करीब तीन वर्ष पहले मज़दूरी की तलाश में झारखंड के पाकुड़ जिला के एक सुदूर गांव अतागोली से जयपुर के स्लम बस्ती में रहने आये 41 वर्षीय रिज़वान का परिवार भी स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ उठाने से वंचित है. खाना बना रही उनकी 36 वर्षीय पत्नी शकीला के पास डेढ़ वर्षीय बेटा इम्तेयाज़ बैठा था. जिसके पूरे शरीर में छोटे बड़े दाने नज़र आ रहे थे. जो शायद मीजल्स (खसरा रोग) से प्रभावित था. शकीला बताती हैं कि उसे आज तक किसी प्रकार का कोई टीका नहीं लगा है. गर्भावस्था के दौरान उनका भी किसी प्रकार का कोई टीकाकरण नहीं हुआ था क्योंकि उनके परिवार में भी किसी का कोई स्वास्थ्य कार्ड नहीं बना है. शकीला कहती हैं कि हफ्ते में तीन दिन एक डॉक्टर बाबा रामदेव नगर आते हैं जो 20 रुपए प्रति मरीज़ देखते हैं. बस्ती के सभी लोग उसी डॉक्टर को दिखाते हैं और उनके बताए अनुसार दवा खरीद कर खाते हैं. हालांकि इम्तेयाज़ को अभी तक उनकी बताई दवा असर नहीं कर रही है. वह कहती हैं कि निजी क्लिनिक में दिखाने पर बहुत पैसा लगता है. उसी बस्ती की रहने वाली सात वर्षीय सायरा शारीरिक रूप से कुपोषित नज़र आ रही थी. उसकी मां जमीला बताती हैं कि जन्म के बाद उसे केवल एक बार टीका लगा था. जो निजी क्लिनिक में लगवाया था क्योंकि सरकारी अस्पताल में दस्तावेज़ नहीं होने के कारण वहां उसका टीका नहीं लगाया था. निजी क्लिनिक में टीकाकरण का बहुत पैसा लगता है. इसलिए दोबारा नहीं लगाया. नगर निगम ग्रेटर जयपुर के अंतर्गत आने वाले इस स्लम बस्ती की आबादी लगभग 500 से अधिक है. यहां अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों की बहुलता है जबकि कुछ ओबीसी परिवार भी यहां आबाद है. जिसमें लोहार, मिरासी, कचरा बीनने वाले, फ़कीर, ढोल बजाने और दिहाड़ी मज़दूरी का काम करने वालों की संख्या अधिक है. इस बस्ती में पीने का साफ़ पानी, शौचालय सहित कई बुनियादी सुविधाओं का अभाव है.
इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ रिवीव्ज़ एंड रिसर्च इन सोशल साइंस में "महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति का एक विश्लेषणात्मक अध्ययन" में पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर के सहायक प्राध्यापक बी. एल. सोनेकर ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों का ज़िक्र किया है. वह लिखते हैं कि आजादी के बाद से ही सरकार के समक्ष महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार एक महत्वपूर्ण चुनौती रही है. विशेषकर ग्रामीण महिलाओं की, जहां उचित चिकित्सा सुविधा पूरी तरह से उपलब्ध नहीं हो पाती है. वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या का 48.4 प्रतिशत जनसंख्या महिलाएं हैं, जिसमें अधिकतर की मृत्यु बेहतर चिकित्सा सुविधा के अभाव के कारण होती है. चाहे वह प्रसव के दौरान हो या एनीमिया से ग्रसित अथवा अन्य कारणों से हो. हालांकि विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में स्वास्थ्य के क्षेत्र में गंभीरता से ध्यान देने के कारण इसमें काफी प्रगति हुई है. यही कारण है कि जहां वर्ष 1947 में महिलाओं में जीवन प्रत्याशा 32 वर्ष थी, वहीं अब यह बढ़कर 66 वर्ष पहुंच चुकी है. वह लिखते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में कई तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है. जिनमें आर्थिक और वित्तीय संसाधनों की कमी प्रमुख है. यह कमी उन्हें स्वास्थ्य बीमा कवरेज के दायरे से दूर होने के कारण होता है. जो उनके आवश्यक दस्तावेज़ पूर्ण नहीं होने के कारण बन नहीं पाते हैं. इसके अतिरिक्त समाज में बेटियों की तुलना में बेटों को प्राथमिकता देना भी महिलाओं और किशोरियों को स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच से दूर बना देता है. इसके पीछे कई सामाजिक, आर्थिक और पारंपरिक कारण हैं. लगभग ऐसी ही परिस्थितियां शहरी क्षेत्रों में आबाद स्लम बस्तियों की है. जहां बुनियादी सुविधाओं की कमी और अन्य कारकों के कारण महिलाओं और किशोरियों का स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचना किसी चुनौती से कम नहीं है. यही चुनौती उनके स्वास्थ्य और पोषण की कमी को और अधिक जोखिम बना देता है. जिसे दूर करने की आवश्यकता है ताकि एक स्वस्थ और कुपोषित मुक्त समाज का निर्माण किया जा सके.
सुखराम
जयपुर, राजस्थान
(चरखा फीचर)
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