अमेरिका और यूरोपीय संघ को भी भारी आर्थिक जोखिम
अध्ययन का नेतृत्व करने वाली पीआईके वैज्ञानिक लियोनी वेंज का कहना है कि, "हमारा विश्लेषण बताता है कि जलवायु परिवर्तन अगले 25 वर्षों में दुनिया भर के लगभग सभी देशों में भारी आर्थिक नुक़सान करेगा, इसमें जर्मनी, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देश भी शामिल हैं." ये निकट भविष्य में होने वाले नुक़सान हमारे अतीत में किए गए एमिशन का परिणाम हैं. अगर हम इनमें से कुछ को भी कम करना चाहते हैं, तो हमें अनुकूलन के लिए अधिक प्रयासों की आवश्यकता होगी. साथ ही, हमें तुरंत और भारी मात्रा में अपने एमिशन में कटौती करनी होगी, नहीं तो इस सदी के उत्तरार्ध में आर्थिक नुक़सान और भी बढ़ जाएगा, जो वैश्विक औसत पर 2100 तक 60% तक हो सकता है. इससे स्पष्ट रूप से पता चलता है कि जलवायु की रक्षा करना, न करने से कहीं अधिक सस्ता है, और इसमें हमने जीवन या जैव विविधता के हानि जैसे गैर-आर्थिक प्रभावों को भी शामिल नहीं किया है.
जो कम ज़िम्मेदार हैं, वो ज़्यादा भुगतेंगे
अध्ययन में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों में असमानता पर भी प्रकाश डाला गया है. अध्ययन में पाया गया है कि लगभग हर जगह नुक़सान हो रहा है, लेकिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के देश सबसे अधिक प्रभावित होंगे क्योंकि वे पहले से ही गर्म हैं. वहां तापमान में और वृद्धि सबसे अधिक हानिकारक होगी. जलवायु परिवर्तन के लिए कम ज़िम्मेदार देशों को उच्च आय वाले देशों की तुलना में आय में 60% अधिक और अधिक एमिशन करने वाले देशों की तुलना में 40% अधिक आय में कमी का सामना करना पड़ेगा. उनके पास जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए संसाधन भी कम हैं. यह निर्णय लेना हमारे ऊपर है: अपनी सुरक्षा के लिए और धन बचाने के लिए हमें रिन्यूबल एनेर्जी प्रणाली की ओर संरचनात्मक बदलाव की ज़रूरत है. अगर हम मौजूदा रास्ते पर ही चलते रहे, तो इसके विनाशकारी परिणाम होंगे. पृथ्वी के तापमान को स्थिर करने के लिए हमें तेल, गैस और कोयले का जलना बंद करना होगा."
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