महाशिवरात्रि : शिव ही समस्त संपदाओं के उद्गम और त्रिलोकी के नाथ हैं - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

महाशिवरात्रि : शिव ही समस्त संपदाओं के उद्गम और त्रिलोकी के नाथ हैं

भगवान शंकर सबका कल्याण करने वाले हैं। शिव की महिमा अपरंपार है। जिनके कोष में भभूत के अतिरिक्त कुछ नहीं है परंतु वह निरंतर तीनों लोकों का भरण पोषण करने वाले हैं। परम दरिद्र शमशानवासी होकर भी वह समस्त संपदाओं के उद्गम हैं और त्रिलोकी के नाथ हैं। अगाध महासागर की भांति शिव सर्वत्र व्याप्त हैं। वह सर्वेश्वर हैं। अत्यंत भयानक रूप के स्वामी होकर भी स्वयं शिव हैं। शिव अनंत हैं। शिव की अनंतता भी अनंत है। शिव स्वयं आनंदमय हैं। महाशिवरात्रि यानी भोले बाबा के विवाह की रात्रि। पुरुष एवं प्रकृति के मिलन की रात्रि। आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त करने की रात्रि।  शिवलिंग की उपासना कर परमानंद के प्राप्ति की रात्रि। शिव की शक्ति की रात्रि। शिव के समीप ले जा कर सच्चिदानंद का साक्षात्कार करवाने की रात्रि। शरीर के भीतर मौजूद शिव को जानने की रात्रि। औघड़दानी संग मां गौरी का आर्शीवाद बरसाती है यह रात्रि। जी हां, शिव की शक्ति रात्रि ही है जो विश्व के समस्त प्राणियों को जीने की राह सिखाता है। बताता है सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर है, इसके सिवाय कुछ भी नहीं है। अर्थात शिव और शिवत्व की दिव्यता को जान लेने का महापर्व है महाशिवरात्रि। कहते है मानव जब सभी प्रकार के बंधनों और सम्मोहनों से मुक्त हो जाता है तो स्वयं शिव के समान हो जाता है। समस्त भौतिक बंधनों से मुक्ति होने पर ही मनुष्य को शिवत्व प्राप्त होता है। ज्योतिष गणना के अनुसार चतुर्दशी तिथि को चंद्रमा अपनी क्षीणस्थ अवस्था में पहुंच जाते हैं। इस कारण बलहीन चंद्रमा सृष्टि को ऊर्जा देने में असमर्थ हो जाते हैं। चंद्रमा का सीधा संबंध मन से कहा गया है। मन कमजोर होने पर भौतिक संताप प्राणी को घेर लेता है तथा विषाद की स्थिति उत्पन्न होती है। इससे कष्टों का सामना करना पड़ता है। चंद्रमा भगवान शिव के मस्तक पर विराजमान हैं और ऐसे में उनकी आराधना करने मात्र से ही सभी कष्ट दूर हो जाते हैं


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इस सृष्टि के संहारकर्ता देवों के देव महादेव हैं जिनको कई नामों से जाना जाता है जैसे भोलेनाथ, शिवशंभू, भगवान शिव आदि.विष्णु पुराण की कथा के अनुसार, भगवान शिव बच्चे के रूप में पैदा हुए थे. दरअसल, ब्रह्मा जी को एक बच्चे की जरूरत थी. उन्होंने इसके लिए तपस्या की. तब अचानक उनकी गोद में रोते हुए बालक शिव प्रकट हुए. ब्रह्मा जी ने बच्चे से रोने का कारण पूछा तो उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि उसका कोई नाम नहीं है इसलिए वह रो रहा है. तब ब्रह्मा जी ने शिवजी का नाम ‘रुद्र’ रखा जिसका अर्थ होता है ‘रोने वाला’. शिवजी तब भी चुप नहीं हुए. इसलिए, ब्रह्मा जी ने उन्हें दूसरा नामदिया पर शिव जी को वह नाम भी पसंद नहीं आया और वे फिर भी चुप नहीं हुए. इस तरह शिवजी को चुप कराने के लिए ब्रह्मा जी ने उन्हें 8 नाम दिए और इस तरह शिव 8 नाम दिए और इस तरह शिव 8 नामों (रुद्र, शर्व, भाव, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव) से जाने गए.  इस बात का जिक्र सत्यार्थ नायक की किताब ’महागाथा’ में भी मिलता है. तो कथा के अनुसार, जब धरती, आकाश, पाताल समेत पूरा ब्रह्माण्ड जलमग्न था तब ब्रह्मा, वि. और महेश के सिवा कोई भी देव या प्राणी नहीं था. तब केवल विष्णु जी ही जल सतह पर अपने शेषनाग पर लेटे नजर आ रहे थे. तब उनकी नाभि से कमल नाल पर ब्रह्मा जीप्रकट हुए. ब्रह्मा-विष्णु जब सृष्टि के संबंध में बातें कर रहे थे तो शिव जी प्रकट हुए. ब्रह्मा जी ने उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया. तब शिव जी के रूठ जाने के भय से भगवान विष्णु ने दिव्य दृष्टि प्रदान कर ब्रह्मा जी को शिव जी की याद दिलाई. ब्रह्मा जी को अपनी गलती का एहसास हुआ और शिव जी से क्षमा मांगते हुए उन्होंने उनसे अपने पुत्र रूप में पैदा होने का आशीर्वाद मांगा. शिव जी ने ब्रह्मा जी .की प्रार्थना स्वीकार करते हुए उन्हें यह आशीर्वाद प्रदान किया. इसके बाद जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना शुरू की तो उन्हें एक बच्चे की जरूरत पड़ी और तब उन्हें भगवान शिव का आशीर्वाद ध्यान आया. अतः ब्रह्मा जी ने तपस्या की और बालक शिव बच्चे के रूप में उनकी गोद में प्रकट हुए. शिवपुराण के एकादश खंड में भी भगवान शिव के प्रकट होने का जिक्र मिलता है. जिसके मुताबिक, ’ब्रह्माजी जब अण्ड से प्रकट होकर कल्प में यह देखते हैं कि मेरी रची हुई सृष्टि बढ़ नहीं रही है तब वह बहुत दुःखी हो जाते हैं. तब इनका दुःख समाप्त करने के लिए हर कल्प में महेश्वर की इच्छा से रुद्र भगवान पुत्र रूप में ब्रह्माजी से प्रकट होते हैं. रुद्र, भगवान शिव थे या महादेव. जब ब्रह्माजी भगवान रुद्र से सृष्टि रचने की प्रार्थना करते हैं तो शिवजी अपने जैसे ही स्वरूवाले जटाधारी ग्यारह रुद्र उत्पन्न करते हैं. तत्पश्चात ब्रह्माजी को पुनः सृष्टि रचने का आदेश देकर शिवजी अन्तर्ध्यान हो जाते हैं.शिव-शिवा की उत्पत्तिजब ब्रह्माजी ने अनेकों प्रकार से सृष्टि उत्पन्न की, तब भी अनेकों प्रयत्न करने पर भी सृष्टि में वृद्धि होती दिखायी नहीं दी, तब उन्होंने मैथुन द्वारा सृष्टि की रचना करने का विचार किया. यह विचार उत्पन्न होने पर ब्रह्माजी ने कठोर तपस्या करनी शुरू कर दी. वे शक्ति के साथ भगवान शिव को ध्यान में धारण कर कठो.तपस्या करने लगे. उनके तप से खुश होकर शिवजी प्रकट हुए. उस समय शिवजी का आधा शरीर स्त्री का और आधा शरीर पुरुष का था. ब्रह्माजी ने उठकर उन अर्ध-नारीश्वर भगवान शिव की शक्ति सहित स्तुति की. हे सर्वगुण सम्पन्न भगवान महेश्वर तथा जगत जननी शक्ति स्वरूपा ! आपकी जय हो. आप तरह..तरह से संसार की रचना करने में समर्थ हो. आपकी जय हो. आप सृष्टि रचना का मुझे आशीर्वाद प्रदान करो.


शिव ही सृष्टि के मूल हैं

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शिव संहार के देवता कहे जाते हैं. इस बात से वैज्ञानिक भी सहमत है. यह वैज्ञानिकों का ऐसा सिद्धांत है जिसमें वो धरती, उस पर मौजूद जीवन के खत्म होने और इसका आकाशगंगा से संबंध बताया गया है. इस हाइपोथिसिस में यह बताया गया है कि धरती पर समय-समय पर जीवन का सामूहिक संहार होगा. इसकी वजह धूमकेतु या एस्टेरॉयड्स या उल्कापिंड हो सकते हैं.  सिर्फ यही नहीं पृथ्वी किसी अन्य ग्रह से टकरा भी सकती है. या कोई बड़ा पत्थर धरती से आकर टकरा सकता है. उसकी टक्कर से अंतरिक्ष में इतने ज्यादा धूल के बादल फैले कि दुनिया फिर से हिमयुग में चली जाए. अब तक की गणना के मुताबिक धरती पर पांच बार जीवन का सामूहिक विनाश हो चुका है. 20 के आसपास छोटे सामूहिक विनाश हुए हैं. ये सभी घटनाएं पिछले 54 करोड़ वर्षों में हुई है. ये हाइपोथिसिस एमआर रैंपिनो और ब्रूस एम. हैगर्टी ने दी थी. इसी स्टडी की बदौलत आज भी वैज्ञानिक धरती पर होने वाले छठे सामूहिक विनाश की स्टडी और रिसर्च में लगे हैं. जो ये बताते हैं कि कैसे पर्यावरण को नुकसान हो रहा. जीव-जंतुओं की मौत हो रही है. जिस हिसाब से गर्मी बढ़ रही है. उससे पृथ्वी के कई इलाकों पर भयानक विनाशकारी प्रभाव पड़ रहा है. समुद्री जीव खत्म हो रहे हैं. अब यह गैर-समुद्री जीवों की तरफ भी बढ़ रहा है. इतना ही नहीं ऐसी कई विनाशकारी चीजें ब्रह्मांड में भी हो रही है. जो नई दुनिया बना रही हैं. पुरानी खत्म कर रही हैं. शिवा हाइपोथिसिस में ग्रहों के खत्म होने और बनने की बात भी कही गई है. धरती पर ऊर्ट क्लाउड से धूमकेतुओं की बारिश की बात कही गई है. इस हाइपो.थिसिस का नाम कैसे शिवा हाइपोथिसिस पड़ा? वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि भगवान शिव संहारक, विनाशक और निर्माणकर्ता हैं. 1987 में कैंपबेल की एक स्टडी में कहा गया था कि दुनिया में सबसे ज्यादा और सबसे प्राचीन देवता शिव हैं. उनकी पूजा बहुत जगहों पर होती है. शिव को इस वैज्ञानिक स्टडी में शामिल करने की जो बात कही गई है, उसमें बताया गया है कि उनके एक हाथ में जलती हुई ज्वाला है. दूसरे में डमरू. जब वो डमरू बजा.ते हैं तो एक लयबद्ध तरीके से यानी वह नृत्य और निर्माण का प्रतीक है. वहीं जब हाथ में जलती ज्वाला घुमाते हैं, तो उसे कॉस्मिक साइकिल से जोड़ा गया है. याननी ब्रह्मांड के मूवमेंट से यह विनाश और निर्माण की एक सतत प्रक्रिया है. धरती पर विनाश की कई स्टडी आई हैं. व्यास का एक उल्कापिंड किस तरह से धरती को खत्म कर सकता है. इसकी डिटेल इस स्टडी में दी गई है. चर्चा सिर्फ इस चीज की नहीं कैसे होगा, ये भी बताया गया है कि इसका असर क्या होगा. पूरी दुनिया में काले बादल छा जाएंगे. सूरज की रोशनी नहीं मिलेगी. तापमान में हफ्ते भर में माइनस 15 डिग्री सेल्सियस की गिरावट आएगी. चारों तरफ बर्फ जम जाएगा. जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी. यह भी बताया गया है कि जरूरी नहीं कि इन्हीं कॉस्मिक घटनाओं से धरती का खात्मा हो. यह काम इंसानों द्वारा किए जा रहे जलवायु परिवर्तन की वजह से भी हो रहा है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं. नदियां सूख रही हैं. सूखा पड़ रहा है. प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और तीव्रता बढ़ गई है. इसमें जैविक और अजैविक दोनों तरह का विनाश हो रहा है.


सत्यम्, शिवम्, सुंदरम्

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संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के मुखारविन्द से कहलवाया है कि शिवद्रोही मम दास कहावा, सो नर सपनेहु मोहि नहिं भावा अर्थात जो शिव का द्रोह कर के मुझे प्राप्त करना चाहता है वह सपने में भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकता। इसीलिए शिवरात्रि में शिव आराधना के साथ श्रीरामचरितमानस पाठ का बहुत महत्व होता है। शिव आदि-अनादि है। सृष्टि के विनाश और पुनःस्थापन के बीच की कड़ी हैं। वास्तव में शिवरात्रि का परम पर्व स्वयं परमात्मा के सृष्टि पर अवतरित होने की स्मृति दिलाता है। कहते है जब शिव जी बारात ले कर हिमालय के घर पहुंचे तो वे बैल पर सवार थे। उनके एक हाथ में त्रिशूल और एक हाथ में डमरू था। उनकी बारात में समस्त देवताओं के साथ उनके गण भूत, प्रेत, पिशाच आदि भी थे। सारे बाराती नाच गा रहे थे। सारे संसार को प्रसन्न करने वाली भगवान शिव की बारात अत्यंत मन मोहक थी। इस तरह शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिव जी और पार्वती का विवाह हो गया और पार्वती को साथ ले कर शिव जी अपने धाम कैलाश पर्वत पर सुख पूर्वक रहने लगे। सत्यम्, शिवम्, सुंदरम्। यही तीन शब्द जीवन का मूल हैं। यही तीन अक्षर भगवान शिव को प्रिय हैं। देखा जाएं तो शिव हमारे चारों ओर हैं। हम जो भी आचरण करते हैं, हम जो भी व्यवहार करते हैं, हम जो भी कर्म करते हैं, हम जो भी भोगते हैं, हम जो भी जीते हैं, हम जो भी मरते हैं, इन सभी का मूल शिव हैं। शिव के बिना पूजा नहीं। शिव के बिना प्रकृति नहीं। प्रवृत्ति नहीं। जीवन नहीं। मृत्यु भी नहीं। शिव हमारी दैहिक, दैविक और भौतिक शक्ति हैं। शिव हमारा आलोक हैं। शिव हमारा भूमंडल हैं। शिव प्रकृति स्वरूप हमारे स्तंभ हैं। भगवान शंकर हमको जीना और मरना सिखाते हैं। वह हमको बहुदेववाद की परिभाषा से दूर ले जाते हैं और कहते हैं.. ईश्वर एक है। उसका रंग, रूप और आकार नहीं है। एक ही रुद्र है। दूसरा कोई नहीं। एक ही परमात्मा की शरण में जाओ। उनका एक ही महामंत्र है.. ओम। अ-अकार यानी मस्तिष्क। उ-उकार यानी उदर। म-मकार यानी मोक्ष। यह ओम ही सर्वव्यापक है। प्रणवाक्षर ही जीवनदायी है। शिव कर्म प्रधान हैं महाशिवरात्रि और ज्योतिर्लिग महाशिवरात्रि अहोरात्रि है। शिवपुराण में प्रसंग है कि एक बार तीनों ही देवों में अपने अधिकार और सर्वश्रेष्ठता को लेकर विवाद हुआ। विवाद का कोई हल नहीं निकला। तभी एक ज्योति फूटती है। यह निराकार ब्रता ज्योति थी। तुममें से कोई नहीं। मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूं। यही ज्योतिर्लिग है। ‘एको हि रुद्रो’ अर्थात एक ही रुद्र है। मानव शरीर पंचभूत तत्वों से बना है। भूमि, गगन, वायु, अग्नि और जल। ये पांच तत्व ही रुद्र हैं। यानी जन्म से मोक्ष तक जो साथ-साथ हो, वही रुद्र है। वही शिव है। भगवान का अर्थ भी यही है। भ से भूमि, ग से गगन, व से वायु, अ से अग्नि और न से नीर। संसार में श्रेष्ठ यानी शिवदायी कार्य करते हुए मोक्ष की कामना करने का नाम ही महाशिवरात्रि है। इसी दिन भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह भी इसी दिन हुआ था। इसलिये महाशिवरात्रि हिंदू धर्म में आस्था रखने वालों एवं भगवान शिव के उपासकों का एक मुख्य त्यौहार है। ऐसा भी माना जाता है कि महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव की पूजा करने, व्रत रखने और रात्रि जागरण करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं एवं उपासक के हृदय को पवित्र करते हैं।


पूरे जगत में होती है शिव पूजा

भारत ही नहीं विश्व के अन्य अनेक देशों में भी प्राचीन काल से शिव की पूजा होती रही है। इसके अनेक प्रमाण समय समय पर प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी ऐसे अवशेष प्राप्त हुए हैं जो शिव पूजा के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। हमारे समस्त प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में भी शिव जी की पूजा की विधियां विस्तार से उल्लिखित हैं। ईशान संहिता के अनुसार महाशिवरात्रि को ही ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ। शिव पुराण में ब्रह्मा जी ने कहा है कि संपूर्ण जगत के स्वामी सर्वज्ञ महेश्वर के कान से गुण श्रवण, वाणी से कीर्तन, मन से मनन करना महान साधना माना गया है। इसी लिए महाशिवरात्रि के दिन उपवास, ध्यान, जप, स्नान, दान, कथा श्रवण, प्रसाद एवं अन्य धार्मिक कृत्य करना महाफलदायक होता है। कृष्णपक्ष में हरेक चन्द्रमास का 14वां दिन या अमावस्या से एक दिन पूर्व शिवरात्रि के नाम से जाना जाता है। एक पंचांग वर्ष में होने वाली सभी 12 शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि, जो फरवरी-मार्च के महीने में पड़ती है सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इस रात्रि में इस ग्रह के उत्तरी गोलार्थ की दशा कुछ ऐसी होती है कि मानव शरीर में प्राकृतिक रूप से ऊर्जा ऊपर की ओर चढ़ती है। यह एक ऐसा दिन होता है जब प्रकृति व्यक्ति को उसके आध्यात्मिक शिखर की ओर ढकेल रही होती है। इसका उपयोग करने के लिए इस परंपरा में हमने एक खास त्योहार बनाया है जो पूरी रात मनाया जाता है। पूरी रात मनाए जाने वाले इस त्योहार का मूल मकसद यह निश्चित करना है कि ऊर्जाओं का यह प्राकृतिक चढ़ाव या उमाड़ अपना रास्ता पा सके । 


जब तीनों लोक बने बाराती

मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव को प्रत्येक माह की चतुर्दशी तिथि प्रिय है, परन्तु सभी चतुर्दशी तिथियों में फाल्गुन माह की चतुर्दशी तिथि उनको अतिप्रिय है। गौरी को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों और पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकार ज्वाला उनकी पहचान है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी अपने उपाशकों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं। दक्षिण भारत का प्रसिद्ध ग्रन्थ नटराजम भगवान शिव के सम्पूर्ण आलोक को प्रस्तुत करता है। इसमें लिखा गया है कि मधुमास यानी फाल्गुन मास की चर्तुदशी को प्रपूजित भगवान शिव कुछ भी देना शेष नहीं रखते हैं। इसमें बताया गया है कि ‘त्रिपथगामिनी’ गंगा उनकी जटा में शरण एवं विश्राम पाती हैं और त्रिकाल यानी भूत, भविष्य एवं वर्तमान को जिनके त्रिनेत्र त्रिगुणात्मक बनाते हैं। शिव को देवाधिदेव महादेव इसलिए कहा गया है कि वे देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, किन्नर, गंधर्व पशु-पक्षी एवं समस्त वनस्पति जगत के भी स्वामी हैं। शिव की अराधना से संपूर्ण सृष्टि में अनुशासन, समन्वय और प्रेम भक्ति का संचार होने लगता है। इसीलिए, स्तुति गान है- मैं आपकी अनंत शक्ति को भला क्या समझ सकता हूं। हे शिव, आप जिस रूप में भी हों, उसी रूप को मेरा प्रणाम। शिव यानी ‘कल्याण करने वाला’। शिव ही शंकर हैं। शिव के ‘श’ का अर्थ है कल्याण और क का अर्थ है करने वाला। शिव, अद्वैत, कल्याण- ये सारे शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं। शिव ही ब्रह्मा हैं, ब्रह्मा ही शिव हैं। ब्रह्मा जगत के जन्मादि के कारण हैं। शिव और शक्ति का सम्मिलित स्वरुप हमारी संस्कृति के विभिन्न आयामों का प्रदर्शक है। शिव औघड़दानी है और दुसरों पर सहज कृपा करना उनका सहज स्वभाव है। अर्थात शिव सहज है, शिव सुंदर है, शिव सत्य सनातन है, शिव सत्य है, शिव परम पावन मंगल प्रदाता है, शिव कल्याणकारी है, शिव शुभकारी है, शिव अविनाशी है, शिव प्रलयकारी है, इसीलिए तो उनका शुभ मंगलमय हस्ताक्षर सत्यम् शिवम् सुन्दरम्, को सभी देव, दानव, मानव, जीव-जंतु, प्शु-पक्षी चर-अचर, आकाश-पाताल, सप्तपुरियों में शिव स्वरुप महादेव के लिंग का आत्म चिंतन कर धन्य होते हैं। यह कटु सत्य है। ‘ॐ नमः शिवाय, यह शिव का पंचाक्षरी मंत्र है। श्रीराम व श्रीकृष्ण ने जब से सृष्टि की रचना हुई है तब से भगवान शिव की आराधना व उनकी महिमा की गाथाओं से भंडार भरे पड़े है। स्वयं भगवान श्रीराम व श्रीकृष्ण ने भी अपने कार्यो की बाधारहित इष्टसिद्धि के लिए उनकी साधना की और शिवजी के शरणागत हुए। श्रीराम ने लंका विजय के पूर्व भगवान शिव की आराधना की। राक्षसराज हिरणाकश्यप का पुत्र प्रहलाद श्री विष्ण की पूजा में तत्पर रहता था। भगवान भोलेनाथ ने ही नृसिंह का अवतार लेकर भक्त प्रहलाद की रक्षा की। भगवान शिव ने देवराज इंद्र पर कृपादृष्टि डाली तो उन्होंने अग्निदेव, देवगुरु वृहस्पति और मार्केंडेय पर भी कृपा बरसाई। कहा जा सकता है आशुतोष भगवान शिव प्रसंन होते है तो साधक को अपनी दिव्य शक्ति प्रदान करते है जिससे अविद्या के अंधकार का नाश हो जाता है और साधक को अपने इष्ट की प्राप्ति होती है। इसका तात्पर्य है कि जब तक मनुष्य शिवजी को प्रसंन कर उनकी कृपा का पात्र नहीं बन जाता तब तक उसे ईश्वरीय साक्षात्कार नहीं हो सकता।


योग से होता है शिव का साक्षात्कार

योग परंपरा में शिव की पूजा ईश्वर के रूप में नहीं की जाती बल्कि उन्हें आदि गुरु माना जाता है। वे प्रथम गुरु हैं जिनसे ज्ञान की उत्पति हुई थी। कई हजार वर्षों तक ध्यान में रहने के पश्चात एक दिन वे पूर्णतः शांत हो गए। वह दिन महाशिवरात्रि का है। उनके अन्दर कोई गति नहीं रह गई और वे पूर्णतः निश्चल हो गए। इसलिए तपस्वी महाशिवरात्रि को निश्चलता के दिन के रूप में मनातें हैं। पौराणिक कथाओं के अलावा योग परंपरा में इस दिन और इस रात को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि महाशिवरात्रि एक तपस्वी व जिज्ञासु के समक्ष कई संभावनाएं प्रस्तुत करती है। आधुनिक विज्ञान कई अवस्थाओं से गुजरने के बाद आज एक ऐसे बिन्दु पर पहुंचा है जहां वे यह सिद्ध कर रहे हैं कि हर चीज जिसे आप जीवन के रूप में जानते हैं, वह सिर्फ ऊर्जा है, जो स्वयं को लाखों करोड़ों रूप में व्यक्त करती है। योगी यानी जो अस्तित्व की एकरूपता को जान चुका है। असीम, अस्तीत्व व एकरुपता को जानने की सभी चेष्टाएं चेष्टाएं योग हैं। महाशिवरात्रि की रात हमें इसे अनुभव करने का एक अवसर प्रदान करती है।

शीश गंग अर्धंग पार्वती, सदा विराजत कैलासी।

नंदी भृंगी नृत्य करत हैं, धरत ध्यान सुर सुखरासी।।

शीतल मंद सुगंध पवन बह।

बैठे हैं शिव अविनाशी।।

करत गान गन्धर्व सप्त स्वर।

राग रागिनी मधुरा-सी।।

यक्ष-रक्ष भैरव जहाँ डोलत।

बोलत हैं वन के वासी।।

कोयल शब्द सुनावत सुन्दर

भ्रमर करत हैं गुंजा-सी।।

कैलाशी काशी के वासी

अविनाशी मेरी सुध लीजो।।


महादेव की सबसे प्रिय रात्रि है महाशिवरात्रि

भगवान शिव और पार्वती की शादी बड़े ही भव्य तरीके से आयोजित हुई। पार्वती की तरफ से कई सारे उच्च कुलों के राजा-महाराजा और शाही रिश्तेदार इस शादी में शामिल हुए, लेकिन शिव की ओर से कोई रिश्तेदार नहीं था, क्योंकि वे किसी भी परिवार से ताल्लुक नहीं रखते। शिव पशुपति हैं, मतलब सभी जीवों के देवता भी हैं, तो सारे जानवर, कीड़े-मकोड़े और सारे जीव उनकी शादी में उपस्थित हुए। यहां तक कि भूत-पिशाच और विक्षिप्त लोग भी उनके विवाह में मेहमान बन कर पहुंचे। सभी देवता तो वहां मौजूद थे ही, साथ ही असुर भी वहां पहुंचे। आम तौर पर जहां देवता जाते थे, वहां असुर जाने से मना कर देते थे और जहां असुर जाते थे, वहां देवता नहीं जाते थे। उनकी आपस में बिल्कुल नहीं बनती थी। मगर यह तो शिव का विवाह था, इसलिए उन्होंने अपने सारे झगड़े भुलाकर एक बार एक साथ आने का मन बनाया। यह एक शाही शादी थी, एक राजकुमारी की शादी हो रही थी, इसलिए विवाह समारोह से पहले एक अहम समारोह होना था। वर-वधू दोनों की वंशावली घोषित की जानी थी। एक राजा के लिए उसकी वंशावली सबसे अहम चीज होती है जो उसके जीवन का गौरव होता है। तो पार्वती की वंशावली का बखान खूब धूमधाम से किया गया। यह कुछ देर तक चलता रहा। आखिरकार जब उन्होंने अपने वंश के गौरव का बखान खत्म किया, तो वे उस ओर मुड़े, जिधर वर शिव बैठे हुए थे। सभी अतिथि इंतजार करने लगे कि वर की ओर से कोई उठकर शिव के वंश के गौरव के बारे में बोलेगा मगर किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा। वधू का परिवार ताज्जुब करने लगा, ‘क्या उसके खानदान में कोई ऐसा नहीं है जो खड़े होकर उसके वंश की महानता के बारे में बता सके?’ मगर वाकई कोई नहीं था। वर के माता-पिता, रिश्तेदार या परिवार से कोई वहां नहीं आया था क्योंकि उसके परिवार में कोई था ही नहीं। वह सिर्फ अपने साथियों, गणों के साथ आया था जो विकृत जीवों की तरह दिखते थे। वे इंसानी भाषा तक नहीं बोल पाते थे और अजीब सी बेसुरी आवाजें निकालते थे। वे सभी नशे में चूर और विचित्र अवस्थाओं में लग रहे थे। फिर पार्वती के पिता पर्वत राज ने शिव से अनुरोध किया, ‘कृपया अपने वंश के बारे में कुछ बताइए।’ शिव कहीं शून्य में देखते हुए चुपचाप बैठे रहे। वह न तो दुल्हन की ओर देख रहे थे, न ही शादी को लेकर उनमें कोई उत्साह नजर आ रहा था। वह बस अपने गणों से घिरे हुए बैठे रहे और शून्य में घूरते रहे। वधू पक्ष के लोग बार-बार उनसे यह सवाल पूछते रहे क्योंकि कोई भी अपनी बेटी की शादी ऐसे आदमी से नहीं करना चाहेगा, जिसके वंश का अता-पता न हो। उन्हें जल्दी थी क्योंकि शादी के लिए शुभ मुहूर्त तेजी से निकला जा रहा था। मगर शिव मौन रहे। शिव कहीं शून्य में देखते हुए चुपचाप बैठे रहे। वह न तो दुल्हन की ओर देख रहे थे, न ही शादी को लेकर उनमें कोई उत्साह नजर आ रहा था। समाज के लोग, कुलीन राजा-महाराजा और पंडित बहुत घृणा से शिव की ओर देखने लगे और तुरंत फुसफुसाहट शुरू हो गई, ‘इसका वंश क्या है? यह बोल क्यों नहीं रहा है? हो सकता है कि इसका परिवार किसी नीची जाति का हो और इसे अपने वंश के बारे में बताने में शर्म आ रही हो।’ फिर नारद मुनि, जो उस सभा में मौजूद थे, ने यह सब तमाशा देखकर अपनी वीणा उठाई और उसकी एक ही तार खींचते रहे। वह लगातार एक ही धुन बजाते रहे, टोइंग टोइंग टोइंग। इससे खीझकर पार्वती के पिता पर्वत राज अपना आपा खो बैठे, ‘यह क्या बकवास है? हम वर की वंशावली के बारे में सुनना चाहते हैं मगर वह कुछ बोल नहीं रहा। क्या मैं अपनी बेटी की शादी ऐसे आदमी से कर दूं? और आप यह खिझाने वाला शोर क्यों कर रहे हैं? क्या यह कोई जवाब है?’ नारद ने जवाब दिया, ‘वर के माता-पिता नहीं हैं।’ राजा ने पूछा, ‘क्या आप यह कहना चाहते हैं कि वह अपने माता-पिता के बारे में नहीं जानता?’ ‘नहीं, इनके माता-पिता ही नहीं हैं। इनकी कोई विरासत नहीं है। इनका कोई गोत्र नहीं है। इसके पास कुछ नहीं है। इनके पास अपने खुद के अलावा कुछ नहीं है।’ पूरी सभा चकरा गई। पर्वत राज ने कहा, ‘हम ऐसे लोगों को जानते हैं जो अपने पिता या माता के बारे में नहीं जानते। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति हो सकती है। मगर हर कोई किसी न किसी से जन्मा है। ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी का कोई पिता या मां ही न हो।’ नारद ने जवाब दिया, ‘क्योंकि यह स्वयंभू हैं। इन्होंने खुद की रचना की है। इनके न तो पिता हैं न माता। इनका न कोई वंश है, न परिवार। यह किसी परंपरा से ताल्लुक नहीं रखते और न ही इनके पास कोई राज्य है। इनका न तो कोई गोत्र है, और न कोई नक्षत्र। न कोई भाग्यशाली तारा इनकी रक्षा करता है। यह इन सब चीजों से परे हैं। यह एक योगी हैं और इन्होंने सारे अस्तित्व को अपना एक हिस्सा बना लिया है। इनके लिए सिर्फ एक वंश है ध्वनि। आदि, शून्य प्रकृति ने जब अस्तित्व में आई, तो अस्तित्व में आने वाली पहली चीज थी दृ ध्वनि। इनकी पहली अभिव्यक्ति एक ध्वनि के रूप में है। ये सबसे पहले एक ध्वनि के रूप में प्रकट हुए। उसके पहले ये कुछ नहीं थे। यही वजह है कि मैं यह तार खींच रहा हूं।’


महाशिवरात्रि पर क्या करें भोजन?

भक्त इस बात का ख्याल रखें कि भगवान शंकर पर चढ़ाया गया नैवेद्य खाना निषिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि जो इस नैवेद्य को खाता है, वह नरक के दुखों का भोग करता है। इस कष्ट के निवारण के लिए शिव की मूर्ति के पास शालीग्राम की मूर्ति का रहना अनिवार्य है। यदि शिव की मूर्ति के पास शालीग्राम हो, तो नैवेद्य खाने का कोई दोष नहीं है। व्रत के व्यंजनों में सामान्य नमक के स्थान पर सेंधा नमक का प्रयोग करते हैं। लाल मिर्च की जगह काली मिर्च का प्रयोग करते हैं। कुछ लोग व्रत में मूंगफली का उपयोग भी नहीं करते हैं। ऐसी स्थिति में आप मूंगफली को सामग्री में से हटा सकते हैं। व्रत में यदि कुछ नमकीन खाने की इच्छा हो, तो आप सिंघाड़े या कुट्टू के आटे के पकौड़े बना सकते हैं। इस व्रत में आप आलू सिंघाड़ा, दही बड़ा भी खा सकते हैं। सूखे दही बड़े भी खाने में स्वादिष्ट लगते हैं। तो, जितने आपको सूखे दही बड़े खाने हों उतने दही बड़े सूखे रख लीजिए और जितने दही में डुबाने हों दही में डुबो लीजिये। इस दिन साबूदाना भी खाया जाता है। साबूदाना में कार्बोहाइड्रेट की प्रमुखता होती है। इसमें कुछ मात्रा में कैल्शियम व विटामिन सी भी होता है। इसका उपयोग अधिकतर पापड़, खीर और खिचड़ी बनाने में होता है। व्रतधारी इसका खीर अथवा खिचड़ी बना कर उपयोग कर सकते हैं। साबूदाना दो तरह के होते हैं एक बड़े और एक सामान्य आकार के। यदि आप बड़ा साबूदाना प्रयोग कर रहे हैं तो इसे एक घंटा भिगोने की बजाय लगभग आठ घंटे भिगोये रखें। छोटे आकार के साबूदाने आपस में हल्के से चिपके चिपके रहते हैं लेकिन बड़े साबूदाने का पकवान ज्यादा स्वादिष्ट होता है। यदि आप उपवास के लिए साबूदाने की खिचड़ी बनाते हुए उसमें नमक सा स्वाद पाना चाहते हैं तो उसमें सामान्य नमक की जगह सेंधा नमक का प्रयोग करें।


शिवरात्रि ही है ‘कालरात्रि‘

रात्रि शब्द अज्ञान अन्धकार से होने वाले नैतिक पतन का द्योतक है। परमात्मा ही ज्ञानसागर है जो मानव मात्र को सत्यज्ञान द्वारा अन्धकार से प्रकाश की ओर अथवा असत्य से सत्य की ओर ले जाते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री-पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध सभी इस व्रत को कर सकते हैं। इस व्रत के विधान में सवेरे स्नानादि से निवृत्त होकर उपवास रखा जाता है। शिवरात्रि शब्द का प्रयोग इसलिए करते है क्योंकि शिव बाबा का अवतरण (आना) घोर संकट के समय में हुआ है, जब 5 विकार जिनको माया (5 विकारों के समूह को माया कहते है) कहा जाता है। ये समाज मे हर जगह होते है। इन 5 विकारों से हम सबको छुड़ाने के लिए शिव बाबा धरा पर आते है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया। विज्ञान हजारों वर्षों से ’शिव’ के अस्तित्व को समझने का प्रयास कर रहा है. जब भौतिकता का मोह समाप्त हो जाता है और ऐसी स्थिति आ जाती है कि इंद्रियां भी बेकार हो जाती हैं, उस स्थिति में शून्यता आकार ले लेती है और जब शून्यता भी अस्तित्वहीन हो जाती है तब वहां शिव प्रकट होते हैं. शिव शून्य से परे हैं, जब व्यक्ति भौतिक जीवन को त्यागकर सच्चे मन से ध्यान करता है तो शिव की प्राप्ति होती है. महाशिवरात्रि शिव के एक-आयामी और अलौकिक रूप को हर्षोल्लास के साथ मनाने का त्योहार है. महाशिवरात्रि के इस शुभ अवसर पर श्रद्धा और भक्ति के साथ भगवान शिव की उपासना करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। कहते हैं कि भगवान शिव अपने भक्तों की भक्ति से प्रसन्न होकर मनचाहा वरदान दे देते हैं, इसलिए उन्हें भोलेनाथ कहा जाता है. फाल्गुन मास भगवान शिव की उपासना के लिए बेहद शुभ माना गया है. ऐसा इसलिए क्योंकि इस महीने में पड़ने वाली महाशिवरात्रि भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए बेहद खास मानी गई है. इस दिन का हर पल अत्यंत शुभ होता है. इस दिन व्रत रखने से अविवाहित लड़कियों को मनचाहा पति मिलता है और विवाहित महिलाओं का वैधव्य दोष भी नष्ट होता है. महाशिवरात्रि पर शिवलिंग की पूजा करने से कुंडली के नौ ग्रह दोष शांत होते हैं, खासकर चंद्रमा से होने वाले दोष जैसे मानसिक अशांति, माता के सुख और स्वास्थ्य में कमी, मित्रों से संबंध, मकान-वाहन के सुख में देरी, हृदय रोग, नेत्र विकार, चर्म-कुष्ठ रोग, सर्दी-खांसी, दमा रोग, खांसी-निमोनिया संबंधी रोग ठीक होते हैं और समाज में मान-सम्मान बढ़ता है.


 






Suresh-gandhi


सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार 

वाराणसी

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