यहाँ पर आज़ादी से जुडा एक छोटा-मोटा और हल्का-फुल्का संस्मरण याद आ रहा है। बात श्रीनगर/कश्मीर की है और लगभग पचास साल पुरानी है। द्वारिकानाथ नाम के एक सज्जन बदामीबाग स्थित सेना के कार्यालय में लिपिक के पद पर कार्य करते थे। सीधे-सादे व्यक्ति थे। समय पर ऑफिस जाना और समय पर घर लौटना।
उस दिन पंद्रह अगस्त का दिन था। देश की आज़ादी का दिन ! द्वारिकानाथ को घर लौटने में काफी देर हो गयी। मां-बाप चिंतित और परेशान।---रात के बारह भी बज गए मगर द्वारिकानाथ का कोई अतापता नहीं। माँ दरवाज़े पर बैठकर बेटे का बेचैनी से इंतज़ार करने लगी। तभी द्वारिकानाथ ने घर में प्रवेश किया। उसके पैर डगमगा रहे थे और चाल भी कुछ बहकी-बहकी-सी थी।माँ बेटे की यह हालत देखकर घबरा गयी और उसने पति को आवाज़ दी:" देखना जी, यह द्वारिका को क्या हो गया है?
पिता ने बेटे को देखा। सचमुच, द्वारिका के पैर डगमगा रहे थे और बहकी-बहकी बातें कर रहा था।मुंह से कुछ गंध भी आ रही थी।तभी पिता ने टोका :"द्वारके ! यह क्या ?"
"ह-ह आज़ादी, आज़ादी!!" द्वारिकानाथ के मुंह से सहसा निकल पड़ा।
माँ-बाप एक दूसरे का मुंह ताकने लगे।
डॉ० शिबन कृष्ण रैणा
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