वह कहते हैं कि इसके लिए संस्था की ओर से सिंदूरू ग्राम पंचायत से संपर्क भी किया गया लेकिन सरपंच द्वारा यह कह कर प्रमाण पत्र जारी करने से मना कर दिया गया कि इन बच्चों के अभिभावक गांव के स्थाई निवासी नहीं है. इसके बाद हमारे द्वारा अलग-अलग स्तर पर पैरवी करने का कार्य किया गया. यह जहां से प्रवास होकर आये हैं वहां की ग्राम पंचायत से भी दस्तावेज के लिए संपर्क किया गया था. परंतु उनके द्वारा भी मना कर दिया गया और कहा गया कि गांव में भी इनका कोई भी प्रूफ नहीं है जिस आधार पर दस्तावेज दिया जाए. सरफराज़ बताते हैं कि कोटडा के एक समाजसेवी चुन्नी लाल ने संस्था के इस काम में मदद भी करना शुरू किया था. लेकिन एक दिन जब वह कोटडा ब्लॉक के उपखण्ड अधिकारी से दस्तावेज के सिलसिले में मिलकर लौट रहे थे तो सड़क दुर्घटना में उनकी मौत हो गई, जिसके बाद इनके लिए दस्तावेज़ तैयार करने के काम रुक गया और बच्चों का एडमिशन नहीं हो सका. सरफराज़ शेख बताते हैं कि केएएस की सहयोगी संस्था श्रमिक सहायता एवं संदर्भ केंद्र के माध्यम से साल 2015 में भी बच्चों की शिक्षा के लिए प्रयास किये गए थे. इसके लिए कालिया मगरा में एक बालवाड़ी केंद्र का निर्माण भी किया गया था. इसे बनाने में प्रवासी मज़दूरों ने भी अपना योगदान दिया था. इसमें प्रतिदिन 60 बच्चे पढ़ने आते थे. लेकिन कुछ वर्षों बाद उस केंद्र द्वारा सहयोग बंद कर देने से इसे चलाने की चुनौती आ गई. हालांकि शिक्षा विभाग के अधिकारियों के हस्तक्षेप के बाद न केवल बिना किसी प्रमाण पत्र के इन बच्चों का करीब के इंदिरा कॉलोनी स्थित प्राथमिक विद्यालय में एडमिशन कराया गया बल्कि उन अधिकारियों की पहल पर बच्चों के आने जाने के लिए ऑटो की व्यवस्था भी की गई. लेकिन चार माह बाद पैसे नहीं मिलने के कारण ऑटो वाले ने आना बंद कर दिया. जब इस सिलसिले में विभाग के अधिकारियों से संपर्क किया गया तो उनकी ओर से कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. जिसके बाद से अब तक बच्चों की शिक्षा पूरी तरह से ठप है. वह कहते हैं कि यहां काम करने वाले मज़दूरों को कभी छुट्टी नहीं मिलती है. वहीं इनकी मज़दूरी इतनी कम है कि वह अपने बच्चों का कहीं एडमिशन भी नहीं करा सकते हैं.
केएएस के अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर अधिवक्ता शंकर लाल मीना, महिपाल सिंह राजपुरोही और गणेश विश्वकर्मा जैसे कुछ समाजसेवियों ने भी समय समय पर अपने स्तर से इन प्रवासी मज़दूरों के बच्चों को शिक्षित करने का प्रयास किया. इसके लिए कॉलोनी में ही अस्थाई स्कूल चलाया गया जिससे इन बच्चों में शिक्षा की लौ जल सके. लेकिन यह सभी कोशिशें स्थाई साबित नहीं हो सकी. कभी संसाधनों के अभाव में तो कभी राजनीति के दबाव में यह स्कूल बहुत अधिक दिनों तक चल नहीं सके. जिससे इन प्रवासी मजदूरों के बच्चे शिक्षा से वंचित रह गए है. हालांकि कई बार बच्चों के परिजनों द्वारा भी अलग अगल स्तर पर अधिकारियों को ज्ञापन देकर स्कूल या आंगनबाड़ी खोलने की मांग की गई, लेकिन इसका कोई सकारात्मक हल नहीं निकल सका है. शिक्षा से यह दूरी धीरे धीरे बच्चों को बाल श्रम की ओर धकेल रहा है. कुछ बच्चे घर का कार्य करने मे व्यस्त हो गए हैं तो कोई परिवार चलाने के लिए होटलों पर काम करने को मजबूर हो गया है. हालांकि शिक्षा का अधिकार कानून में बिना किसी दस्तावेज के सभी बच्चो का स्कूल में प्रवेश देने की बात कही गई है. लेकिन अक्सर नियमों का हवाला देकर सरकारी स्कूल उन्हें बिना दस्तावेज़ के प्रवेश देने से इंकार कर देते हैं. ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या प्रवासी मजदूरों के बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं है? जरूरी है कि सरकार इस प्रकार के नियम बनाए जिससे कि ऐसे बच्चों के लिए किसी प्रकार के प्रमाण पत्र की आवश्यकता के बिना सरकारी स्कूलों तक पहुंच आसान हो सके.
मुकेश कुमार योगी
उदयपुर, राजस्थान
(चरखा फीचर)
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