बैंक पहुंचने पर, गोयल साहब मुझे आदरपूर्वक अपने कमरे में ले गए। वहाँ चाय-पानी का प्रबंध किया गया। गोयल साहब की इस मेहमाननवाज़ी ने मुझे और अधिक जिज्ञासु बना दिया। थोड़ी देर बाद, उन्होंने बड़ी संजीदगी से मुझसे पूछा, "सर, आपने कभी सौ रुपये की एफडी (फिक्स्ड डिपॉजिट) पांच साल के लिए कराई थी क्या?" उनके इस प्रश्न पर मैं हैरान रह गया। सौ रुपये की एफडी? पांच साल के लिए? मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। मेरे दिमाग में तुरंत यह ख्याल आया कि सौ रुपये की एफडी से आखिर मिलेगा क्या? मुश्किल से दो सौ रुपये। मैंने तत्काल उत्तर दिया, "भई, सौ की एफडी पांच साल के लिए भला कौन कराएगा? मिलेगा क्या? सिर्फ दो सौ रुपये ।" गोयल साहब मुस्कुराते हुए बोले, "यही तो हम भी सोच रहे थे कि रैणा साहब को यह क्या सूझी जो सौ की एफडी करवाई।" अब मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई थी। मैंने गोयल साहब से अनुरोध किया कि वे कागज निकालें जिनके आधार पर मेरी एफडी बनी हैं। कुछ ही देर में कागज निकाले गए और तब पता चला कि असल में मैंने एफडी के लिए नहीं बल्कि रेकरिंग डिपॉजिट (आर-डी) खोलने के लिए आवेदन किया था। लेकिन गलती से बैंक ने मेरे निवेदन को एफडी खोलने का प्रस्ताव समझ लिया था। यह घटना पैसे की प्रकृति के बारे में एक महत्वपूर्ण पाठ सिखाती है: "पैसा पैसे को खींचता है।"
डॉ० शिबन कृष्ण रैणा
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