ी व पिछड़ी जातियों की कमतर भागीदारी चिंताजनक
- आवासीय स्थिति की रिपोर्ट भी चिंताजनक, झोपड़ी में रह रहे परिवारों को नहीं है जमीन पर मालिकाना हक
पटना 7 नवंबर, बिहार सरकार द्वारा आज विधानसभा में पेश सामाजिक-आर्थिक सर्वे पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए माले राज्य सचिव कुणाल ने कहा है कि रिपोर्ट से राज्य में गरीबी की भयावह तस्वीर उभरकर सामने आई है. सरकार ने 6000 रु. मासिक से कम आमदनी वाले परिवार को गरीबी रेखा से नीचे माना है और इस पैमाने पर 34.13 प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं. सबसे अधिक 42.93 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग हैं. अनुसूचित जन जाति में यह प्रतिशतता 42.70, अत्यंत पिछड़ा वर्ग में 33.58 ओर पिछड़ा वर्ग में यह 33.16 है. रिपोर्ट यह बतलाती है कि शिक्षा व रोजगार में दलित-अत्यंत पिछड़ी व पिछड़ी जातियों की भागीदारी अभी भी बहुत कम है. सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक एससी समुदाय के 23.45, एसटी के 16.08, ईबीसी के 15.49 और ओबीसी समुदाय के 10.04 प्रतिशत लोग झोपड़ी डालकर रह रहे हैं. यह बात जान लेना जरूरी है कि ये लोग जिस जमीन पर बसे हैं, उस जमीन का मालिकाना हक उनके पास नहीं है. उन्हें हमेशा बुलडोजर की मार व विस्थापन का दंश झेलना पड़ता है. इसीलिए हम लगातार कहते आए हैं कि सरकार एक मुकम्मल सर्वे कराकर नया वास-आवास कानून बनाए और जो जहां बसे हैं, उस जमीन का उन्हें मालिकाना हक दे. रिपोर्ट ने हमारी मांग को पुष्ट किया है. खपरैल, एक कमरे अथवा दो कमरे के मकान में रहने वाले परिवारों में भी अधिकांश लोगों को अपने आवासीय जमीन पर मालिकाना हक नहीं है और उन्हें भी बुलडोजर की मार सहनी पड़ती है. सर्वे में जमीन की मिल्कियत का भी सर्वे कराया गया था, लेकिन उसके आंकड़े रिपोर्ट में शामिल नहीं है. यह चिंताजनक है. भूमिहीनता के आंकड़े को सामने लाए बिना यह रिपोर्ट आधी-अधूरी है. यह जानना बेहद जरूरी है कि किस समुदाय के पास जमीन की कितनी मिल्कियत है ताकि भूमि सुधार की बरसों से लटकी प्रक्रिया को आगे बढ़ाई जा सके. हम मांग करते हैं कि सरकार जमीन की मिल्कियत की रिपोर्ट भी सार्वजनिक करे और तदनुरूप भूमि सुधार की प्रक्रिया को आगे बढ़ाए. कृषि प्रधान बिहार के समाज में आज भी जो समुदाय वास्तव में खेती करता है, उन्हें खेती की जमीन पर मालिकाना हक नहीं है. यह माना जाता है कि यहां की 70-80 प्रतिशत बटाईदारों के जरिए चलती है. इन आंकड़ों को सरकार सार्वजनिक करे और बटाईदारों को उनका कानूनी हक दिया जाना चाहिए.
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